नैमिशारण्य में निवास करनेवाले मुनियों को सूत मुनि ने व्यास महर्षि के द्वारा सुने अनेक पुराण सुनाये। किसी संदर्भ में सूत ने शौनक आदि मुनियों के सामने देवी भागवत नामक पुराण का उल्लेख किया था। एक दिन शौनक ने सूत को यह बात याद दिलाई और वही भागवत सुनाने का अनुरोध किया। सूत ने उन मुनियों को देवी भागवत पुराण कह सुनाया :
सूत ने सर्व प्रथम आदि शक्ति के बारे में यों कहा : देवी एक महान शक्ति है। वही विद्या है, समस्त लोक उनके आश्रय में हैं। सृष्टि, स्थिति और लय का कारणभूत वास्तव में आदि शक्ति ही है। उनकी प्रेरणा से त्रिमूर्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। ब्रह्मा विष्णु की नाभि से उत्पन्न हुए हैं। विष्णु का आधार आदिशेष हैं। उस जल का आधार महा शक्ति लोक माता है। ऐसी देवी से संबन्धित कथा ही देवी भागवत है।''
सूत मुनि के मुँह से देवी भागवत की कथा सुनने का कुतूहल रखनेवाले मुनियों की तरफ़ से शौनक ने सूत मुनि से पूछा-‘‘एक समय ब्रह्मा ने हमें एक चक्र प्रदान किया और कहा था कि उसकी नेमि जिस प्रदेश में टूट जाएगी, वह प्रदेश अत्यंत पवित्र है। वहाँ पर कलि का प्रवेश न होगा। उस चक्र की नेमि या धुरी यहीं पर टूट गई थी। इसलिए इस प्रदेश का नाम नैमिश पड़ा। हम लोग यहीं पर रह गये। पुनः कृत युग के आगमन तक यहीं रहकर कलि के भय से मुक्त रहेंगे। यहाँ पर हमें पुण्य गोष्ठी के अतिरिक्त अन्य काम नहीं हैं। इसलिए आप हमें पुण्यप्रद देवी भागवत पुराण सुनाइये।''
इसके बाद सूत मुनि ने यों कहा :
‘‘महामुनि व्यास ने मुझे देवी भागवत सुनाया, उसी रूप में मैं आप लेगों को वह पुराण सुनाता हूँ। अब तक सत्ताईस द्वापर बीत गये हैं और अट्ठाईसवाँ द्वापर चल रहा है। प्रत्येक द्वापर में एक व्यास का जन्म हुआ है। वेदों का विभाजन करके, पुराणों की रचना करनेवाले सात्यवतेय नामक व्यास (सत्यवती का पुत्र) मेरे गुरुदेव हैं।
वे अपने पुत्र शुक को यह देवी भागवत सुना रहे थे, उस समय मैंने अत्यंत भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक उसे हृदयंगम कर लिया। बुजुर्ग कहा करते हैं न - ‘‘ ‘दामाद के साथ खाओ, पुत्र के साथ पढ़ो।' इसी प्रकार यह देवी भागवत सुनकर शुकमुनि तर गये। वास्तव में जिन लोगों ने यह पुराण सुना है, वे कष्टों से दूर हो जाते हैं।''
इस पर मुनियों ने पूछा-‘‘शुक मुनि व्यास महर्षि के कैसे पुत्र हुए? कहा जाता है कि उनका जन्म अरणि में हुआ है!'' इस पर सूत ने मुनियों को शुक का जन्म-वृत्तांत यों सुनाया :
