19 अप्रैल 2010

ऊपरी बाधाएं योग और उपाय

हम जहां रहते हैं वहां कई ऐसी शक्तियां होती हैं, जो हमें दिखाई नहीं देतीं किंतु बहुधा हम पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं जिससे हमारा जीवन अस्त-व्यस्त हो उठता है और हम दिशाहीन हो जाते हैं। इन अदृश्य शक्तियों को ही आम जन ऊपरी बाधाओं की संज्ञा देते हैं। भारतीय ज्योतिष में ऐसे कतिपय योगों का उल्लेख है जिनके घटित होने की स्थिति में ये शक्तियां शक्रिय हो उठती हैं और उन योगों के जातकों के जीवन पर अपना प्रतिकूल प्रभाव डाल देती हैं। यहां ऊपरी बाधाओं के कुछ ऐसे ही प्रमुख योगों तथा उनसे बचाव के उपायों का उल्लेख प्रस्तुत है।

* लग्न में राहु तथा चंद्र और त्रिकोण में मंगल व शनि हों, तो जातक को प्रेत प्रदत्त पीड़ा होती है।
* चंद्र पाप ग्रह से दृष्ट हो, शनि सप्तम में हो तथा कोई शुभ ग्रह चर राशि में हो, तो भूत से पीड़ा होती है।
* शनि तथा राहु लग्न में हो, तो जातक को भूत सताता है।
* लग्नेश या चंद्र से युक्त राहु लग्न में हो, तो प्रेत योग होता है।
* यदि दशम भाव का स्वामी आठवें या एकादश भाव में हो और संबंधित भाव के स्वामी से दृष्ट हो, तो उस स्थिति में भी प्रेत योग होता है।
* उक्त योगों के जातकों के आचरण और व्यवहार में बदलाव आने लगता है। ऐसे में उन योगों के दुष्प्रभावों से मुक्ति हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
* संकट निवारण हेतु पान, पुष्प, फल, हल्दी, पायस एवं इलाइची के हवन से दुर्गासप्तशती के बारहवें अध्याय के तेरहवें श्लोक सर्वाबाधा........न संशयः मंत्र से संपुटित नवचंडी प्रयोग कराएं।
* दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय के चौबीसवें श्लोक का पाठ करते हुए पलाश की समिधा से घृत और सीलाभिष की आहुति दें, कष्टों से रक्षा होगी।
* शक्ति तथा सफलता की प्राप्ति हेतु ग्यारहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक सृष्टि स्थिति विनाशानां......का उच्चारण करते हुए घी की आहुतियां दें।
* शत्रु शमन हेतु सरसों, काली मिर्च, दालचीनी तथा जायफल की हवि देकर अध्याय के उनचालीसवें श्लोक का संपुटित प्रयोग तथा हवन कराएं।
कुछ अन्य उपाय
* महामृत्युंजय मंत्र का विधिवत्‌ अनुष्ठान कराएं। जप के पश्चात्‌ हवन अवश्य कराएं।
* महाकाली या भद्रकाली माता के मंत्रानुष्ठान कराएं और कार्यस्थल या घर पर हवन कराएं।
* गुग्गुल का धूप देते हुए हनुमान चालीस तथा बजरंग बाण का पाठ करें।
* उग्र देवी या देवता के मंदिर में नियमित श्रमदान करें, सेवाएं दें तथा साफ सफाई करें।
* यदि घर के छोटे बच्चे पीड़ित हों, तो मोर पंख को पूरा जलाकर उसकी राख बना लें और उस राख से बच्चे को नियमित रूप से तिलक लगाएं तथा थोड़ी-सी राख चटा दें।
घर की महिलाएं यदि किसी समस्या या बाधा से पीड़ित हों, तो निम्नलिखित प्रयोग करें।

सवा पाव मेहंदी के तीन पैकेट (लगभग सौ ग्राम प्रति पैकेट) बनाएं और तीनों पैकेट लेकर काली मंदिर या शस्त्र धारण किए हुए किसी देवी की मूर्ति वाले मंदिर में जाएं। वहां दक्षिणा, पत्र, पुष्प, फल, मिठाई, सिंदूर तथा वस्त्र के साथ मेहंदी के उक्त तीनों पैकेट चढ़ा दें। फिर भगवती से कष्ट निवारण की प्रार्थना करें और एक फल तथा मेहंदी के दो पैकेट वापस लेकर कुछ धन के साथ किसी भिखारिन या अपने घर के आसपास सफाई करने वाली को दें। फिर उससे मेहंदी का एक पैकेट वापस ले लें और उसे घोलकर पीड़ित महिला के हाथों एवं पैरों में लगा दें। पीड़िता की पीड़ा मेहंदी के रंग उतरने के साथ-साथ धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी।
व्यापार स्थल पर किसी भी प्रकार की समस्या हो, तो वहां श्वेतार्क गणपति तथा एकाक्षी श्रीफल की स्थापना करें। फिर नियमित रूप से धूप, दीप आदि से पूजा करें तथा सप्ताह में एक बार मिठाई का भोग लगाकर प्रसाद यथासंभव अधिक से अधिक लोगों को बांटें। भोग नित्य प्रति भी लगा सकते हैं।

कामण प्रयोगों से होने वाले दुष्प्रभावों से बचने के लिए दक्षिणावर्ती शंखों के जोड़े की स्थापना करें तथा इनमें जल भर कर सर्वत्र छिड़कते रहें।

हानि से बचाव तथा लाभ एवं बरकत के लिए गोरोचन, लाक्षा, कुंकुम, सिंदूर, कपूर, घी, चीनी और शहद के मिश्रण से अष्टगंध बनाकर उसकी स्याही से नीचे चित्रित पंचदशी यंत्र बनाएं तथा देवी के 108 नामों को लिखकर पाठ करें।

