एक समय एक गाँव में एक धार्मिक और ज्ञानी ब्राह्मण रहता था। गाँववाले उसकी विद्वता के कारण उसका बड़ा आदर करते थे। वह प्रत्येक मंगलवार और शुक्रवार को धार्मिक प्रवचन करता था। गाँववाले उसका प्रवचन सुनने के लिए भारी संख्या में उसके घर के हाते में एकत्र होते थे। उन्हें लगता था कि ब्राह्मण की शास्त्रों की व्याख्या से धर्मपरायण और सदाचारपूर्ण जीवन जीने में बहुत मदद मिलती है। ब्राह्मण कभी उनसे दान-दक्षिणा नहीं माँगता था। परन्तु उसके द्वार मण्डप में, जहाँ वह मृगचर्म के आसन पर बैठकर प्रवचन करता था, चाँदी की एक थाली रखी रहती थी जिसमें गाँववाले कृतज्ञतावश कुछ सिक्के स्वेच्छा से डाल जाते थे।
कालक्रम में ब्राह्मण को अपनी विद्वता और धर्मपरायणता पर अहंकार हो गया। वह अशिष्ट और घमण्डी भी बन गया। जो ग्रामीण उसकी थाली में सिक्के नहीं डालता था, उस पर वह नाराज रहता था। जब उसके पास पर्याप्त धन हो गया तो उसने तीर्थयात्रा पर हरिद्वार जाने का निश्चय किया। उसने प्रवचन के बाद एक दिन घोषणा की, ‘‘शायद तुम सबने हरिद्वार का नाम सुना होगा। यह हमारे देश का पावनतम तीर्थस्थल है। मैं तीर्थयात्रा के लिए वहाँ जाना चाहता हूँ। वहाँ से लौटने के बाद फिर प्रवचन आरम्भ करूँगा।''
विसर्जन के बाद जाने से पहले कुछ ग्रामीणों ने ब्राह्मण को साष्टांग प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया। एक युवक कुछ प्रतीक्षा के बाद हाथ जोड़कर ब्राह्मण के पास आया। ब्राह्मण ने उसे पहचानते हुए कहा, ‘‘अरे कल्हन तुम! बोलो, क्या चाहते हो?''
‘‘क्या मैं भी आप के साथ पवित्र धाम हरिद्वार की तीर्थयात्रा पर आ सकता हूँ?'' कल्हन ने अनुरोध किया।
ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ कि इस गडेरिये में अचानक इतनी भक्ति कैसे आ गई। उसने कहा, ‘‘हरिद्वार काफी दूर है। वापस आने में बहुत दिन लग जायेंगे। तुम्हारी भेड़ों की देखभाल कौन करेगा?''
‘‘वे प्रातः अपने आप चरने चली जायेंगी और शाम को बाड़े में स्वयं वापस लौट आयेंगी। वे मेरे लिए समस्या नहीं हैं।'' कल्हन ने विश्वास के साथ कहा।
‘‘ठीक है। तुम मेरे साथ चल सकते हो। तैयारी कर लो। कल प्रातः तड़के चल पड़ेंगे।'' ब्राह्मण ने कहा। उसके मन में लगा जैसे वह बहुत भलाई का काम कर रहा है।
मार्ग भर ब्राह्मण गड़ेरिये को यह समझाने की कोशिश करता रहा कि बहुत कम लोग इतने भाग्यशाली होते हैं जो तीर्थयात्रा पर जा सकें और हरिद्वार जैसे पवित्र स्थान के दर्शन का अवसर पा सकें। कल्हन चुपचाप सुनता रहा। ब्राह्मण बीच-बीच में भगवान का नाम जपता रहता था, लेकिन कल्हन ने ऐसा कुछ नहीं किया।
हरिद्वार पहुँचने पर ब्राह्मण और ऊँचे स्वर में भगवान का नाम जपने लगा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कल्हन में हरिद्वार आने का कोई उत्साह और खुशी नहीं है। वह वहॉं के दृश्यों को देखने में मग्न है। गंगा नदी पर पहली दृष्टि पड़ते ही ब्राह्मण ने झुक कर गंगा की पूजा की। ‘‘हे गंगा माता, अपने बालक को ग्रहण करो। इस शुभ मुहूर्त के लिए मैं कितने अरसे से प्रतीक्षा कर रहा था!''
