छ: महीने बाद कलकत्ते से घर आने पर दयाकृष्ण ने पहला काम जो किया, वह अपने प्रिय मित्र सिंगारसिंह से मातमपुरसी करने जाना था। सिंगार के पिता का आज तीन महीने हुए देहान्त हो गया था। दयाकृष्ण बहुत व्यस्त रहने के कारण उस समय न आ सका था। मातमपुरसी की रस्म पत्र लिखकर अदा कर दी थी; लेकिन ऐसा एक दिन भी नहीं बीता कि सिंगार की याद उसे न आयी हो। अभी वह दो-चार महीने और कलकत्ते रहना चाहता था; क्योंकि वहाँ उसने जो कारोबार जारी किया था, उसे संगठित रूप में लाने के लिए उसका वहाँ मौजूद रहना जरूरी था और उसकी थोड़े दिन की गैरहाजिरी से भी हानि की शंका थी। किन्तु जब सिंगार की स्त्री लीला का परवाना आ पहुँचा तो वह अपने को न रोक सका। लीला ने साफ-साफ तो कुछ न लिखा था, केवल उसे तुरन्त बुलाया था; लेकिन दयाकृष्ण को पत्र के शब्दों से कुछ ऐसा अनुमान हुआ कि वहाँ की परिस्थिति चिन्ताजनक है और इस अवसर पर उसका वहाँ पहुँचना जरूरी है। सिंगार सम्पन्न बाप का बेटा था,बड़ा ही अल्हड़, बड़ा ही जिद्दी, बड़ा ही आरामपसन्द। दृढ़ता या लगन उसे छू भी नहीं गयी थी। उसकी माँ उसके बचपन ही में मर चुकी थी और बाप ने उसके पालने में नियंत्राण की अपेक्षा स्नेह से ज्यादा काम लिया था। उसे कभी दुनिया की हवा नहीं लगने दी। उद्योग भी कोई वस्तु है, यह वह जानता ही न था। उसके महज इशारे पर हर एक चीज सामने आ जाती थी। वह जवान बालक था, जिसमें न अपने विचार थे न सिद्धान्त। कोई भी आदमी उसे बड़ी आसानी से अपने कपट-बाणों का निशाना बना सकता था। मुख्तारों और मुनीमों के दाँव-पेंच समझना उसके लिए लोहे के चने चबाना था। उसे किसी ऐसे समझदार और हितैषी मित्र की जरूरत थी, जो स्वार्थियों के हथकण्डों से उसकी रक्षा करता रहे। दयाकृष्ण पर इस घर के बड़े-बड़े एहसान थे।
उस दोस्ती का हक अदा करने के लिए उसका आना आवश्यक था। मुँह-हाथ धोकर सिंगारसिंह के घर पर ही भोजन का इरादा करके दयाकृष्ण उससे मिलने चला। नौ बज गये थे, हवा और धूप में गर्मी आने लगी थी।
सिंगारसिंह उसकी खबर पाते ही बाहर निकल आया। दयाकृष्ण उसे देखकर चौंक पड़ा। लम्बे-लम्बे केशों की जगह उसके सिर पर घुँघराले बाल थे ह्वह सिक्ख था), आड़ी माँग निकली हुई। आँखों में न आँसू थे, न शोक का कोई दूसरा चिह्न, चेहरा कुछ जर्द अवश्य था पर उस पर विलासिता की मुसकराहट थी। वह एक महीन रेशमी कमीज और मखमली जूते पहने हुए था; मानो किसी महफिल से उठा आ रहा हो। संवेदना के शब्द दयाकृष्ण के ओंठों तक आकर निराश लौट गये। वहाँ बधाई के शब्द ज्यादा अनुकूल प्रतीत हो रहे थे।
सिंगारसिंह लपककर उसके गले से लिपट गया और बोला, तुम खूब आये यार, इधार तुम्हारी बहुत याद आ रही थी; मगर पहले यह बतला दो,वहाँ का कारोबार बन्द कर आये या नहीं ? अगर वह झंझट छोड़ आये हो,तो पहले उसे तिलांजलि दे आओ। अब आप यहाँ से जाने न पायेंगे। मैंने तो भाई, अपना कैंड़ा बदल दिया। बताओ, कब तक तपस्या करता। अब तो आये दिन जलसे होते हैं। मैंने सोचा यार, दुनिया में आये, तो कुछ दिन सैर-सपाटे का आनन्द भी उठा लो। नहीं तो एक दिन यों ही हाथ मलते चले जायॅगे। कुछ भी साथ न जायगा।
दयाकृष्ण विस्मय से उसके मुँह की ओर ताकने लगा। यह वही सिंगार है या कोई और ! बाप के मरते ही इतनी तब्दीली ! दोनों मित्र कमरे में गये और सोफे पर बैठे। सरदार साहब के सामने इस कमरे में फर्श और मसनद थी, आलमारी थी। अब दर्जनों गद्देदार सोफे और कुर्सियाँ हैं, कालीन का फर्श है, रेशमी परदे हैं, बड़े-बड़े आईने हैं। सरदार साहब को संचय की धुन थी, सिंगार को उड़ाने की धुन है। सिंगार ने एक सिगार जलाकर कहा, तेरी बहुत याद आती थी यार,
तेरी जान की कसम।
दयाकृष्ण ने शिकवा किया क्यों झूठ बोलते हो भाई, महीनों गुजर जाते थे, एक खत लिखने की तो आपको फुर्सत न मिलती थी, मेरी याद आती थी।
सिंगार ने अल्हड़पन से कहा, बस, इसी बात पर मेरी सेहत का एक जाम पियो। अरे यार, इस जिन्दगी में और क्या रखा है ? हँसी-खेल में जो वक्त कट जाय, उसे गनीमत समझो। मैंने तो यह तपस्या त्याग दी।
अब तो आये दिन जलसे होते हैं, कभी दोस्तों की दावत है, कभी दरिया की सैर,कभी गाना-बजाना, कभी शराब के दौर। मैंने कहा,लाओ कुछ दिन वह बहार भी देख लूँ। हसरत क्यों दिल में रह जाय। आदमी संसार में कुछ भोगने के लिए आता है, यही जिन्दगी के मजे हैं। जिसने ये मजे नहीं चक्खे, उसका जीना वृथा है। बस, दोस्तों की मजलिस हो, बगल में माशूक हो और हाथ में प्याला हो, इसके सिवा मुझे और कुछ न चाहिए !
उसने आलमारी खोलकर एक बोतल निकाली और दो गिलासों में शराब डालकर बोला, यह मेरी सेहत का जाम है। इन्कार न करना। मैं तुम्हारे सेहत का जाम पीता हूँ।
दयाकृष्ण को कभी शराब पीने का अवसर न मिला था। वह इतना धार्मात्मा तो न था कि शराब पीना पाप समझता, हाँ, उसे दुर्व्यसन समझता था। गन्ध ही से उसका जी मितलाने लगा। उसे भय हुआ कि वह शराब का ट चाहे मुँह में ले ले, उसे कण्ठ के नीचे नहीं उतार सकता। उसने प्याले को शिष्टाचार के तौर पर हाथ में ले लिया, फिर उसे ज्यों-का-त्यों मेज पर रखकर बोला, तुम जानते हो, मैंने कभी नहीं पी। इस समय मुझे क्षमा करो।
दस-पाँच दिन में यह फन भी सीख जाऊँगा, मगर यह तो बताओ, अपना कारोबार भी कुछ देखते हो, या इसी में पड़े रहते हो। सिंगार ने अरुचि से मुँह बनाकर कहा, ओह, क्या जिक्र तुमने छेड़ दिया, यार ? कारोबार के पीछे इस छोटी-सी जिन्दगी को तबाह नहीं कर सकता। न कोई साथ लाया है, न साथ ले जायगा। पापा ने मर-मरकर धान संचय किया। क्या हाथ लगा ? पचास तक पहुँचते-पहुँचते चल बसे। उनकी आत्मा अब भी संसार के सुखों के लिए तरस रही होगी। धान छोड़कर मरने से फाकेमस्त रहना कहीं अच्छा है। धान की चिन्ता तो नहीं सताती, पर यह हाय-हाय तो नहीं होती कि मेरे बाद क्या होगा ! तुमने गिलास मेज पर रख दिया। जरा पियो, आँखें खुल जायॅगी, दिल हरा हो जायगा। और लोग सोड़ा और बरफ़ मिलाते हैं, मैं तो खालिस पीता हूँ। इच्छा हो, तो तुम्हारे लिए बरफ़ मँगाऊँ ?