बाधा मुक्ति के लिए : किसी भी प्रकार की बाधा से मुक्ति के लिए मत्स्य यंत्र से युक्त बाधामुक्ति यंत्र की स्थापना कर उसका नियमित रूप से पूजन-दर्शन करें।

अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए : यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-

बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अपने बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यह प्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती है।

रुद्राक्ष या स्फटिक की माला के प्रयोगों से प्रतिकूल परिस्थितियों का शमन होता है। इसके अतिरिक्त स्फटिक की माला पहनने से तनाव दूर होता है।

नजर दोष निवारक मंत्र व यंत्र

वायुमंडल में व्याप्त अदृश्य शक्तियों के दुष्प्रभाव से ग्रस्त लोगों का जीवन दूभर हो जाता है। प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न देने के फलस्वरूप किसी चिकित्सकीय उपाय से इनसे मुक्ति संभव नहीं होती। ऐसे में भारतीय ज्योतिष तथा अन्य धर्म ग्रंथों में वर्णित मंत्रों एवं यंत्रों के प्रयोग सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यहां कुछ ऐसे ही प्रमुख एवं अति प्रभावशाली मंत्रों तथा यंत्रों के प्रयोगों के फल और विधि का विवरण प्रस्तुत है। ये प्रयोग सहज और सरल हैं, जिन्हें अपना कर सामान्य जन भी उन अदृश्य शक्तियों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
गायत्री मंत्र : गायत्री मंत्र वेदोक्त महामंत्र है, जिसके निष्ठापूर्वक जप और प्रयोग से प्रेत तथा ऊपरी बाधाओं, नजर दोषों आदि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जप करने वालों को ये शक्तियां कभी नहीं सताती। उन्हें कभी डरावने सपने भी नहीं आते।
गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल से अभिषेक करने से अथवा गायत्री मंत्र से किए गए हवन की भस्म धारण करने से पीड़ित व्यक्ति को प्रेत बाधाओं, ऊपरी हवाओं, नजर दोषों आदि से मुक्ति मिल जाती है। इस महामंत्र का अखंड प्रयोग कभी निष्फल नहीं होता।

मंत्र : ओम भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्‌।

प्रयोग विधि
गायत्री मंत्र का सवा लाख जप कर पीपल, पाकर, गूलर या वट की लकड़ी से उसका दशांश हवन करें, ऊपरी हवाओं से मुक्ति मिलेगी।
सोने, चांदी या तांबे के कलश को सूत्र से वेष्टित करें और रेतयुक्त स्थान पर रखकर उसे गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल से पूरित करें। फिर उसमें मंत्रों का जप करते हुए सभी तीर्थों का आवाहन करके इलायची, चंदन, कपूर, जायफल, गुलाब, मालती के पुष्प, बिल्वपत्र, विष्णुकांता, सहदेवी, वनौषधियां, धान, जौ, तिल, सरसों तथा पीपल, गूलर, पाकर व वट आदि वृक्षों के पल्लव और २७ कुश डाल दें। इसके बाद उस कलश में भरे हुए जल को गायत्री मंत्र से एक हजार बार अभिमंत्रित करें। इस अभिमंत्रित जल को भूता बाधा, नजर दोष आदि से पीड़ित व्यक्ति के ऊपर छिड़कर उसे खिलाएं, वह शीघ्र स्वस्थ हो जाएगा। इस प्रयोग से पैशाचिक उपद्रव भी शांत हो जाते हैं।

जो घर ऊपरी बाधाओं और नजर दोषों से प्रभावित हो, उसमें गायत्री मंत्र का सवा लाख जप करके तिल, घृत आदि से उसका दशांश हवन करें। फिर उस हवन स्थल पर एक चतुष्कोणी मंडल बनाएं और एक त्रिशूल को गायत्री मंत्र से एक हजार बार अभिमंत्रित करके उपद्रवों और उपद्रवकारी शक्तियों के शमन की कामना करते हुए उसके बीच गाड़ दें।

किसी शुभ मुहूर्त में अनार की कलम और अष्टगंध की स्याही से भोजपत्र पर नीचे चित्रांकित यंत्र की रचना करें।

फिर इसे गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर गुग्गुल की धूप दें और विधिवत पूजन कर ऊपरी बाधा या नजरदोष से पीड़ित व्यक्ति के गले में बांध दें, वह दोषमुक्त हो जाएगा।

जिन व्यक्तियों ने गायत्री मंत्र का पुरश्चरण नहीं किया हो, उन्हें यह प्रयोग करने से पहले इस मंत्र का एक बार विधिवत पुरश्चरण अवश्य कर लेना चाहिए।

अमोघ हनुमत-मंत्र : ऊपरी बाधाओं और नजर दोष के शमन के लिए निम्नोक्त हनुमान मंत्र का जप करना चाहिए।

ओम ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रीं ओम नमो

भगवतेमहाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी डाकिनी- यक्षिणी-पूतना मारी महामारी यक्ष-राक्षस भैरव-वेताल ग्रह राक्षसादिकम क्षणेन हन हन भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रुद्रावतार हुं फट स्वाहा।

इस मंत्र को दीपावली की रात्रि, नवरात्र अथवा किसी अन्य शुभ मुहूर्त में या ग्रहण के समय हनुमान जी के किसी पुराने सिद्ध मंदिर में ब्रह्मचर्य पूर्वक रुद्राक्ष की माला पर दस हजार बार जप कर उसका दशांश हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिए ताकि कभी भी अवसर पड़ने पर इसका प्रयोग किया जा सके।
सिद्ध मंत्र से अभिमंत्रित जल प्रेत बाधा या नजर दोष से ग्रस्त व्यक्ति को पिलाने तथा इससे अभिमंत्रित भस्म उसके मस्तक पर लगाने से वह इन दोषों से मुक्त हो जाता है।

उक्त सिद्ध मंत्र से एक कील को 1008 बार अभिमंत्रित कर उसे भूत-प्रेतों के प्रकोप तथा नजर दोषों से पीड़ित मकान में गाड़ देने से वह मकान कीलित हो जाता है तथा वहां फिर कभी किसी प्रकार का पैशाचिक अथवा नजर दोषजन्य उपद्रव नहीं होता।

पंचांग क्या है?