पूजा के बाद उसकी नजर कल्हन पर पड़ी। वह खड़ा-खड़ा नदी को निहार रहा था। ब्राह्मण को अपने आप पर गुस्सा आया कि बेकार ही उसने इस गंवार गड़ेरिये को हरिद्वार जैसे पावन तीर्थ में लाने की तकलीफ़ उठाई। उसने उसे यहाँ लाकर पाप किया। वह इस पाप को भी अन्य पापों के साथ गंगा में धो देगा। उसने निश्चय किया।
‘‘कल्हन, तुम यहीं ठहरो। मैं इस पवित्र गंगा में स्नान करूँगा। मेरे लौट कर आने के बाद तुम स्नान करने जाना।'' ब्राह्मण ने कहा।
अब आश्चर्य प्रकट करने की कल्हन की बारी थी। उसने अचरज के साथ कहा, ‘‘क्या मैं इतनी दूर से सिर्फ नदी में स्नान करने आया हूँ?''
‘‘लेकिन कल्हन, यह गंगा नदी है, इस देश की सबसे पावन नदी!'' ब्राह्मण ने कहा। वह गड़ेरिये से बहुत निराश हुआ।
‘‘महाशय, मैं अपने गाँव में ही रुक सकता था और अपनी नदी में ही स्नान कर सकता था। मुझे इन दोनों नदियों में कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता!'' कल्हन ने कहा।
‘‘मैं अभी यहाँ तुमसे बहस करना नहीं चाहता। मैं स्नान करने जा रहा हूँ। तुम जो मर्जी हो करो।'' ब्राह्मण घाट की सीढ़ियों से उतरते हुए बोला।
गंगा मैया ने गड़ेरिये की बात सुन ली। एक व्यक्ति ऐसा है जो हर नदी को गंगा मानता है, हरिद्वार की गंगा के समान पवित्र समझता है। उन्होंने उसे आशीर्वाद देने का निश्चय किया।
इस उद्देश्य से वह नदी से निकल कर बाहर आई और कल्हन के पास जाकर बोली, ‘‘मैं गंगा हूँ। तुमने मेरे बारे में जो कहा, मैंने सुन लिया। तुम मेरे सभी भक्तों में सबसे अधिक ज्ञानी हो। नदियों के अलग-अलग नाम होते हुए भी वे सभी समान रूप से पवित्र होती हैं। यह सच है। अपना मुख खोल कर अपनी जिह्वा दिखाओ जिससे इतने ज्ञान की बातें निकली हैं। उसे मैं देखना चाहती हूँ।''
सरल हृदय कल्हन ने अपनी जीभ दिखा दी। गंगा मैया ने उसकी जीभ पर कुछ लिखा और कहा, ‘‘तुम अब पशु-पक्षियों की भाषा और ज्ञान समझ सकते हो और उनसे बात कर सकते हो। तुम्हारा भाग्योदय होनेवाला है।''
कल्हन हक्का-बक्का रह गया। गंगा मैया अदृश्य हो गई। उसने नदी को और उसमें स्नान करते लोगों को देखा। उनमें उसे ब्राह्मण दिखाई नहीं पड़ा। उसने सोचा कि उसके हरिद्वार की तीर्थयात्रा का उद्देश्य पूरा हो गया। अब उसे अपने गाँव लौट जाना चाहिये जहाँ उसकी भेड़ें उसका इन्तजार कर रही हैं। इसलिए वह वहाँ से चल पड़ा।
ब्राह्मण के साथ हरिद्वार आते हुए जिन भवनों और दृश्यों को उसने देखा था, उन्हें देखकर इसे विश्वास हो गया कि वह अपने गाँव की ओर सही मार्ग से जा रहा है। उसने विपरीत दिशा से आती हुई एक शोभायात्रा देखी जिसके आगे-आगे एक हाथी आ रहा था। उसकी सूँढ़ में एक माला लटक रही थी।
कल्हन हाथी को मार्ग देने के लिए सड़क के किनारे पर आ गया। उसने एक दर्शक से शोभायात्रा के विषय में पूछताछ की। उसने बताया कि यहाँ के राजा की हाल में मृत्यु हो गई है। यहाँ की रीति के अनुसार राजसी हाथी आम लोगों में से, राजा के सम्बन्धियों में से नहीं, राजा के उत्तराधिकारी को चुनता है।
हाथी जब कल्हन के निकट आया तब वह रुक गया। फिर इसने चारों ओर देखा और चिंघाड़ किया। उसके बाद उसने अपनी सूँढ़ की माला कल्हन के गले में डाल दी। भीड़ की जयजयकार के साथ हाथी ने कल्हन को अपनी पीठ पर बिठा लिया। जनसमूह से ऊँचे स्वर में आवाज आई, ‘‘तुम हमारे नये राजा हो।''
शोभायात्रा आगे बढ़ी। तंग मार्ग पर एक ओर दर्शकों में खड़ा वह ब्राह्मण भी था जो अभी-अभी गंगा में स्नान करने के बाद ताजा महसूस कर रहा था। उसे कल्हन को पहचानने में अधिक समय लगा। वह अपने गाँव में एक गड़ेरिया मात्र था। लेकिन अब कल्हन राजा बन गया था।
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