दयाकृष्ण ने फिर क्षमा माँगी; मगर सिंगार गिलास-पर-गिलास पीता गया। उसकी आँखें लाल-लाल निकल आयीं, ऊल-जलूल बकने लगा, खूब डींगें मारीं, फिर बेसुरे राग में एक बाजारू गीत गाने लगा। अन्त में उसी कुर्सी पर पड़ा-पड़ा बेसुधा हो गया। सहसा पीछे का परदा हटा और लीला ने उसे इशारे से बुलाया। दयाकृष्ण की धामनियों में शतगुण वेग से रक्त दौड़ने लगा। उसकी संकोचमय, भीरु प्रकृति भीतर से जितनी ही रूपासक्त थी, बाहर से उतनी ही विरक्त। सुंदरियों के सम्मुख आकर वह स्वयं अवाक् हो जाता था, उसके कपोलों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती थी और आँखें झुक जाती थीं; लेकिन मन उनके चरणों पर लोटकर अपने-आपको समर्पित कर देने के लिए विकल हो जाता था।
मित्रगण उसे बूढ़े बाबा कहा, करते थे। स्त्रियाँ उसे अरसिक समझकर उससे उदासीन रहती थीं। किसी युवती के साथ लंका तक रेल में एकान्त-यात्रा करके भी वह उससे एक शब्द भी बोलने का साहस न करता। हाँ, यदि युवती स्वयं उसे छेड़ती, तो वह अपने प्राण तक उसकी भेंट कर देता। उसके इस संकोचमय, अवरुद्ध जीवन में लीला ही एक युवती थी, जिसने उसके मन को समझा था और उससे सवाक् सह्रदयता का व्यवहार किया था। तभी से दयाकृष्ण मन से उसका उपासक हो गया था। उसके अनुभवशून्य ह्रदय में
लीला नारी-जाति का सबसे सुन्दर आदर्श थी। उसकी प्यासी आत्मा को शर्बत या लेमनेड की उतनी इच्छा न थी, जितना ठण्डे, मीठे पानी की। लीला में रूप है, लावण्य है, सुकुमारता है, इन बातों की ओर उसका ध्यान न था।
उससे ज्यादा रूपवती, लावण्यमयी और सुकुमार युवतियाँ उसने पार्कों में देखी थीं। लीला में सह्रदयता है, विचार है, दया है, इन्हीं तत्त्वों की ओर उसका आकर्षण था। उसकी रसिकता में आत्म-समर्पण के सिवा और कोई भाव न था। लीला के किसी आदेश का पालन करना उसकी सबसे बड़ी कामना थी,उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए इतना काफ़ी था। उसने काँपते हाथों से परदा उठाया और अन्दर आकर खड़ा हो गया। और विस्मय भरी आँखों से उसे देखने लगा। उसने लीला को यहाँ न देखा होता, तो पहचान भी न सकता। वह रूप, यौवन और विकास की देवी इस तरह मुरझा गयी थी, जैसे किसी ने उसके प्राणों को चूसकर निकाल लिया हो। करुण-स्वर में बोला, यह तुम्हारा क्या हाल है, लीला ? बीमार हो क्या ? मुझे सूचना तक न दी।
लीला मुस्कराकर बोली, तुमसे मतलब ? मैं बीमार हूँ या अच्छी हूँ,तुम्हारी बला से ! तुम तो अपने सैर-सपाटे करते रहे। छ: महीने के बाद जब आपको याद आयी है, तो पूछते हो बीमार हो ? मैं उस रोग से ग्रस्त हूँ,जो प्राण लेकर ही छोड़ता है। तुमने इन महाशय की हालत देखी ? उनका यह रंग देखकर मेरे दिल पर क्या गुजरती है, यह क्या मैं अपने मुँह से कहूँ तभी समझोगे ? मैं अब इस घर में जबरदस्ती पड़ी हूँ और बेहयाई से जीती हूँ। किसी को मेरी चाह या चिन्ता नहीं है। पापा क्या मरे, मेरा सोहाग ही उठ गया। कुछ समझती हूँ, तो बेवकूफ बनायी जाती हूँ। रात-रात भर न जाने कहाँ गायब रहते हैं। जब देखो, नशे में मस्त, हफ्तों घर में नहीं आते कि दो बातें कर लूँ; अगर इनके यही ढंग रहे, तो साल-दो-साल में रोटियों के मुहताज हो जायेंगे। दया ने पूछा, यह लत इन्हें कैसे पड़ गयी ?
ये बातें तो इनमें न थीं। लीला ने व्यथित स्वर में कहा, रुपये की बलिहारी है और क्या ! इसीलिए तो बूढ़े मर-मरके कमाते हैं और मरने के बाद लड़कों के लिए छोड़ जाते हैं। अपने मन में समझते होंगे, हम लड़कों के लिए बैठने का ठिकाना किये जाते हैं। मैं कहती हूँ, तुम उनके सर्वनाश का सामान किये जाते हो, उनकेलिए जहर बोये जाते हो। पापा ने लाखों रुपये की सम्पत्ति न छोड़ी होती,तो आज यह महाशय किसी काम में लगे होते, कुछ घर की चिन्ता होती;कुछ जिम्मेदारी होती; नहीं तो बैंक से रुपये निकाले और उड़ाये।
अगर मुझेविश्वास होता कि सम्पत्ति समाप्त करके वह सीधे मार्ग पर आ जायॅगे, तोमुझे जरा भी दु:ख न होता; पर मुझे तो यह भय है कि ऐसे लोग फिर किसी काम के नहीं रहते, या तो जेलखाने में मरते हैं या अनाथालय में। आपकी एक वेश्या से आशनाई है। माधुरी नाम है और वह इन्हें उल्टे छुरे से मूँड़ रही है, जैसा उसका धर्म है। आपको यह खब्त हो गया कि वह मुझ पर जान देती है। उससे विवाह का प्रस्ताव भी किया जा चुका है। मालूम नहीं,उसने क्या जवाब दिया। कई बार जी में आया कि जब यहाँ किसी से कोई नाता ही नहीं है तो अपने घर चली जाऊँ; लेकिन डरती हूँ कि तब तो यह और भी स्वतंत्र हो जायॅगे। मुझे किसी पर विश्वास है, तो वह तुम हो। इसीलिए तुम्हें बुलाया था कि शायद तुम्हारे समझाने-बुझाने का कुछ असर हो। अगर तुम भी असफल हुए, तो मैं एक क्षण यहाँ न रहूँगी। भोजन तैयार है, चलो कुछ खा लो।
दयाकृष्ण ने सिंगारसिंह की ओर संकेत करके कहा, और यह ? 'यह तो अब कहीं दो-तीन बजे चेतेंगे।'
'बुरा न मानेंगे।'
'मैं अब इन बातों की परवाह नहीं करती। मैंने तो निश्चय कर लिया
है कि अगर मुझे कभी आँखें दिखायीं, तो मैं इन्हें मजा चखा दूंगी। मेरे पिताजी फौज में सूबेदार मेजर हैं। मेरी देह में उनका रक्त है।'
लीला की मुद्रा उत्तेजित हो गयी। विद्रोह की वह आग, जो महीनों से पड़ी सुलग रही थी, प्रचण्ड हो उठी।
उसने उसी लहजे में कहा, मेरी इस घर में इतनी साँसत हुई है, इतना अपमान हुआ है और हो रहा है कि मैं उसका किसी तरह भी प्रतिकार करके आत्मग्लानि का अनुभव न करूँगी। मैंने पापा से अपना हाल छिपा रखा है।
आज लिख दूं, तो इनकी सारी मशीखत उतर जाय। नारी होने का दंड भोग रही हूँ, लेकिन नारी के धैर्य की भी सीमा है।
दयाकृष्ण उस सुकुमारी का वह तमतमाया हुआ चेहरा, वे जलती हुई आँखें, वह काँपते हुए होंठ देखकर काँप उठा। उसकी दशा उस आदमी की-सी हो गयी, जो किसी को दर्द से तड़पते देखकर वैद्य को बुलाने दौड़े। आर्द्र कण्ठ से बोला, इस समय मुझे क्षमा करो लीला, फिर कभी तुम्हारा निमंत्राण स्वीकार करूँगा। तुम्हें अपनी ओर से इतना ही विश्वास दिलाता हूँ कि मुझे अपना सेवक समझती रहना। मुझे न मालूम था कि तुम्हें इतना कष्ट है, नहीं तो शायद अब तक मैंने कुछ युक्ति सोची होती। मेरा यह शरीर तुम्हारे किसी काम आये, इससे बढ़कर सौभाग्य की बात मेरे लिए और क्या होगी !