सभी विषय या वस्तु के प्रमुख पाँच अंग को पंचांग कहते हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पाँच अंगों की दैनिक जानकारी पंचांग में दी जाती है। ये अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हैं। सूर्य एवं चंद्र के अंतर से तिथि का निर्माण होता है। पूर्णिमा को सूर्य-चंद्र एक-दूसरे के सामने एवं अमावस्या को एक साथ रहते हैं। पूर्ण ग्रह सात होने के कारण सप्तवारों की रचना की गई है।

यह सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय पूर्व तक रहता है। जिस दिन चंद्रमा जिस स्थान पर होता है उस दिन वही नक्षत्र रहता है। सूर्य-चंद्र के 13 अंश 20 कला साथ चलने से एक योग होता है। ये कुल 27 हैं। तिथि के अर्द्ध भाग को करण कहते हैं। इनकी संख्या ग्यारह है। स्थिर करण 7 एवं चर करण 4 होते हैं।

ज्योतिष की चर्चा में राशि का स्थान प्रमुख रूप से होता है। इसी से सभी ग्रह की स्थिति जानी जाती है। ये बारह होती हैं। इनका क्रम भी निश्चित है। अर्थात मेष राशि के पश्चात वृषभ राशि तथा पूर्व में मीन राशि आती है। राशियों का प्रारंभ मेष राशि से होकर अंत मीन राशि पर होता है। इस राशि के समूह को राशि चक्र या भाग चक्र कहते हैं।

यह ग्रहों के मार्ग के हिस्सों में रहता है। यह मार्ग 360 अंश का है। इसके सम बारह हिस्से अर्थात 30-30 अंश की जगह खगोल में एक-एक राशि के हैं। अर्थात प्रत्येक राशि 30 अंश की है। इनके नाम उस स्थान की भौगोलिक आकृति पर ऋषियों ने अथवा आदि ज्योतिषियों ने दिए हैं। अर्थात प्रथम शून्य से लेकर 30 अंश तक की भौगोलिक स्थिति भाग चक्र में मेष के (भेड़ के) आकार की होने के कारण उसे मेष नाम दिया गया है।

सरल शब्दों में कहें तो ग्रह पथ पर राशियाँ स्थान का नाम है। इनका क्रम है- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन।

जन्माक्षर कैसे निकलता है। राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। इस प्रकार बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के चार हिस्से होते हैं, जिन्हें उनके चरण कहा जाता है। प्रत्येक चरण का एक अक्षर होता है। जिस दिन एवं समय जातक का जन्म होता है, उस समय जिस नक्षत्र में चंद्रमा गमन कर रहे होते हैं, उस नक्षत्र के पूरे काल को ज्ञात करके उसके चार हिस्से करते हैं। जिस हिस्से में जातक का समय आता है, उस हिस्से (चरण) के अक्षर से ही प्रथमाक्षर जान सकते हैं। प्रत्येक समय सिर्फ एक अक्षर होता है। यह अक्षर वर्तनी (मात्रा) युक्त या रहित दोनों हो सकता है। अक्षर की मात्रा के अनुसार ही उसका नक्षत्र या राशि होती है। जैसे 'च' अक्षर को लें, लो, च, चा, ची अक्षर मीन राशि के रेवती नक्षत्र के हैं, जबकि चू, चे, चो मेष राशि के अश्विनी नक्षत्र के हैं। अर्थात अक्षर की मात्रा के अनुसार उसके नक्षत्र व राशि बदल जाते हैं।

मूलादि नक्षत्र क्या हैं?
किसी बालक का जन्म होता है तो सामान्यतः यह पूछा जाता है कि बालक को मूल तो नहीं है। इसके उत्तर के लिए जन्मकाल के नक्षत्र को देखें, यदि यह इन 6 में से एक नक्षत्र है तो बालक मूल में हुआ है। अश्वनी, ज्येष्ठा, अश्लेषा, मूल, मघा, रेवती जन्म लिए बालक प्रारंभ में परिजनों के लिए कष्टकारक होते हैं, लेकिन बड़े होकर ये बहुत भाग्यशाली होते हैं। कर्मकांड के अंतर्गत मूल नक्षत्र की शांति भी होती है, जो कि आगे वही नक्षत्र आने पर इसकी शांति करते हैं। वही नक्षत्र लगभग सत्ताईस दिन बाद आता है।

भारतीय पंचाग की कहानी
आइए भारतीय पंचांग यानी भारतीय कलैंडर के बारे में जानते हैं। हमारे देश में लगभग 5,000 वर्ष पहले वैदिक काल में समय की गणना का काम शुरू हो गया था। उन दिनों इस बात का ज्ञान हो चुका था कि चांद्र-वर्ष में 360 से कुछ कम दिन होते हैं क्योंकि एक चंद्र-मास में ठीक 30 दिन नहीं होते। सूर्योदय से सूर्योदय तक के काल को ‘सावन-दिन’ माना गया। तब सावन-मास और चांद्र मास का भी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। बाद में नक्षत्र और फिर ‘तिथि’ का ज्ञान हुआ। अनुमान है कि शक संवत् से लगभग 1400 वर्ष पूर्व तक तिथि और नक्षत्र, समय के इन दो अंगों का ही ज्ञान था। उसके बाद करण, योग और वार का ज्ञान प्राप्त हुआ। इस तरह तिथि, नक्षत्र, वार, करण और योग, समय के इन पांच अंगों से ‘पंचांग’ यानी कलैंडर का विकास हुआ।