एक समय व्यास महर्षि सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ पक्षी दंपतियों के रूप में जीवन बिताते हुए बच्चे दे रहे हैं और उनके मुँह में आहार देकर उनकी खाते देख वे परमानंदित हो रहे हैं। इसे देख व्यास ने सोचा कि उन्हें भी संतान पैदा हो जाय तो क्या ही अच्छा हो! शादी करने पर पत्नी के साथ सुख भोग सकते हैं। पुत्रों को जन्म दे सकते हैं। पुत्र बड़े हो विवाह करे तो प्यारी बहू को देख प्रसन्न हो सकते हैं। पुत्रों के होने से कितने ही लाभ हैं ! वे हमारी वृद्धावस्था में श्रद्धा के साथ हमारी सेवा करेंगे। धन कमाकर ला देंगे। हमारे मरने पर सिर के नीचे आग देकर हमें उत्तम लोकों की प्राप्ति के हेतु पिंड प्रदान वगैरह करते हैं। इसलिए मानव के लिए पुत्रों से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
यों विचार कर व्यास मुनि पुत्र पाने के विचार से तपस्या करने कांचनाद्रि पहुँचे और सोचने लगे कि किस देवता की आराधना करने से उनकी इच्छा की पूर्ति जल्दी हो सकती है। उस समय वहाँ पर नारद पहुँचे। उन्हें देखते ही व्यास ने प्रणाम करके पूछा-‘‘भगवान ! आप उचित समय पर आ गये। संभवतः मेरी कामना की पूर्ति करने के लिए ही पधारे होंगे।''
इस पर नारद ने कहा-‘‘आप सर्वज्ञ हैं। आप के लिए किसी दूसरे की सहायता की आवश्यकता ही क्या है? फिर भी आप की कोई कामना हो तो बता दीजिए!''
‘‘सुना है कि पुत्र विहीन व्यकित को परलोक प्राप्त नहीं होता। महर्षि ! बताइये, किस देवता की प्रार्थना करने पर वे मुझे पुत्र प्रदान करेंगे?'' व्यास ने पूछा।
इस पर नारद ने यों समझाया-‘‘एक समय मेरे पिता ब्रह्मा के मन में भी यही संदेह पैदा हुआ। वे विष्णु लोक में पहुँचे। विष्णु को देख पूछा-‘‘मैं आप ही को सर्वोत्तम मानता हूँ। आप से भी कोई महान व्यकित हो तो बता दीजिए।''
विष्णु ने कहा था-‘‘लोग सोचा करते हैं कि आप सृष्टिकर्ता हैं, मैं स्थितिकारक हूँ और शिवजी लयकारक हैं। लेकिन यह तो भारी भूल है। बुद्धिमान लोग जानते हैं कि तेजोप्रधान ‘आदि शक्ति' ही सृष्टि करती हैं। हम अगर सृष्टि, स्थिति और प्रलयकारक हैं तो इसका कारण है- आपको रज, मुझे सत्व और शिवजी को तमस सहायकारी हो रहे हैं। वरना हमारा मूल्य ही क्या है? यदि मैं शेषतल्प पर शयन करता हूँ, और घमण्डी राक्षसों का वध करता हूँ तो यह सब उस शक्ति की कृपा के कारण ही है न? क्या बहुत समय पूर्व मधु और कैटभ नाभक दानवों के साथ पाँच हज़ार वर्षों तक लड़कर अंत में उसी शक्ति की सहायता से ही मैंने विजय नहीं पाई? मैं कभी अपने को स्वतंत्र व्यक्ति नहीं मानता। एक बार धनुष की डोरी के द्वारा मेरा सर कट गया तो आप ने देव शिल्पी के हाथ एक घोड़े का सिर चिपकवा दिया था, इस प्रकार मैं क्या हयग्रीव नहीं बना? इसलिए मैं शक्ति के अधीन हूँ। मैं यह नहीं कह सकता कि समस्त लोकों में भी शक्ति से बढ़कर कोई चीज़ है !''