दयाकृष्ण वहाँ से चला, तो उसके मन में इतना उल्लास भरा हुआ था,मानो विमान पर बैठा हुआ स्वर्ग की ओर जा रहा है। आज उसे जीवन में एक ऐसा लक्ष्य मिल गया था, जिसके लिए वह जी भी सकता है और मर भी सकता है। वह एक महिला का विश्वासपात् हो गया था। इस रत्न को वह अपने हाथ से कभी न जाने देगा, चाहे उसकी जान ही क्यों न चली जाय।
एक महीना गुजर गया। दयाकृष्ण सिंगारसिंह के घर नहीं आया। न सिंगारसिंह
ने उसकी परवाह की। इस एक ही मुलाकात में उसने समझ लिया था कि
दया इस नये रंग में आनेवाला आदमी नहीं है। ऐसे सात्विक जनों के लिए
उसके यहाँ स्थान न था। वहाँ तो रंगीले, रसिया, अय्याश और बिगड़े-दिलों
ही की चाह थी। हाँ, लीला को हमेशा उसकी याद आती रहती थी।
मगर दयाकृष्ण के स्वभाव में अब वह संयम नहीं है। विलासिता का
जादू उस पर भी चलता हुआ मालूम होता है। माधुरी के घर उसका भी
आना-जाना शुरू हो गया है। वह सिंगारसिंह का मित्र नहीं रहा, प्रतिद्वन्द्वी
हो गया है। दोनों एक ही प्रतिमा के उपासक हैं; मगर उनकी उपासना में
अन्तर है। सिंगार की दृष्टि से माधुरी केवल विलास की एक वस्तु है, केवल
विनोद का एक यन्त्र। दयाकृष्ण विनय की मूर्ति है जो माधुरी की सेवा में
ही प्रसन्न है। सिंगार माधुरी के हास-विलास को अपना जरखरीद हक समझता
है, दयाकृष्ण इसी में संतुष्ट है कि माधुरी उसकी सेवाओं को स्वीकार करती
है। माधुरी की ओर से जरा भी अरुचि देखकर वह उसी तरह बिगड़ जायगा
जैसे अपनी प्यारी घोड़ी की मुँहजोरी पर। दयाकृष्ण अपने को उसकी कृपादृष्टि
के योग्य ही नहीं समझता। सिंगार जो कुछ माधुरी को देता है, गर्व-भरे
आत्म-प्रदर्शन के साथ; मानो उस पर कोई एहसान कर रहा हो। दयाकृष्ण
के पास देने को है ही क्या; पर वह जो कुछ भेंट करता है, वह ऐसी श्रद्धा
से, मानो देवता को फूल चढ़ाता हो। सिंगार का आसक्त मन माधुरी को
अपने पिंजरे में बंद रखना चाहता है, जिसमें उस पर किसी की निगाह न
पड़े। दयाकृष्ण निर्लिप्त भाव से उसकी स्वच्छंद क्रीड़ा का आनंद उठाता है।
माधुरी को अब तक जितने आदमियों से साबिका पड़ा था, वे सब सिंगारसिंह
की ही भाँति कामुकी, ईर्ष्यालु, दंभी और कोमल भावों से शून्य थे, रूप को
भोगने की वस्तु समझनेवाले। दयाकृष्ण उन सबों से अलग था सह्रदयी, भद्र
और सेवाशील, मानो उस पर अपनी आत्मा को समर्पण कर देना चाहता हो।
माधुरी को अब अपने जीवन में कोई ऐसा पदार्थ मिल गया है, जिसे वह
बड़ी एहतियात से सँभालकर रखना चाहती है। जड़ाऊ गहने अब उसकी आँखों
में उतने मूल्यवान नहीं रहे, जितनी यह फकीर की दी हुई तावीज। जड़ाऊ
गहने हमेशा मिलेंगे, यह तावीज खो गयी, तो फिर शायद ही कभी हाथ आये।
जड़ाऊ गहने केवल उसकी विलास-प्रवृत्ति को उत्तेजित करते हैं। पर इस तावीज
में कोई दैवी शक्ति है, जो न जाने कैसे उसमें सद्नुराग और परिष्कार-भावना
को जगाती है। दयाकृष्ण कभी प्रेम-प्रदर्शन नहीं करता, अपनी विरह-व्यथा
के राग नहीं अलापता, पर माधुरी को उस पर पूरा विश्वास है। सिंगारसिंह
के प्रलाप में उसे बनावट और दिखावे का आभास होता है। वह चाहती है,
यह जल्द यहाँ से टले; लेकिन दयाकृष्ण के संयत भाषण में उसे गहराई तथा
गाम्भीर्य और गुरुत्व का आभास होता है। औरों की वह प्रेमिका है; लेकिन
दयाकृष्ण की आशिक, जिसके कदमों की आहट पाकर उसके अन्दर एक
तूफान उठने लगता है। उसके जीवन में यह नयी अनुभूति है। अब तक वह
दूसरों के भोग की वस्तु थी, अब कम-से-कम एक प्राणी की दृष्टि में वह
आदर और प्रेम की वस्तु है।
सिंगारसिंह को जब से दयाकृष्ण के इस प्रेमाभिनय की सूचना मिली
है, वह उसके खून का प्यासा हो गया है।र् ईर्ष्याग्नि से फुँका जा रहा है।
उसने दयाकृष्ण के पीछे कई शोहदे लगा रखे हैं कि वे उसे जहाँ पायें, उसका
काम तमाम कर दें। वह खुद पिस्तौल लिये उसकी टोह में रहता है। दयाकृष्ण
इस खतरे को समझता है, जानता है; अपने नियत समय पर माधुरी के पास
बिला नागा आ जाता है। मालूम होता है, उसे अपनी जान का कुछ भी मोह
नहीं है। शोहदे उसे देखकर क्यों कतरा जाते हैं, मौका पाकर भी क्यों उस
पर वार नहीं करते, इसका रहस्य वह नहीं समझता।
एक दिन माधुरी ने उससे कहा, क़ृष्णजी, तुम यहाँ न आया करो।
तुम्हें तो पता नहीं है, पर यहाँ तुम्हारे बीसो दुश्मन हैं।
मैं डरती हूँ कि किसी दिन कोई बात न हो जाय। शिशिर की तुषार-मण्डित सन्धया थी।
माधुरी एक काश्मीरी शाल ओढ़े अँगीठी के सामने बैठी हुई थी।
कमरे में बिजली का रजत प्रकाश फैला हुआ था। दयाकृष्ण ने देखा,
माधुरी की आँखें सजल हो गई हैं और वह मुँह फेरकर
उन्हें दयाकृष्ण से छिपाने की चेष्टा कर रही है। प्रदर्शन और सुखभोग करनेवाली
रमणी क्यों इतना संकोच कर रही है, यह उसका अनाड़ी मन न समझ सका।
हाँ, माधुरी के गोरे, प्रसन्न, संकोचहीन मुख पर लज्जामिश्रित मधुरिमा की
ऐसी छटा उसने कभी न देखी थी। आज उसने उस मुख पर कुलवधू की
भीरु आकांक्षा और दृढ़ वात्सल्य देखा और उसके अभिनय में सत्य का उदय
हो गया।
उसने स्थिर भाव से जवाब दिया, मैं तो किसी की बुराई नहीं करता,
मुझसे किसी को क्यों वैर होने लगा। मैं यहाँ किसी का बाधक नहीं, किसी
का विरोधी नहीं। दाता के द्वार पर सभी भिक्षुक जाते हैं। अपना-अपना भाग्य
है, किसी को एक चुटकी मिलती है, किसी को पूरा थाल। कोई क्यों किसी
से जले ? अगर किसी पर तुम्हारी विशेष कृपा है, तो मैं उसे भाग्यशाली
समझकर उसका आदर करूँगा। जलूँ क्यों ?