क्षेत्रीय आवश्यकताओं और धार्मिक तिथियों की गणना के लिए देश के विभिन्न प्रांतों में कई प्रकार के पंचांग बनाए गए जिनमें से अनेक पंचांग आज भी प्रचलित हैं। लेकिन, प्रशासनिक तथा नागरिक उद्देश्य के लिए संशोधित और मानक भारतीय राष्ट्रीय कलैंडर का प्रयोग किया जाता है।
हमारा राष्ट्रीय कलैंडर प्रोफेसर मेघनाद साहा जैसे समर्पित वैज्ञानिक के सतत प्रयासों का फल है। कलैंडर सुधार का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वासों पर सीधा प्रभाव पड़ने का खतरा मोल लेते हुए भी उन्होंने कलैंडर में वैज्ञानिक सुधार का बीड़ा उठाया और हमारे कलैंडर को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।

प्रोफेसर मेघनाद साहा ने भारतीय पंचांगों और कलैंडर सुधार की आवश्यकता पर ‘जर्नल ऑफ रॉयल एस्ट्रोनामिकल सोसाइटी’, ‘जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी’ और ‘साइंस एंड कल्चर’ जैसी प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिकाओं में लेख लिख कर इस विषय की ओर सरकार और आम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। कलैंडर से संबंधित उनके कुछ लेख इस प्रकार थेः ‘कलैंडर (पंचांग) सुधार की आवश्यकता’, ‘कालांतर में संशोधित कलैंडर तथा ग्रेगोरीय कलैंडर’, ‘भारतीय कलैंडर का सुधार’, ‘विश्व कलैंडर योजना’। ये सभी लेख ‘साइंस एंड कल्चर में प्रकाशित हुए। ‘प्राचीन एवं मध्ययुगीन भारत में काल निर्धारण की विभिन्न विधियां तथा शक संवत् की उत्पत्ति’ जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी में छपा। उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी में ‘शक संवत् की शुरुआत’ पर व्याख्यान दिया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1952 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने एक कलैंडर सुधार समिति गठित की। समिति को देश के विभिन्न प्रांतों में प्रचलित पंचांगों का अध्ययन करके सरकार को सटीक वैज्ञानिक सुझाव देने की जिम्मेदारी सौंपी गई ताकि पूरे देश में एक समान नागरिक कलैंडर लागू किया जा सके। प्रो. मेघनाद साहा इस कलैंडर सुधार समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। समिति के सदस्य थेः ए.सी.बनर्जी, के.के.दफ्तरी, जे.एस.करंडीकर, गोरख प्रसाद, आर.वी.वैद्य तथा एन.सी. लाहिड़ी।

पंचांगों में सबसे प्रमुख त्रुटि थी वर्ष की लंबाई। पंचांग प्राचीन ‘सूर्य सिद्धांत’ पर आधारित होने के कारण वर्ष की लंबाई 365.258756 दिन की होती है। वर्ष की यह लंबाई वैज्ञानिक गणना पर आधारित सौर वर्ष से .01656 दिन अधिक है। प्राचीन सिद्धांत अपनाने के कारण ईस्वी सन् 500 से वर्ष 23.2 दिन आगे बढ़ चुका है। भारतीय सौर वर्ष ‘वसंत विषुव’ औसतन 21 मार्च के अगले दिन मतलब 22 मार्च से शुरु होने के बजाय 13 या 14 अप्रैल से शुरु होता है। दूसरी ओर, जैसे कि पहले बताया गया है, यूरोप में जूलियस सीजर द्वारा शुरू किए गए ‘जुलियन कलैंडर’ में भी वर्ष की लंबाई 365.25 दिन निर्धारित की गई थी जिसके कारण 1582 ईस्वी आते-आते 10 दिन की त्रुटि हो चुकी थी। तब पोप ग्रेगरी तेरहवें ने कलैंडर सुधार के लिए आदेश दे दिया कि उस वर्ष 5 अक्टूबर को 15 अक्टूबर घोषित कर दिया जाए। लीप वर्ष भी स्वीकार कर लिया गया। लेकिन, भारत में सदियों से पंचांग यानी कलैंडर में इस प्रकार का कोई संशोधन नहीं हुआ था।

उन्होंने विश्व कलैंडर योजना का भी सुझाव दिया और 1954 में जेनेवा में आयोजित यूनेस्को के 18वें अधिवेशन में ‘विश्व कलैंडर’ सुधार के लिए प्रस्ताव भेजा। कलैंडर सुधार समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। समिति ने प्रशासनिक तथा नागरिक कलैंडर के लिए महत्वपूर्ण संस्तुतियां कीं। इन संस्तुतियों के अनुसार राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसकी गणनाएं शक संवत् से की जाती हैं। शक संवत् की प्रथम तिथि ईस्वी सन् 79 के वसंत विषुव से प्रारंभ होती है। हमारे राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् 1879 (अठारह सौ उनासी) के चैत्र मास की प्रथम तिथि को आधार माना गया है जो ग्रेगोरीय कलैंडर की गणना के अनुसार 22 मार्च ईस्वी सन् 1957 है। यानी, हमारा संशोधित राष्ट्रीय कलैंडर 22 मार्च 1957 से शुरू होता है।