यों समझाकर नारद ने व्यास मुनि से कहा-‘‘इसलिए आप आदि शक्ति की आराधना करेंगे तो आप की इच्छा की पूर्ति होगी।''
इस पर व्यास महर्षि ने लोकमाता के प्रति तपस्या की।
इस पर मुनियों ने सूत से पूछा-‘‘विष्णु का सर कैसे कट गया? उनके धड़ पर घोड़े का सर कैसे चिपकाया गया? इसे विस्तृत रूप में सुनाइये।''
हयग्रीवावतार
प्राचीन काल में विष्णु ने राक्षसों के साथ दस हज़ार वर्ष तक युद्ध किया, आख़िर थककर चढ़ायी गयी प्रत्यंचा की डोरी पर चिबुक टिकाकर सोने लगे। उस समय देवताओं ने यज्ञ करने का संकल्प किया और उनकी खोज में आ पहुँचे। विष्णु को सोते देख वे पशोपेश में पड़ गये कि आख़िर क्या किया जाय? इस पर शिवजी ने ब्रह्मा से कहा-‘‘आप एक कीड़े की सृष्टि करके उसके द्वारा विष्णु के धनुष की प्रत्यंचा को कटवा दीजिए। प्रत्यंचा के कटते ही धनुष का छोर ऊपर उठेगा। तब विष्णु जाग पड़ेंगे। इस प्रकार यज्ञ संपन्न हो सकता है।''
इस पर ब्रह्मा ने कीड़े की सृष्टि करके प्रत्यंचा की डोरी को काटने का आदेश दिया।
तब कीड़ा बोला-‘‘महात्मा ! मैं यह काम कैसे करूँ? यह तो महान पाप है न? माता और बच्चों को अलग करना, पति-पत्नी में विरह पैदा करना, निद्रा भंग करना ये सब ब्रह्महत्या जैसे महान पाप हैं। क्या आप मुझे यह पाप करने का आदेश देते हैं?''
‘‘तुम चिंता न करो ! यज्ञ में अग्नि की आहुति न करनेवाले सारे पदार्थ मैं तुम्हें दूँगा।'' ब्रह्मा ने कीड़े को समझाया।
इस पर कीड़े ने प्रसन्न होकर प्रत्यंचा की डोरी काट दी। उस वक्त भारी आवाज़ हुई। इस पर धरती कांप उठी। प्रत्यंचा का छोर तन गया जिससे विष्णु का सर कटकर ऊपर उड़ गया। इसे देख सारे देवता घबरा गये। उनकी समझ में न आया कि क्या करे? तब सब लोग विलाप करने लगे-‘‘भगवान ! आप तो सर्वेश्वर हैं। समस्त लोकों का पालन करनेवाले हैं। आपका यह हाल कैसे हो गया है? सभी राक्षस जो कार्य नहीं कर पाये, यह काम किसने किया है? आप तो माया से भी अतीत रहते हैं ! क्या माया का इस प्रकार करना संभव है?''
इस पर देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें समझाते हुए कहा-‘‘रोते बैठे रहने से काम कैसे चलेगा? जो हुआ सो हो गया। इसका कोई उपाय सोचिये।''
तब इंद्र ने कहा-‘‘समस्त देवताओं के देखते-देखते भगवान विष्णु का सर कटकर उड़ गया है। ऐसी हालत में हमारे प्रयत्नों के द्वारा क्या हो सकता है? भगवान की कृपा से ही कुछ संभव है !''
इस पर ब्रह्मा ने देवताओं को समझाया-‘‘सब कार्यों के लिए जगदीश्वरी का अनुग्रह चाहिए। वे ही सृष्टि, स्थिति और लयकारिणी हैं। इसलिए आप सब उस आदि शक्ति की प्रार्थना कीजिए।''
देवताओं ने आदि शक्ति की प्रार्थना की। उन पर कृपा करके देवी प्रत्यक्ष हो गईं।
देवी के दर्शन कर देवताओं ने पूछा-‘‘माता ! विष्णु भगवान का यह हाल क्यों हो गया है? उनका सर क्या हो गया है?''