माधुरी ने स्नेह-कातर स्वर में कहा, ज़ी नहीं, आप कल से न आया
कीजिए।
दयाकृष्ण मुस्कराकर बोला, तुम मुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकतीं।
भिक्षुक को तुम दुत्कार सकती हो, द्वार पर आने से नहीं रोक सकतीं।
माधुरी स्नेह की आँखों से उसे देखने लगी, फिर बोली, क्या सभी आदमी
तुम्हीं जैसे निष्कपट हैं ?
'तो फिर मैं क्या करूँ ?'
'यहाँ न आया करो।'
'यह मेरे बस की बात नहीं।'
माधुरी एक क्षण तक विचार करके बोली, एक बात कहूँ, मानोगे ?
चलो, हम-तुम किसी दूसरे नगर की राह लें।
'केवल इसीलिए कि कुछ लोग मुझसे खार खाते हैं ?'
'खार नहीं खाते, तुम्हारी जान के ग्राहक हैं।'
दयाकृष्ण उसी अविचलित भाव से बोला, ज़िस दिन प्रेम का यह पुरस्कार
मिलेगा, वह मेरे जीवन का नया दिन होगा, माधुरी ! इससे अच्छी मृत्यु और
क्या हो सकती है ? तब मैं तुमसे पृथक् न रहकर तुम्हारे मन में, तुम्हारी
स्मृति में रहूँगा।
माधुरी ने कोमल हाथ से उसके गाल पर थपकी दी। उसकी आँखें
भर आयी थीं। इन शब्दों में जो प्यार भरा हुआ था, वह जैसे पिचकारी की
धार की तरह उसके ह्रदय में समा गया। ऐसी विकल वेदना ! ऐसा नशा !
इसे वह क्या कहे ?
उसने करुण स्वर में कहा, ऐसी बातें न किया करो कृष्ण, नहीं तो
मैं सच कहती हूँ, एक दिन जहर खाकर तुम्हारे चरणों पर सो जाऊँगी। तुम्हारे
इन शब्दों में न-जाने क्या जादू था कि मैं जैसे फुँक उठी। अब आप खुदा
के लिए यहाँ न आया कीजिए, नहीं तो देख लेना, मैं एक दिन प्राण दे दूंगी।
तुम क्या जानो, हत्यारा सिंगार किस बुरी तरह तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ है।
मैं उसके शोहदों की खुशामद करते-करते हार गयी। कितना कहती हूँ, दयाकृष्ण
से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, उसके सामने तुम्हारी निन्दा करती हूँ, कितना कोसती
हूँ, लेकिन उस निर्दयी को मुझ पर विश्वास नहीं आता। तुम्हारे लिए मैंने
इन गुण्डों की कितनी मिन्नतें की हैं, उनके हाथ कितना अपमान सहा है,
वह तुमसे न कहना ही अच्छा है। जिनका मुँह देखना भी मैं अपनी शान
के खिलाफ समझती हूँ, उनके पैरों पड़ी हूँ, लेकिन ये कुत्ते हड्डियों के टुकड़े
पाकर और भी शेर हो जाते हैं। मैं अब उनसे तंग आ गयी हूँ और तुमसे
हाथ जोड़कर कहती हूँ कि यहाँ से किसी ऐसी जगह चले चलो, जहाँ हमें
कोई न जानता हो। वहाँ शान्ति के साथ पड़े रहें। मैं तुम्हारे साथ सबकुछ
झेलने को तैयार हूँ। आज इसका निश्चय कराये बिना मैं तुम्हें न जाने दूंगी।
मैं जानती हूँ, तुम्हें मुझ पर अब भी विश्वास नहीं है। तुम्हें सन्देह है कि
तुम्हारे साथ कपट करूँगी।
दयाकृष्ण ने टोका नहीं माधुरी, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो।
मेरे मन में कभी ऐसा सन्देह नहीं आया। पहले ही दिन मुझे न-जाने क्यों
कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि तुम अपनी और बहनों से पृथक् हो। मैंने तुममें
वह शील और संकोच देखा, जो मैंने कुलवधुओं में देखा है।
माधुरी ने उसकी आँखों में आँखें गड़ाकर कहा, तुम झूठ बोलने की
कला में इतने निपुण नहीं हो कृष्ण, कि वेश्या को भुलावा दे सको ! मैं न
शीलवती हूँ, न संकोचवती हूँ और न अपनी दूसरी बहनों से भिन्न हूँ, मैं
वेश्या हूँ; उतनी ही कलुषित, उतनी ही विलासांध, उतनी ही मायाविनी, जितनी
मेरी दूसरी बहनें; बल्कि उनसे कुछ ज्यादा। न तुम अन्य पुरुषों की तरह मेरे
पास विनोद और वासना-तृप्ति के लिए आये थे। नहीं, महीनों आते रहने
पर भी तुम यों अलिप्त न रहते। तुमने कभी डींग नहीं मारी, मुझे धन का
प्रलोभन नहीं दिया। मैंने भी कभी तुमसे धन की आशा नहीं की। तुमने अपनी
वास्तविक स्थिति मुझसे कह दी। फिर भी मैंने तुम्हें एक नहीं, अनेक ऐसे
अवसर दिये कि कोई दूसरा आदमी उन्हें न छोड़ता; लेकिन तुम्हें मैं अपने
पंजे में न ला सकी। तुम चाहे और जिस इरादे से आये हो, भोग की इच्छा
से नहीं आये। अगर मैं तुम्हें इतना नीच, इतना ह्रदयहीन, इतना विलासांधा
समझती, तो इस तरह तुम्हारे नाज न उठाती। फिर मैं भी तुम्हारे साथ मित्र-भाव
रखने लगी। समझ लिया, मेरी परीक्षा हो रही है। जब तक इस परीक्षा में
सफल न हो जाऊँ, तुम्हें नहीं पा सकती। तुम जितने सज्जन हो, उतने ही
कठोर हो।
यह कहते हुए माधुरी ने दयाकृष्ण का हाथ पकड़ लिया और अनुराग
और समर्पण-भरी चितवनों से उसे देखकर बोली, सच बताओ कृष्ण, तुम मुझमें
क्या देखकर आकर्षित हुए थे ? देखो, बहानेबाजी न करना। तुम रूप पर
मुग्धा होने वाले आदमी नहीं हो, मैं कसम खा सकती हूँ।
दयाकृष्ण ने संकट में पड़कर कहा, रूप इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है,
माधुरी ! वह मन का आईना है।
'यहाँ मुझसे रूपवान् स्त्रिायों की कमी नहीं है।'
'यह तो अपनी-अपनी निगाह है। मेरे पूर्व संस्कार रहे होंगे।'
माधुरी ने भॅवें सिकोड़कर कहा, तुम फिर झूठ बोल रहे हो, चेहरा कहे
देता है।
दयाकृष्ण ने परास्त होकर पूछा, पूछकर क्या करोगी, माधुरी ? मैं डरता
हूँ, कहीं तुम मुझसे घृणा न करने लगो। सम्भव है, तुम मेरा जो रूप देख
रही हो, वह मेरा असली रूप न हो ?