मिति ने सुझाव दिया कि वर्ष में 365 दिन तथा लीप वर्ष में 366 दिन होंगे। लीप वर्ष की परिभाषा देते हुए सुझाव दिया गया कि शक संवत् में 78 जोड़ने पर जो संख्या मिले वह अगर 4 से विभाजित हो जाए तो वह लीप वर्ष होगा। लेकिन, अगर वर्ष 100 का गुणज तो है लेकिन 400 का गुणज नहीं है तो वह लीप वर्ष नहीं माना जाएगा। राष्ट्रीय परंपरागत भारतीय मास 12 हैं : चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ और फाल्गुन। समिति ने यह भी संस्तुति की कि वर्ष का प्रारंभ वसंत विषुव के अगले दिन से होना चाहिए। कलैंडर में चैत्र मास वर्ष का प्रथम मास होगा। चैत्र से भाद्र तक प्रत्येक मास में 31 दिन और आश्विन से फाल्गुन तक प्रत्येक मास में 30 दिन होंगे। लीप वर्ष में, चैत्र मास में 31 दिन होंगे अन्यथा सामान्य वर्षों में 30 दिन ही रहेंगे। लीप वर्ष में चैत्र मास की प्रथम तिथि 22 मार्च के बजाय 21 मार्च होगी। समिति ने कहा कि जो उत्सव और अन्य महत्वपूर्ण तिथियां 1400 वर्ष पहले जिन ऋतुओं में मनाई जाती थीं, वे 23 दिन पीछे हट चुकी हैं। फिर भी धार्मिक उत्सवों की तिथियां परंपरागत पंचांगों से ही तय की जा सकती हैं। समिति ने धार्मिक पंचांगों के लिए भी दिशा निर्देश दिए। ये पंचांग सूर्य और चंद्रमा की गतियों की गणनाओं के आधार पर तैयार किए जाते हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग प्रति वर्ष भारतीय खगोल पंचांग प्रकाशित करता है। छुट्टियों की तिथियों की गणना इसी के आधार पर की जाती है।

हमारे राष्ट्रीय कलैंडर के लीप वर्ष विश्व भर में प्रचलित ग्रेगोरी कलैंडर के समान हैं। ग्रेगोरीय कलैंडर में 21 मार्च की तिथि वसंत विषुव यानी वर्नल इक्विनॉक्स मानी गई है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कलैंडर सुधार समिति की रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा था, “हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। यह वांछनीय होगा कि हमारे नागरिक सामाजिक और अन्य कार्यों में काम आने वाले कलैंडर में कुछ समानता हो और इस समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए।”

ज्योतिष : क्या और क्यों?

आकाश की तरफ नजर डालते ही दिमाग में सवाल पैदा होता है कि ग्रह-नक्षत्र क्या होते हैं? इनमें से कुछ दिन में और कुछ रात में क्यों छुप जाते हैं? सारे ग्रह एक साथ डूब क्यों नहीं जाते? सूरज, प्रतिदिन पूर्व दिशा से ही क्यों उगता है?

इन्हीं सवालों की वजह से आदमी ने आकाश के ग्रह-तारों को देखना-परखना-समझना शुरू किया। धीरे-धीरे ग्रहों-नक्षत्रों की चाल आदमी की समझ में आने लगी। वह अपने आस-पास की घटनाओं को ग्रहों-नक्षत्रों की गतिविधियों से जोड़ने लगा और इस तरह एक शास्त्र ही बन गया, जिसे आज हम ज्योतिष कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र की प्रामाणिक परिभाषा वेदो में है।

'ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्र्‌म' इसका मतलब यह हुआ कि ग्रह (ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि) और समय का ज्ञान कराने वाले विज्ञान को ज्योतिष अर्थात ज्योति प्रदान करने वाला विज्ञान कहते हैं। एक तरह से यह रास्ता बतलाने वाला शास्त्र है। जिस शास्त्र से संसार का ज्ञान, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के संबंध में ज्योति दिखाई दे वही ज्योतिष शास्त्र है। इस अर्थ में वह खगोल से ज्यादा अध्यात्म और दर्शनशास्त्र के करीब बैठता है।

ऐसा माना जाता है कि ज्योतिष का उदय भारत में हुआ, क्योंकि भारतीय ज्योतिष शास्त्र की पृष्ठभूमि 8000 वर्षों से अधिक पुरानी है। भारतीय ज्योतिष के प्रमुख ज्योतिर्विद और उनके द्वारा लिखे गए खास-खास ग्रंथ-
1. पाराशर मुनि वृहद पाराशर, होरा शास्त्र
2. वराह मिहिर वृहद संहिता, वृहत्जातक, लघुजातक
3. भास्कराचार्य सिद्धांत शिरोमणि
4. श्रीधर जातक तिलक

ज्योतिष शास्त्र के कुछ और जाने-माने ग्रंथ इस प्रकार है -
1. सूर्य सिद्धांत
2. लघु पाराशरी
3. फल दीपिका
4. जातक पारिजात
5. मान सागरी
6. भावप्रकाश
7. भावकुतूहल
8. भावार्थ रत्नकारा
9. मुहूर्त चिन्तामणि

भारतीय ज्योतिष की अवधारणा मूल रूप से नौ ग्रहों पर टिकी हुई है। इसमें सात ग्रह मुख्य माने जाते हैं और दो को छाया ग्रह कहते हैं। सूर्य राजा है, चंद्रमा मंत्री, बुध मुंशी, बृहस्पति गुरु, शुक्र पुरोहित, शनि राजपुत्र और छाया ग्रह राहु, चांडाल केतु अछूत है।

जीवन का मुख्य आधार प्रकाश जिस दिन इस धरती पर नहीं होगा, शायद जीवन भी संभव नहीं होगा, इसलिए ज्योतिष शास्त्र में सूर्य ग्रहों का राजा कहलाता है और उसको आधार मानकर समय की गणना की जाती है।

