23 मार्च 2010

रामायण – लंकाकाण्ड - सीता के साथ छल

गुप्तचरों से राम की सेना का समाचार सुनकर रावण उस पर विचार करता हुआ अपने राजप्रासाद में गया। उसने मायावी राक्षस विधुज्जिह्वा को बुलाकर आदेश दिया कि वह शीघ्र अपनी चतुराई से ऐसे दो सिर बनाकर लाये जो राम और लक्ष्मण के सिरों से बिलकुल मिलते जुलते हों और ऐसा प्रतीत हो कि उन्हें अभी काटकर लाया गया है। रावण की आज्ञा पाकर वह शीघ्र ही ऐसे दो सिर बना लाया जो रक्त से लथपथ थे। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि ये वास्तव में राम और लक्ष्मण के मस्तक नहीं हैं। उन दोनों मस्तकों को बाण की नोक पर रखकर वह अशोकवाटिका में जाकर सीता से बोला, "हे सीते! तूने राम की शक्ति पर अगाध विश्वास करके मेरा कहना नहीं माना। देख, राम और लक्ष्मण दोनों युद्धभूमि में मारे गये। ले, अपने पति और देवर के मरने का समाचार सुन और इन दोनों सिरों को देखकर अपने अभिमान पर आँसू बहा। वह अभिमानी वानरों के भरोसे मुझसे युद्ध करने आया था। रात्रि को जब वानर सेना सहित राम और लक्ष्मण दोनों सो रहे थे, तब मेरे सेनापति प्रहस्त ने एक विशाल सेना लेकर उस पर आक्रमण कर दिया और अपने भयंकर हथियारों से मारकाट मचा दी। बहुत सी सेना मारी गई और जो बचे, वे प्राण लेकर भाग गये। तब प्रहस्त ने सोते हुये राम और लक्ष्मण के सिर काट डाले। इस आक्रमण में विभीषण भी मारा गया। तुझे प्राप्त करने के लिये मुझे ऐसा भयंकर संहार करना पड़ा। अब तेरा कोई आश्रय नहीं रह गया है, इसलिये अब तुझे चाहिये कि तू मुझे पति रूप में स्वीकार कर ले।" यह कह कर रावण ने वे दोनों मायारचित सिर सीता के सामने रख दिये।

जब सीता ने उन दोनों मस्तकों को देखा जो सब प्रकार से आकृति, मुद्रा आदि में राम-लक्ष्मण से मिलते थे तो वह बिलख-बिलक कर रो पड़ी और नाना प्रकार से विलाप करती हुई कैकेयी को कोसने लगी, "हा! आज कैकेयी की मनोकामना पूरी हो गई। हा नागिन! आज तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। अब तुम्हारा भरत निष्कंटक होकर राज करेगा। तुमने अपने स्वार्थ के पीछे रघुकुल का नाश कर दिया।" इस प्रकार विलाप करती हुई वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। जब चेतना लौटी तो वे फिर विलाप करने लगीं, "हा नाथ! यह सब क्या हो गया? आज मैं विधवा हो गई। आप मुझे यहाँ किसके भरोसे पर छोड़ गये। मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया है कि मैं रो-रो कर मर रही हूँ और आप चुपचाप देख रहे हैं। मुझसे सान्त्वना का एक शब्द भी नहीं कह रहे। ऐसे निर्मोही तो आप कभी नहीं थे। वन चलते समय आपने वचन दिया था कि तेरा साथ कभी नहीं छोड़ूँगा, परन्तु आज आप मुझे अकेला छोड़ कर चल दिये। आपकी प्रतीक्षा में आँखें बिछाये कौशल्या जब ये समाचार सुनेंगीं तो उनकी क्या दशा होगी? कौन उनके आँसू पोंछेगा? हा! आज मैं ही आप दोनों कि मृत्यु का कारण बन गई। हे नीच रावण! तूने दोनों भाइयों की हत्या तो करा ही दी अब मेरा शीश भी काटकर अपनी कृपाण की प्यास बुझा ले। मेरे पति स्वर्ग में मेंरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब मैं इस संसार में एक क्षण भी रहना नहीं चाहती। उठा तलवार, कर अपना काम।"

जब सीता इस प्रकार विलाप कर रही थी तभी एक राक्षस ने आकर रावण को सूचना दी कि मन्त्री प्रहस्त अत्यन्त आवश्यक कार्य से इसी समय आपके दर्शन करना चाहते हैं। यह सुनते ही रावण तत्काल दोनों सिरों को लेकर वहाँ से चला गया। उस समय तक सीता पुनः मूर्छित हो चुकी थीं। विभीषण की स्त्री इस घटना की सूचना पा कर अशोकवाटिका में आई। वह सीता की मूर्छा दूर करके उन्हें समझाने लगी, "रावण ने तुमसे जो कुछ कहा है, वह झूठ है। राम और लक्ष्मण न तो मारे गये हैं और न ये दुष्ट उन्हें मार ही सकते हैं। ये दोनों सिर माया से बनाये गये हैं। तुम इसके छल में पड़कर यह भी भूल गईं कि लक्ष्मण दिन रात राघव की सेवा में रहते हैं और वे रात को कभी नहीं सोते। फिर सोते में उनके सिर कैसे काटे जा सकते हैं? तनिक कान लगाकर सुनो। रण की तैयारी करती हुई राक्षस सेना की गर्जना की ध्वनि स्पष्ट सुनाई दे रही है। यदि राम-लक्ष्मण वानरों सहित मारे जाते तो फिर यह तैयारी किसलिये होती?" ये तर्कयुक्त वचन सुनकर सीता इस बात पर विचार करने लगी।