माधुरी का मुँह लटक गया। विरक्त-सी होकर बोली, इसका खुले शब्दों
में यह अर्थ है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं। ठीक है, वेश्याओं पर विश्वास
करना भी नहीं चाहिए। विद्वानों और महात्माओं का उपदेश कैसे न मानोगे ?
नारी-ह्रदय इस समस्या पर विजय पाने के लिए अपने अस्त्रों से काम
लेने लगा।
दयाकृष्ण पहले ही पहले हमले में हिम्मत छोड़ बैठा। बोला, तुम तो
नाराज हुई जाती हो, माधुरी ! मैंने तो केवल इस विचार से कहा, था कि तुम
मुझे धोखेबाज समझने लगोगी। तुम्हें शायद मालूम नहीं है, सिंगारसिंह ने मुझ
पर कितने एहसान किये हैं। मैं उन्हीं के टुकड़ों पर पला हूँ। इसमें रत्ती भर
भी मुबालगा नहीं। वहाँ जाकर जब मैंने उनके रंग-ढंग देखे और उनकी साधवी
स्त्री लीला को बहुत दुखी पाया, तो सोचते-सोचते मुझे यही उपाय सूझा कि
किसी तरह सिंगारसिंह को तुम्हारे पंजे से छुड़ाऊँ। मेरे इस अभिमान का यही
रहस्य है, लेकिन उन्हें छुड़ा तो न सका, खुद फँस गया। मेरे इस फरेब की
जो सजा चाहो दो, सिर झुकाये हुए हूँ।
माधुरी का अभिमान टूट गया। जलकर बोली, तो यह कहिये कि आप
लीला देवी के आशिक हैं। मुझे पहले से मालूम होता, तो तुम्हें इस घर में
घुसने न देती। तुम तो एक छिपे रुस्तम निकले।
वह तोते के पिंजरे के पास जाकर उसे पुचकारने का बहाना करने लगी।
मन में जो एक दाह उठ रही थी, उसे कैसे शान्त करे ?
दयाकृष्ण ने तिरस्कार-भरे स्वर में कहा, मैं लीला का आशिक नहीं हूँ,
माधुरी ! उस देवी को कलंकित न करो। मैं आज तुमसे शपथ खाकर कहता
हूँ कि मैंने कभी उसे इस निगाह से नहीं देखा। उसके प्रति मेरा वही भाव
था, जो अपने किसी आत्मीय को दु:ख में देखकर हर एक मनुष्य के मन
में आता है।
'किसी से प्रेम करना तो पाप नहीं है, तुम व्यर्थ में अपनी और लीला
की सफाई दे रहे हो।'
'मैं नहीं चाहता कि लीला पर किसी तरह का आक्षेप किया जाय।'
'अच्छा साहब, लीजिए; लीला का नाम न लूँगी। मैंने मान लिया, वह
सती है, साधवी है और केवल उसकी आज्ञा से...'
दयाकृष्ण ने बात काटी, उनकी कोई आज्ञा नहीं थी।
'ओ हो, तुम तो जबान पकड़ते हो, कृष्ण ! क्षमा करो, उनकी आज्ञा
से नहीं तुम अपनी इच्छा से आये। अब तो राजी हुए। अब यह बताओ,
आगे तुम्हारे क्या इरादे हैं ? मैं वचन तो दे दूंगी; मगर अपने संस्कारों को
नहीं बदल सकती। मेरा मन दुर्बल है। मेरा सतीत्व कब का नष्ट हो चुका
है। अन्य मूल्यवान् पदार्थों की तरह रूप और यौवन की रक्षा भी बलवान्
हाथों से हो सकती है। मैं तुमसे पूछती हूँ, तुम मुझे अपनी शरण में लेने
पर तैयार हो ? तुम्हारा आश्रय पाकर तुम्हारे प्रेम की शक्ति से, मुझे विश्वास
है, मैं जीवन के सारे प्रलोभनों का सामना कर सकती हूँ। मैं इस सोने के
महल को ठुकरा दूंगी; लेकिन इसके बदले मुझे किसी हरे वृक्ष की छॉह तो
मिलनी चाहिए। वह छॉह तुम मुझे दोगे ? अगर नहीं दे सकते, तो मुझे छोड़
दो। मैं अपने हाल में मगन हूँ। मैं वादा करती हूँ, सिंगारसिंह से मैं कोई
सम्बन्ध न रखूँगी। वह मुझे घेरेगा, रोयेगा। सम्भव है, गुण्डों से मेरा अपमान
कराये, आतंक दिखाये। लेकिन मैं सबकुछ झेल लूँगी, तुम्हारी खातिर से...'
आगे और कुछ न कहकर वह तृष्णा-भरे लेकिन उसके साथ ही निरपेक्ष
नेत्रों से दयाकृष्ण की ओर देखने लगी, जैसे दूकानदार गाहक को बुलाता तो
है पर साथ ही यह भी दिखाना चाहता है कि उसे उसकी परवाह नहीं है।
दयाकृष्ण क्या जवाब दे ? संघर्षमय संसार में वह अभी केवल एक कदम
टिका पाया है। इधार वह अंगुल-भर जगह भी उससे छिन गयी है। शायद
जोर मारकर वह फिर वह स्थान पा जाय; लेकिन वहाँ बैठने की जगह नहीं।
और एक दूसरे प्राणी को लेकर तो वह खड़ा भी नहीं रह सकता। अगर मान
लिया जाय कि अदम्य उद्योग से दोनों के लिए स्थान निकाल लेगा, तो
आत्म-सम्मान को कहाँ ले जाय ? संसार क्या कहेगा ? लीला क्या फिर उसका
मुँह देखना चाहेगी ? सिंगार से वह फिर आँखें मिला सकेगी ? यह भी छोड़ो।
लीला अगर उसे पति समझती है, समझे। सिंगार अगर उससे जलता है तो
जले, उसे इसकी परवाह नहीं। लेकिन अपने मन को क्या करे ? विश्वास
उसके अन्दर आकर जाल में फँसे पक्षी की भाँति फड़फड़ा कर निकल भागता
है। कुलीना अपने साथ विश्वास का वरदान लिये आती है। उसके साहचर्य
में हमें कभी सन्देह नहीं होता। वहाँ सन्देह के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिए।
कुत्सिता सन्देह का संस्कार लिये आती है। वहाँ विश्वास के लिए प्रत्यक्ष अत्यन्त
प्रत्यक्ष प्रमाण की जरूरत है। उसने नम्रता से कहा, तुम जानती हो, मेरी
क्या हालत है ?
'हाँ, खूब जानती हूँ।'
'और उस हालत में तुम प्रसन्न रह सकोगी ?'
'तुम ऐसा प्रश्न क्यों करते हो कृष्ण ? मुझे दु:ख होता है। तुम्हारे मन
में जो सन्देह है, वह मैं जानती हूँ, समझती हूँ। मुझे भ्रम हुआ था कि तुमने
भी मुझे जान लिया है, समझ लिया है। अब मालूम हुआ, मैं धोखे में थी !'