'एते ग्रहा बलिष्ठाः प्रसूति काले नृणां स्वमूर्तिसमम्‌। कुर्युनेंह नियतं वहवश्च समागता मिश्रम्‌॥'
ऊपर दिए गए श्लोक से जाहिर है कि सभी ग्रहों का प्रकाश और नक्षत्रों का प्रभाव धरती पर रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं और चीजों पर पड़ता है। अलग-अलग जगहों पर ग्रहों की रोशनी का कोण अलग-अलग होने की वजह से प्रकाश की तीव्रता में फर्क आ जाता है। समय के साथ इसका असर भी बदलता जाता है। जिस माहौल में जीव रहता है, उसी के अनुरूप उसमें संबंधित तत्व भारी या हल्के होते जाते हैं। हरेक की अपनी विशेषता होती है। जैसे, किसी स्थान विशेष में पैदा होने वाला मनुष्य उस स्थान पर पड़ने वाली ग्रह रश्मियों की विशेषताओं के कारण अन्य स्थान पर उसी समय जन्मे व्यक्ति की अपेक्षा अलग स्वभाव और आकार-प्रकार का होता है।

इस तरह ज्योतिष कोई जादू-टोना या चमत्कार नहीं, बल्कि विज्ञान की ही एक शाखा जैसा है। मोटे तौर पर विज्ञान के अध्ययन को दो भागों में बाँटा जाता है :-
1. भौतिक विज्ञान
2. व्यावहारिक विज्ञान

भौतिक विज्ञान के तहत वैज्ञानिक किसी भी घटना के कारण और उसके परिणामों का अध्ययन कर एक अभिकल्पना बनाते हैं। इसके बाद वे समीकरण पेश करते हैं, जिसकी पुष्टि भौतिक प्रयोग के परिणामों और तथ्यों के जरिए की जाती है। व्यावहारिक विज्ञान में हम कारण और उनके प्रभावों का अध्ययन कर अभिकल्पना बनाते हैं कि कौन से कारण क्या प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं? जैसे, नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन ने अर्थशास्त्र को नया सिद्धांत दिया। इसमें आर्थिक विकास को साक्षरता की दर से जोड़ा गया है। उनका यह सिद्धांत जनगणना से प्राप्त आँकड़ों पर आधारित है। इसी तरह ज्योतिषी भी मनुष्य पर सौरमण्डल के प्रभावों का व्यवस्थित अध्ययन करके एवं इकठ्ठा किए गए आँकड़ों का विश्लेषण करके फलादेश करते हैं।

इस प्रकार ज्योतिष, विज्ञान जैसा ही है, जिसमें मानव जीवन पर ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव का तर्कसम्मत एवं गणितीय आधार पर अध्ययन किया जाता है और उपलब्ध आँकड़ों एवं सूचनाओं के आधार पर मानव विशेष के वर्तमान, भूत एवं भविष्य की जानकारी दी जाती है। यदि ज्योतिष को चमत्कार या अंधविश्वास न मानकर उसे अपने जीवन में सही ढंग से प्रयोग में लाया जाए तो वह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

ज्योतिष का विज्ञान

ज्योतिष भी अन्य विज्ञानों की तरह एक विज्ञान है और उसका मूल उद्‍गम सृष्टि के गर्भ में छिपे तथ्यों को जानने की उत्सुकता में निहित है। आकाश-मंडल, निर्बाध गति से चलने वाले रात-दिन, और जन्म-मरण के चक्र और सूर्य, चन्द्र तथा तारागणों के प्रति मानव का कौतूहल अनादिकाल से रहता आया है।

इसी के परिणाम स्वरूप ज्योतिष की विद्या का प्रादुर्भाव हुआ और उसके शास्त्र को विभिन्न ग्रहों और काल का बोध कराने वाले शास्त्र के रूप में स्थापित किया गया। ज्योतिषशास्त्र को वेदों में भी समुचित प्रतिष्ठा प्रदान की गई थी। और यह तथ्य कतिपय व्यक्तियों की इस धारणा को सर्वथा निर्मूल सिद्ध करता है कि यह विज्ञान भारत में विदेशों से आयातित हुआ था।

ज्योतिष का विज्ञान वस्तुतः अपने आप में इतना सशक्त और भरपूर है कि उसके प्रबल विरोधी भी उसके वैज्ञानिक पहलुओं की अवहेलना नहीं कर सकते। ज्योतिष विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले ग्रह स्वयं किसी को सुख अथवा दुःख प्रदान नहीं करते। हाँ, उनका प्रभाव सृष्टि के अणु-परमाणुओं पर निरंतर पड़ता रहता है और उससे यहाँ का प्राणी जगत भी प्रभावित होता है। उदाहरण स्वरूप कमल का पुष्प सूर्य की प्रथम किरण पाते ही खिल उठता है और फिर सूर्यास्त होने के साथ ही उसकी पंखुड़ियाँ बंद हो जाती हैं। इसे सूर्य की अपनी विशेषता नहीं कहा जाएगा, बल्कि उन दोनों के मिलन के फलस्वरूप ही इस प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है।

कोई भी विज्ञान अपने आप में संपूर्ण नहीं होता। उसकी कुछ विशेषताएँ होती हैं और कुछ खामियाँ। इसी तरह ज्योतिष विज्ञान को भी सर्वथा पूर्ण और निष्कलंक कहना कठिन है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस विज्ञान के गणित को अनादिकाल से हमारे पूर्वजों ने गोपनीय बनाए रखने की चेष्टा की और तत्संबंध में जो ज्ञान जिसके पास था वह उसके जीवन के साथ ही समाप्त होता चला गया।