देवी ने उनको समझाया-‘‘बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। एक दिन विष्णु ने शयनागार में लक्ष्मी को देख हँस दिया। तब लक्ष्मी घबरा गईं। विष्णु भगवान उनका चेहरा देख क्यों हँस पड़े? क्या उनका मुँह ऐसा भद्दा है? या उससे भी अधिक रूपवती नारी को देख वे उस पर मोहित हो गये हैं? यों विचार कर लक्ष्मी ने सोचा कि सौत के झगड़े मोल लेने की अपेक्षा पति का मर जाना कहीं उत्तम है? यों सोचकर लक्ष्मी ने विष्णु को श्राप दिया कि उनके पति का सिर कटकर समुद्र में गिर जाय। उसी श्राप के कारण विष्णु का यह हाल हो गया है। साथ ही हयग्रीव नामक राक्षस ने मेरे प्रति एक हज़ार वर्ष पर्यंत तपस्या की। मैंने प्रत्यक्ष होकर उससे वर माँगने को कहा। तब उसने पूछा कि किसी के भी द्वारा उसकी मौत न हो। मैंने समझाया कि जो भी प्राणी जन्म लेता है, उसे मृत्यु अनिवार्य है। इसलिए मैंने दूसरा वर माँगने को कहा। इसलिए उसने यह वर माँगा कि वह हयग्रीव है; अतः हयग्रीव के द्वारा ही उसकी मृत्यु हो। मैंने यह वर उसे दे दिया।
वह इस वक्त समस्त लोकों को सता रहा है। इन तीनों लोकों में उसे मारने की शक्ति रखनेवाला कोई नहीं है। इसलिए तुम लोग एक घोड़ का सर लाकर विष्णु के धड़ से लगाकर हयग्रीव की सृष्टि कर दो। ऐसा करने पर ये विष्णु हयग्रीव उस राक्षस हयग्रीव का वध कर बैठेंगे और तुम लोगों की कामना की पूर्ति भी होगी।''
यों समझाकर आदि शक्ति अदृश्य हो गई। तब देवताओं ने देवशिल्पी को बुलवाकर आदेश दिया कि घोड़े का सर लाकर विष्णु के धड़ से चिपका दे। देवशिल्पी ने ऐसा ही किया। फिर क्या था, विष्णु ने हयग्रीव के रूप में हयग्रीव राक्षस का वध करके लोगों को आनंद प्रदान किया। इसके उपरांत मुनियों ने सूत से प्रार्थना की कि उन्हें मधु और कैटभ का वृत्तांत सुनावे। तब सूत ने उन राक्षसों का वृत्तांत यों सुनाया :
क्षीर सागर में शेष शैय्या पर जब विष्णु सो रहे थेतब उनके कानों से दो राक्षस पैदा हुए। वे पानी में तैरते अपने जन्म के कारण पर आश्चर्य चकित हुए। तब कैटभ ने मधु से कहा-‘‘इस महा समुद्र और हमारे लिए भी कोई आधार ज़रूर होगा।'' उसके मुँह से ये शब्द निकलने की देरी थी कि आकाश से यह वाणी सुनाई दी।
मधु और कैटभ उस वाणी का जाप करने लगे। तभी लगा कि आसमान में कोई बिजली कौंध गई हो! राक्षसों ने उसे देख सोचा कि वह आदि शक्ति का तेज है। तब उन्हें जो ध्वनि सुनाई दी, उसी को मंत्र मानकर एक हज़ार वर्ष पर्यंत तप किया। उस तपस्या पर प्रसन्न हो देवी ने उससे वर माँगने को कहा। उन लोगों ने स्वेच्छा मृत्यु की कामना की। देवी ने उन्हें यह वर दे दिया।
इसके बाद वे जल में संचार करते रहे। एक स्थान पर ब्रह्मा को देख उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। कहा-‘‘आप हमारे साथ युद्ध कीजिए। वरना पद्मासन को छोड़ कहीं भाग जाइये।''
ब्रह्मा डर गये और योग समाधि में स्थित विष्णु से प्रार्थना की-‘‘महात्मा ! जाग जाइये! दो राक्षस मेरा वध करना चाहते हैं। मेरी रक्षा कीजिए।''
विष्णु योग निद्रा से जागे नहीं। इस पर ब्रह्मा ने आदि शक्ति योग निद्रा से ही प्रार्थना की-‘‘जगन्माता! इन राक्षसों का वध करने के लिए आप विष्णु को जगाइये या आप ही मेरी रक्षा कीजिए।'' फिर क्या था, उसी वक्त योग निद्रा विष्णु को छोड़कर चली गई। विष्णु को निद्रा से जागते देख ब्रह्मा परमानंदित हुए।
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