वह उठकर वहाँ से जाने लगी। दयाकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया
और प्रार्थी-भाव से बोला, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो, माधुरी ! मैं
सत्य कहता हूँ, ऐसी कोई बात नहीं है...
माधुरी ने खड़े-खड़े विरक्त मन से कहा, तुम झूठ बोल रहे हो, बिलकुल
झूठ। तुम अब भी मन से यह स्वीकार नहीं कर रहे हो कि कोई स्त्री स्वेच्छा
से रूप का व्यवसाय नहीं करती। पैसे के लिए अपनी लज्जा को उघाड़ना,
तुम्हारी समझ में कुछ ऐसे आनन्द की बात है, जिसे वेश्या शौक से करती
है। तुम वेश्या में स्त्रीत्व का होना सम्भव से बहुत दूर समझते हो। तुम इसकी
कल्पना ही नहीं कर सकते कि वह क्यों अपने प्रेम में स्थिर नहीं होती। तुम
नहीं जानते, कि प्रेम के लिए उसके मन में कितनी व्याकुलता होती है और
जब वह सौभाग्य से उसे पा जाती है, तो किस तरह प्राणों की भाँति उसे
संचित रखती है। खारे पानी के समुद्र में मीठे पानी का छोटा-सा पात्र कितना
प्रिय होता है इसे वह क्या जाने, जो मीठे पानी के मटके उॅडेलता रहता हो।
दयाकृष्ण कुछ ऐसे असमंजस में पड़ा हुआ था कि उसके मुँह से एक
भी शब्द न निकला। उसके मन में जो शंका चिनगारी की भाँति छिपी हुई
है, वह बाहर निकलकर कितनी भयंकर ज्वाला उत्पट्र कर देगी। उसने कपट
का जो अभिनय किया था, प्रेम का जो स्वॉग रचा था, उसकी ग्लानि उसे
और भी व्यथित कर रही थी।
सहसा माधुरी ने निष्ठुरता से पूछा, तुम यहाँ क्यों बैठे हो ?
दयाकृष्ण ने अपमान को पीकर कहा, मुझे सोचने के लिए कुछ समय
दो माधुरी !
'क्या सोचने के लिए ?'
'अपना कर्तव्य ?'
'मैंने अपना कर्तव्य सोचने के लिए तो तुमसे समय नहीं माँगा ! तुम
अगर मेरे उद्धार की बात सोच रहे हो, तो उसे दिल से निकाल डालो। मैं
भ्रष्टा हूँ और तुम साधुता के पुतले हो ज़ब तक यह भाव तुम्हारे अन्दर रहेगा,
मैं तुमसे उसी तरह बात करूँगी जैसे औरों के साथ करती हूँ। अगर भ्रष्ट
हूँ, तो जो लोग यहाँ अपना मुँह काला करने आते हैं, वे कुछ कम भ्रष्ट नहीं
हैं। तुम जो एक मित्र की स्त्री पर दाँत लगाये हुए हो, तुम जो एक सरला
अबला के साथ झूठे प्रेम का स्वॉग करते हो, तुम्हारे हाथों अगर मुझे स्वर्ग
भी मिलता हो, तो उसे ठुकरा दूं।'
दयाकृष्ण ने लाल आँखें करके कहा, तुमने फिर वही आक्षेप किया ?
माधुरी तिलमिला उठी। उसकी रही-सही मृदुता भी ईर्ष्या के उमड़ते
हुए प्रवाह में समा गयी। लीला पर आक्षेप भी असह्य है, इसलिए कि वह
कुलवधू है। मैं वेश्या हूँ, इसलिए मेरे प्रेम का उपकार भी स्वीकार नहीं किया
जा सकता !
उसने अविचलित भाव से कहा, आक्षेप नहीं कर रही हूँ, सच्ची बात
कह रही हूँ। तुम्हारे डर से बिल खोदने जा रही हूँ। तुम स्वीकार करो या
न करो, तुम लीला पर मरते हो। तुम्हारी लीला तुम्हें मुबारक रहे। मैं अपने
सिंगारसिंह ही में प्रसन्न हूँ, उद्धार की लालसा अब नहीं रही। पहले जाकर
अपना उद्धार करो। अब से खबरदार कभी भूलकर भी यहाँ न आना, नहीं
तो पछताओगे। तुम जैसे रंगे हुए पतितों का उद्धार नहीं करते। उद्धार वही
कर सकते हैं, जो उद्धार के अभिमान को ह्रदय में आने ही नहीं देते। जहाँ
प्रेम है, वहाँ किसी तरह का भेद नहीं रह सकता।
यह कहने के साथ ही वह उठकर बराबर वाले दूसरे कमरे में चली
गयी, और अन्दर से द्वार बन्द कर लिया। दयाकृष्ण कुछ देर वहाँ मर्माहत-सा
रहा, फिर धीरे-धीरे नीचे उतर गया, मानो देह में प्राण न हो।
दो दिन दयाकृष्ण घर से न निकला। माधुरी ने उसके साथ जो व्यवहार किया,
इसकी उसे आशा न थी ! माधुरी को उससे प्रेम था, इसका उसे विश्वास
था, लेकिन जो प्रेम इतना असहिष्णु हो, जो दूसरे के मनोभावों का जरा भी
विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने से भी संकोच न करे, वह
उन्माद हो सकता है, प्रेम नहीं। उसने बहुत अच्छा किया कि माधुरी के
कपट-जाल में न फँसा, नहीं तो उसकी न जाने क्या दुर्गति होती।
पर दूसरे क्षण उसके भाव बदल जाते और माधुरी के प्रति उसका मन
कोमलता से भर जाता। अब वह अपनी अनुदारता पर, अपनी संकीर्णता पर
पछताता ! उसे माधुरी पर सन्देह करने का कोई कारण न था। ऐसी दशा
में ईर्ष्या स्वाभाविक है और वहर् ईर्ष्या ही क्या, जिसमें डंक न हो, विष न
हो। माना, समाज उसकी निन्दा करता। यह भी मान लिया कि माधुरी सती
भार्या न होती। कम-से-कम सिंगारसिंह तो उसके पंजे से निकल जाता।
दयाकृष्ण के सिर से ऋण का भार तो कुछ हल्का हो जाता, लीला का जीवन
तो सुखी हो जाता।
सहसा किसी ने द्वार खटखटाया। उसने द्वार खोला, तो सिंगारसिंह सामने
खड़ा था। बाल बिखरे हुए, कुछ अस्त-व्यस्त।
दयाकृष्ण ने हाथ मिलाते हुए पूछा, क्या पाँव-पाँव ही आ रहे हो, मुझे
क्यों न बुला लिया ?
सिंगार ने उसे चुभती हुई आँखों से देखकर कहा, मैं तुमसे यह पूछने
आया हूँ कि माधुरी कहाँ है ? अवश्य तुम्हारे घर में होगी।
'क्यों अपने घर पर होगी, मुझे क्या खबर ? मेरे घर क्यों आने लगी ?'
'इन बहानों से काम न चलेगा, समझ गये ? मैं कहता हूँ, मैं तुम्हारा
खून पी जाऊँगा वरना ठीक-ठीक बता दो, वह कहाँ गयी ?'
'मैं बिलकुल कुछ नहीं जानता, तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ। मैं तो दो
दिन से घर से निकला ही नहीं।'
'रात को मैं उसके पास था। सवेरे मुझे उसका यह पत्र मिला। मैं उसी
वक्त दौड़ा हुआ उसके घर गया। वहाँ उसका पता न था। नौकरों से इतना
मालूम हुआ, तॉगे पर बैठकर कहीं गयी है। कहाँ गयी है, यह कोई न बता
सका। मुझे शक हुआ, यहाँ आयी होगी। जब तक तुम्हारे घर की तलाशी
न ले लूँगा, मुझे चैन न आयेगी।'
उसने मकान का एक-एक कोना देखा, तख्त के नीचे, आलमारी के
पीछे। तब निराश होकर बोला, बड़ी बेवफा और मक्कार औरत है। जरा इस
खत को पढ़ो।
दोनों फर्श पर बैठ गये। दयाकृष्ण ने पत्र लेकर पढ़ना शुरू किया
सरदार साहब ! मैं आज कुछ दिनों के लिए यहाँ से जा रही हूँ, कब
लौटूँगी, कुछ नहीं जानती। कहाँ जा रही हूँ, यह भी नहीं जानती। जा इसलिए
रही हूँ कि इस बेशर्मी और बेहयाई की जिन्दगी से मुझे घृणा हो रही है।
और घृणा हो रही है उन लम्पटों से, जिनके कुत्सित विलास का मैं खिलौना
थी और जिनमें तुम मुख्य हो। तुम महीनों से मुझ पर सोने और रेशम की
वर्षा कर रहे हो; मगर मैं तुमसे पूछती हूँ, उससे लाख गुने सोने और दस
लाख गुने रेशम पर भी तुम अपनी बहन या स्त्री को इस रूप के बाजार
में बैठने दोगे ? कभी नहीं। उन देवियों में कोई ऐसी वस्तु है, जिसे तुम संसार
भर की दौलत से भी मूल्यवान समझते हो। लेकिन जब तुम शराब के नशे
में चूर, अपने एक-एक अंग में काम का उन्माद भरे आते थे, तो तुम्हें कभी
ध्यान आता था कि तुम उसी अमूल्य वस्तु को किस निर्दयता के साथ पैरों
से कुचल रहे हो ? कभी ध्यान आता था कि अपनी कुल-देवियों को इस अवस्था
में देखकर तुम्हें कितना दु:ख होता ? कभी नहीं। यह उन गीदड़ों और गिध्दों
की मनोवृत्ति है, जो किसी लाश को देखकर चारों ओर से जमा हो जाते हैं,
और उसे नोच-नोचकर खाते हैं। यह समझ रक्खो, नारी अपना बस रहते
हुए कभी पैसों के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। यदि वह ऐसा कर
रही है, तो समझ लो कि उसके लिए और कोई आश्रय और कोई आधार
नहीं है और पुरुष इतना निर्लज्ज है कि उसकी दुरवस्था से अपनी वासना
तृप्त करता है और इसके साथ ही इतना निर्दय कि उसके माथे पर पतिता
का कलंक लगाकर उसे उसी दुरवस्था में मरते देखना चाहता है ! क्या वह
नारी है ? क्या नारीत्व के पवित्र मन्दिर में उसका स्थान नहीं है ? लेकिन
तुम उसे उस मन्दिर में घुसने नहीं देते। उसके स्पर्श से मन्दिर की प्रतिमा
भ्रष्ट हो जायगी। खैर, पुरुष-समाज जितना अत्याचार चाहे कर ले। हम असहाय
हैं, आत्माभिमान को भूल बैठी हैं लेकिन...
सहसा सिंगारसिंह ने उसके हाथ से वह पत्र छीन लिया और जेब में
रखता हुआ बोला, क्या बड़े गौर से पढ़ रहे हो, कोई नयी बात नहीं। सबकुछ
वही है, जो तुमने सिखाया है। यही करने तो तुम उसके यहाँ जाते थे। मैं
कहता हूँ, तुम्हें मुझसे इतनी जलन क्यों हो गयी ? मैंने तो तुम्हारे साथ कोई
बुराई न की थी। इस साल-भर में मैंने माधुरी पर दस हजार से कम न फूँके
होंगे। घर में जो कुछ मूल्यवान् था, वह मैंने उसके चरणों पर चढ़ा दिया और
आज उसे साहस हो रहा है कि वह हमारी कुल-देवियों की बराबरी करे !
यह सब तुम्हारा प्रसाद है। सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली ! कितनी
बेवफा जात है। ऐसों को तो गोली मार दे। जिस पर सारा घर लुटा दिया,
जिसके पीछे सारे शहर में बदनाम हुआ, वह आज मुझे उपदेश करने चली
है ! जरूर इसमें कोई-न-कोई रहस्य है। कोई नया शिकार फँसा होगा; मगर
मुझसे भागकर जायगी कहाँ, ढूँढ़ न निकालूँ तो नाम नहीं। कम्बख्त कैसी
प्रेम-भरी बातें करती थी कि मुझ पर घड़ों नशा चढ़ जाता था। बस, कोई
नया शिकार फँस गया। यह बात न हो, मूँछ मुड़ा लूँ।
दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की ओर देखकर मुस्कराया तुम्हारी मूँछें
तो पहले ही मुड़ चुकी हैं।
इस हलके-से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया।
वह बे-सरो-सामान घर, वह फटा फर्श, वे टूटी-फूटी चीज़ें देखकर उसे दयाकृष्ण
पर दया आ गयी। चोट की तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईंट-पत्थर
ढूँढ़ रहा था; पर अब चोट ठण्डी पड़ गयी थी और दर्द घनीभूत हो रहा था।
दर्द के साथ-साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ही ठंडी हो गयी तो
धुआँ कहाँ से आता ?
उसने पूछा, सच कहना, तुमसे भी कभी प्रेम की बातें करती थी ?
दयाकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा, मुझसे ? मैं तो खाली उसकी सूरत
देखने जाता था।
'सूरत देखकर दिल पर काबू तो नहीं रहता।'
'यह तो अपनी-अपनी रुचि है।'
'है मोहनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती है।'
'मेरे कलेजे पर तो कभी छुरी नहीं चली। यही इच्छा होती थी कि इसके
पैरों पर गिर पङूँ।'
'इसी शायरी ने तो यह अनर्थ किया। तुम-जैसे बुद्धुओं को किसी
देहातिन से शादी करके रहना चाहिए। चले थे वेश्या से प्रेम करने !'
एक क्षण के बाद उसने फिर कहा, मगर है बेवफा, मक्कार !
'तुमने उससे वफा की आशा की, मुझे तो यही अफसोस है।'
'तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ।'
एक मिनट के बाद उसने सह्रदय-भाव से कहा, अपने पत्र में उसने
बातें तो सच्ची लिखी हैं, चाहे कोई माने या न माने ? सौन्दर्य को बाजारू
चीज समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है।
दयाकृष्ण ने पुचारा दिया, ज़ब स्त्री अपना रूप बेचती है, तो उसके
खरीदार भी निकल आते हैं। फिर यहाँ तो कितनी ही जातियाँ हैं, जिनका
यही पेशा है।
'यह पेशा चला कैसे ?'
‘स्त्रियों की दुर्बलता से।'
'नहीं, मैं समझता हूँ, बिस्मिल्लाह पुरुषों ने की होगी।'
इसके बाद एकाएक जेब से घड़ी निकालकर देखता हुआ बोला, ओहो !
दो बज गये और अभी मैं यहीं बैठा हूँ। आज शाम को मेरे यहाँ खाना खाना।
जरा इस विषय पर बातें होंगी। अभी तो उसे ढूँढ़ निकालना है। वह है कहीं
इसी शहर में। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा,। बुढ़िया नायका सिर पीट रही
थी। उस्तादजी अपनी तकदीर को रो रहे थे। न-जाने कहाँ जाकर छिप रही।
उसने उठकर दयाकृष्ण से हाथ मिलाया और चला।
दयाकृष्ण ने पूछा, मेरी तरफ से तो तुम्हारा दिल साफ हो गया ?
सिंगार ने पीछे फिरकर कहा, हुआ भी और नहीं भी हुआ। और बाहर
निकल गया।
सात-आठ दिन तक सिंगारसिंह ने सारा शहर छाना, पुलिस में रिपोर्ट की,
समाचारपत्रों में नोटिस छपायी, अपने आदमी दौड़ाये; लेकिन माधुरी का कुछ
भी सुराग न मिला कि फिर महफिल गर्म होती। मित्रवृन्द सुबह-शाम हाजिरी
देने आते और अपना-सा मुँह लेकर लौट जाते। सिंगार के पास उनके साथ
गप-शप करने का समय न था।
गरमी के दिन, सजा हुआ कमरा भट्ठी बना हुआ था। खस की टट्टियाँ
भी थीं, पंखा भी; लेकिन गरमी जैसे किसी के समझाने-बुझाने की परवाह
नहीं करना चाहती, अपने दिल का बुखार निकालकर ही रहेगी।
सिंगारसिंह अपने भीतरवाले कमरे में बैठा हुआ पेग-पर-पेग चढ़ा रहा
था; पर अन्दर की आग न शान्त होती थी। इस आग ने ऊपर की घास-फूस
को जलाकर भस्म कर दिया था और अब अन्तस्तल की जड़ विरक्ति और
अचल विचार को द्रवित करके बड़े वेग से ऊपर फेंक रही थी। माधुरी की
बेवफाई ने उसके आमोदी ह्रदय को इतना आहत कर दिया था कि अब अपना
जीवन ही बेकार-सा मालूम होता था। माधुरी उसके जीवन में सबसे सत्य
वस्तु थी, सत्य भी और सुन्दर भी। उसके जीवन की सारी रेखाएँ इसी बिन्दु
पर आकर जमा हो जाती थीं। वह बिन्दु एकाएक पानी के बुलबुले की भाँति
मिट गया और अब वे सारी रेखाएँ, वे सारी भावनाएँ, वे सारी मृदु स्मृतियाँ
उन झल्लायी हुई मधुमक्खियों की तरह भनभनाती फिरती थीं, जिनका छत्ता
जला दिया गया हो। जब माधुरी ने कपट व्यवहार किया तो और किससे
कोई आशा की जाय ? इस जीवन ही में क्या है ? आम में रस ही न रहा,
तो गुठली किस काम की ?
लीला कई दिनों से महफिल में सन्नाटा देखकर चकित हो रही थी।
उसने कई महीनों से घर के किसी विषय में बोलना छोड़ दिया था। बाहर
से जो आदेश मिलता था, उसे बिना कुछ कहे-सुने पूरा करना ही उसके जीवन
का क्रम था। वीतराग-सी हो गयी थी। न किसी शौक से वास्ता था, न सिंगार
से।
मगर इस कई दिन के सन्नाटे ने उसके उदास मन को भी चिन्तित
कर दिया। चाहती थी कि कुछ पूछे; लेकिन पूछे कैसे ? मान जो टूट जाता।
मान ही किस बात का ? मान तब करे, जब कोई उसकी बात पूछता हो।
मान-अपमान से प्रयोजन नहीं। नारी ही क्यों हुई ?
उसने धीरे-धीरे कमरे का पर्दा हटाकर अन्दर झॉका। देखा, सिंगारसिंह
सोफा पर चुपचाप लेटा हुआ है, जैसे कोई पक्षी साँझ के सन्नाटे में परों में
मुँह छिपाये बैठा हो। समीप आकर बोली, मेरे मुँह पर ताला डाल दिया गया है; लेकिन क्या
करूँ, बिना बोले रहा नहीं जाता। कई दिन से सरकार की महफिल में सन्नाटा
क्यों है ? तबीयत तो अच्छी है ?
सिंगार ने उसकी ओर आँखें उठायीं। उनमें व्यथा भरी हुई थी। कहा, तुम
अपने मैके क्यों नहीं चली जातीं लीला ?
'आपकी जो आज्ञा; पर यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर न हुआ।'
'वह कोई बात नहीं। मैं बिलकुल अच्छा हूँ। ऐसे बेहयाओं को मौत
भी नहीं आती। अब इस जीवन से जी भर गया। कुछ दिनों के लिए बाहर
जाना चाहता हूँ। तुम अपने घर चली जाओ, तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ।'
'भला आपको मेरी इतनी चिन्ता तो है।'
'अपने साथ जो कुछ ले जाना चाहती हो, ले जाओ।'
'मैंने इस घर की चीजों को अपना समझना छोड़ दिया है।'
'मैं नाराज होकर नहीं कह रहा हूँ, लीला न-जाने कब लौटूँ, तुम यहाँ
अकेले कैसे रहोगी ?'
कई महीने के बाद लीला ने पति की आँखों में स्नेह की झलक देखी।
'मेरा विवाह तो इस घर की सम्पत्ति से नहीं हुआ है, तुमसे हुआ है।
जहाँ तुम रहोगे वहीं मैं भी रहूँगी।'
'मेरे साथ तो अब तक तुम्हें रोना ही पड़ा।'
लीला ने देखा, सिंगार की आँखों में आँसू की एक बूँद नीले आकाश
में चन्द्रमा की तरह गिरने-गिरने को हो रही थी। उसका मन भी पुलकित
हो उठा। महीनों की क्षुधाग्नि में जलने के बाद अट्र का एक दाना पाकर
वह उसे कैसे ठुकरा दे ? पेट नहीं भरेगा, कुछ भी नहीं होगा, लेकिन उस
दाने को ठुकराना क्या उसके बस की बात थी ?
उसने बिलकुल पास आकर, अपने अद्बचल को उसके समीप ले जाकर
कहा, मैं तो तुम्हारी हो गयी। हँसाओगे, हँसूॅगी, रुलाओगे, रोऊँगी, रखोगे
तो रहूँगी, निकालोगे तो भी रहूँगी, मेरा घर तुम हो, धर्म तुम हो, अच्छी हूँ
तो तुम्हारी हूँ, बुरी हूँ तो तुम्हारी हूँ।
और दूसरे क्षण सिंगार के विशाल सीने पर उसका सिर रखा हुआ था
और उसके हाथ थे लीला की कमर में। दोनों के मुख पर हर्ष की लाली
थी, आँखों में हर्ष के आँसू और मन में एक ऐसा तूफान, जो उन्हें न जाने
कहाँ उड़ा ले जाएगा।
एक क्षण के बाद सिंगार ने कहा, तुमने कुछ सुना, माधुरी भाग गयी
और पगला दयाकृष्ण उसकी खोज में निकला !
लीला को विश्वास न आया दयाकृष्ण !
'हाँ जी, जिस दिन वह भागी है, उसके दूसरे ही दिन वह भी चल दिया।'
'वह तो ऐसा नहीं है। और माधुरी क्यों भागी ?'
'दोनों में प्रेम हो गया था। माधुरी उसके साथ रहना चाहती थी। वह
राजी न हुआ।'
लीला ने एक लम्बी साँस ली। दयाकृष्ण के वे शब्द याद आये, जो
उसने कई महीने पहले कहे थे। दयाकृष्ण की वे याचना-भरी आँखें उसक
मन को मसोसने लगीं।
सहसा किसी ने बड़े जोर से द्वार खोला और धड़धड़ाता हुआ भीतर
वाले कमरे के द्वार पर आ गया।
सिंगार ने चकित होकर कहा, 'अरे ! तुम्हारी यह क्या हालत है, कृष्णा ?
किधार से आ रहे हो ?'
दयाकृष्ण की आँखें लाल थीं, सिर और मुँह पर गर्द जमी हुई, चेहरे
पर घबराहट, जैसे कोई दीवाना हो।
उसने चिल्लाकर कहा, तुमने सुना; माधुरी इस संसार में नहीं रही !
और दोनों हाथों से सिर पीट-पीटकर रोने लगा, मानो ह्रदय और प्राणों
को आँखों से बहा देगा।
27 मार्च 2010
वेश्या
Posted by Udit bhargava at 3/27/2010 09:37:00 am
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