आज भी इस विज्ञान को फलने-फूलने के लिए न उस तरह का परिवेश मिल रहा है जो उसके विकास और विस्तार के लिए अपेक्षित है, और न वह वातावरण जिसके सहारे वह अपने को पुष्पित-पल्लवित करने में समर्थ हो सके। अपनी तमाम कमियों के बावजूद मनुष्य के जीवन में ज्योतिष-विज्ञान का सर्वोपरि स्थान है। यह बात भी असंदिग्ध है कि समग्र विश्व इस विज्ञान की सहायता से अपनी विभिन्न समस्याओं के निराकरण में असामान्य रूप से सफल हो सकता है।

ज्योतिष-विज्ञान वह विज्ञान है जो मनुष्य को उसके कार्यक्षेत्र से परिचित कराता है और जिस तरह रोग-निवारण में औषधि का प्रयोग सहायक सिद्ध होता है। उसी प्रकार इस विज्ञान में जीवन की बाधाओं के प्रति मानव को सचेत करते हुए उसके समुचित निवारण को निर्दिष्ट करने की अद्‍भुत क्षमता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए तो ज्योतिष विज्ञान एक अमूल्य वरदान है। उसके आधार पर वर्षा, भूकम्प, बाढ़ और तूफान जैसे प्राकृतिक क्रियाकलापों से अवगत होकर संभावित प्रकोपों के प्रति पहले से सावधान हुआ जा सकता है।

ज्योतिष के माध्यम से प्राप्त जानकारी विश्वसनीय सिद्ध होती रही है। शिक्षा के क्षेत्र में भी ज्योतिष विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। यह विज्ञान अपना अध्ययन क्षेत्र चुनने में विद्यार्थियों का पथ प्रदर्शन करने में भी पूरी तरह समर्थ है। उद्योग के क्षेत्र में भी इस विज्ञान के माध्यम से बहुत सहायता प्राप्त की जा सकती है।

इसी प्रकार चिकित्सा और मनोविज्ञान की विधाओं में भी ज्योतिष-शास्त्र बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। चिकित्सा विशेषज्ञ और मनोवैज्ञानिक जहाँ मात्र बाह्य निरीक्षणों के आधार पर रोग का निर्धारण करते हैं वहीं ज्योतिष विज्ञान जन्मकालीन ग्रह और नक्षत्रों की स्थितियों के आधार पर आंतरिक वास्तविकता का ज्ञान कराने में समर्थ है। राजनीति के क्षेत्र में भी ज्योतिष विज्ञान का विशेष महत्व है।
इस तरह कहा जा सकता है कि आज के युग में भी ज्योतिष विज्ञान मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वरदान सिद्ध होने की असाधारण क्षमता रखता है। ज्योतिष विज्ञान वस्तु का स्वरूप तो सहज ही बता सकता है, लेकिन उसमें किसी तरह का परिवर्तन लाना उसके लिए संभव नहीं है। हाँ, वह किसी आदमी को उसके व्यक्तित्व की कमियों और खूबियों का अहसास कराते हुए तदनुसार अपना विकास करने के लिए उसे अवश्य प्रेरित कर सकता है।

मनुष्य के अतिरिक्त राष्ट्र की अनेक समस्याएँ भी ज्योतिष की सहायता से बखूबी हल की जा सकती हैं। उसके गणितपक्ष के आधार पर ग्रहों की गति और स्थिति का ज्ञान अर्जित कर कालगणना, नक्षत्रों के परिवर्तन, ग्रहों के संयोग और सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण जैसे विभिन्न क्रियाकलापों का आकलन आसानी से किया जा सकता है।

ज्योतिष मात्र विज्ञान ही नहीं, एक कला भी है, लेकिन उसकी सफलता पूरी तरह ज्योतिषी की कार्यक्षमता और दूरदर्शिता पर निर्भर है। इस तरह ज्योतिष शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है और वह कुछ निश्चित नियमों और सिद्धांतों पर आधारित है।

दु:ख की बात यह है कि इस विज्ञान को वैज्ञानिक गंभीरता के साथ लेने का कोई सार्थक प्रयत्न अब तक नहीं किया गया है। आज मौसम विज्ञान के शोध और परिमार्जन हेतु लाखों रुपयों का व्यय किया जा रहा है लेकिन ज्योतिष विज्ञान पहले की तरह उपेक्षित है। यद्यपि ज्योतिष विज्ञान के आधार पर जो भविष्यवाणियाँ की जाती रही हैं, उनमें हमेशा अधिक सार रहा है।

शिक्षा के क्षेत्र में भी ज्योतिष विज्ञान पूरी तरह उपेक्षित रहा है। उसके विस्तृत और व्यापक अध्ययन के लिए किसी भी विश्वविद्यालय में कोई विशेष सुविधा सुलभ नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार के अतिरिक्त देश के शिक्षाविद् भी इस संबंध में ध्यान आकृष्ट करें जिससे इस विद्या के माध्यम से उपलब्ध होने वाले लाभ उपेक्षित न रह सकें।

ज्योतिष-व्यवसाय से संबद्ध लोगों से यह अपेक्षित है कि मात्र अपनी रोजी-रोटी तक वे उस विद्या को सीमित न रखते हुए वास्तविक और वैज्ञानिक रूप से उसे पुष्पित और पल्लवित करने की चेष्टा करें जिससे जनसामान्य के सम्मुख अपने निखरे रूप में उपस्थित होना उसके लिए संभव हो सके।

इसमें संदेह नहीं है कि ज्योतिष-विज्ञान मानवीय क्रियाकलापों को नवीनता प्रदान करने का एक अद्‍भुत सूत्र बन सकता है। बशर्ते उसे पूर्ण रूप से विकसित होने योग्य वातावरण मिल सके और उसके माध्यम से पुरातन के आधार पर नवीनीकरण की सृष्टि करने का प्रयत्न किया जाए।

इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी समस्याओं की तार्किक दृष्टि से व्याख्या करें, बगैर किसी पूर्वाग्रह उनका मंथन करें और फिर उनका हल निकालने के लिए प्रयत्नशील हों।

अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस विज्ञान की उन्नति को अवरुद्ध होने से कोई नहीं बचा सकता। क्योंकि किसी भी विज्ञान का विकास विभिन्न प्रयोगों, उनके गंभीर अध्ययन, सूक्ष्म निरीक्षण, गणित के ठोस आधार और उसके द्वारा प्रतिपादित फलों पर निर्भर करता है।

अनेक लोगों की धारणा है कि ज्योतिषियों द्वारा बताए गए अधिकांश फलादेश फलीभूत नहीं होते, उनकी इस बात पर आपत्ति नहीं की जा सकती। लेकिन अनेक बार तो चिकित्सा शास्त्री भी किसी रोग का समुचित निदान करने में पूरी तरह विफल हो जाते हैं।

इसका अर्थ यह नहीं है कि चिकित्सा शास्त्र को हम विज्ञान की परिधि से निकालकर उसका उपहास करना शुरू कर दें? ज्योतिष शास्त्र के साथ आज ऐसा ही हो रहा है। हाँ, यह अवश्य है कि ज्योतिष विज्ञान की सफलता ज्योतिषी की योग्यता, उसकी दूरदर्शिता और कार्यक्षमता पर ही निर्भर है, लेकिन यह बात तो प्रायः हर विज्ञान के साथ लागू होती है।

ज्योतिषशास्त्र मानव के साथ-साथ देश और राष्ट्र के लिए भी एक अमूल्य वैज्ञानिक निधि है और उसकी सहायता से न केवल भविष्य की रूपरेखा से अवगत हुआ जा सकता है बल्कि संभावित विघ्न-बाधाओं से बचने की चेष्टा भी की जा सकती है। वर्तमान कालखंड के उस संघर्षपूर्ण वातावरण में जिसमें आदमी सत्य, अहिंसा और शांति के पावन लक्ष्यों से पूरी तरह भटक चुका है, ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन बहुत आवश्यक है।

ज्योतिष का अध्ययन क्षेत्र में भी इतना विस्तृत, साथ ही आकर्षक और रोचक है कि उसका अध्ययनकर्ता अगर उसमें पूरी तरह रम हो जाए तो किसी अन्य विधा की ओर दृष्टि उठाने का भी उसे समय नहीं मिल पाएगा। ज्योतिष का विज्ञान हमारी समस्त हलचल, समस्त गतिविधियों की आधारशिला है, और उसकी संभावनाओं की कोई सीमा नहीं।

ज्योतिष शास्त्र और राशियाँ

जिस प्रकार भूमि को अनेक भागों में विभक्त कर भूगोल की शिक्षा सुगमता से दी जाती है, उसी प्रकार खगोल को भी 360 कल्पित अंशों में विभाजित किया गया है। राशि वास्तव में आकाशस्थ ग्रहों की नक्षत्रावली की एक विशेष आकृति व उपस्थिति का नाम है। आकाश में न तो कोई बिच्छू है और न कोई शेर, पहचानने की सुविधा के लिए तारा समूहों की आकृति की समता को ध्यान में रखकर महर्षियों ने परिचित वस्तुओं के आधार पर राशियों का नामकरण किया है। इस राश्यावली को ठीक से पहचानने के लिए समस्त आकाश मण्डल की दूरी को 27 भागों में विभक्त किया गया तथा प्रत्येक भाग का नाम एक-एक नक्षत्र रखा गया।

सूक्ष्मता से समझने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के चार भाग किए गए, जो चरण कहलाते हैं। चन्द्रमा प्रत्येक राशि में तथा दो दिन संचरण करता है। उसके बाद वह अलग राशि में पहुँच जाता है। भारतीय मत से इसी राशि को प्रधानता दी जाती है।

सूर्य राशि किसे कहते हैं ?
वर्तमान समय में राशिफल से संबंधित अधिकांश पुस्तकें पाश्चात्य ज्योतिष के आधार पर सूर्य, राशि को प्रधानता देते हुए प्रकाशित की जाती हैं, जिस प्रकार भारतीय ज्योतिषी चन्द्र राशि को ही जातक की जन्म राशि मानते हैं और उसे महत्व देते हैं, उसी प्रकार पाश्चात्य ज्योतिर्विद जातक की सूर्य राशि को अधिक महत्व देते हैं।

जन्म राशि देखने का तरीका या नाम राशि
ज्योतिष प्रेमियों के साथ दूसरी बड़ी समस्या यह है कि वे जन्म राशि देखें या नाम राशि? वैसे व्यक्ति विशेष के जीवन का पूरा विवरण एवं जानकारी तो उसकी जन्मपत्रिका के द्वारा ही संभव है परन्तु मोटे तौर पर जन्मकालीन चन्द्रमा का पता लगाने पर ही किसी व्यक्ति के चरित्र, गुण व गतिविधि के बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है।

कई व्यक्ति इस चक्कर में रहते हैं कि राशि कौन-सी प्रधान मानें जन्म राशि अथवा चालू नाम राशि। इसके लिऐ ज्योतिष शास्त्र निर्देश देता है कि विद्यारम्भ, विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि मूल संस्कारित कार्यों में जन्म राशि की प्रधानता होती है। नाम राशि पर विचार न करें परन्तु घर को आने-जाने पर, गांव प्रस्थान व यात्रादि पर, लाटा-खेत-फर्म, फैक्ट्री इत्यादि के उद्घाटन व समापन पर तथा यज्ञ, पार्टी व व्यापार कर्मों तथा दैनिक कार्यों में नाम राशि प्रधान है जन्म राशि नहीं।

राशियों का स्वरूप व आकृति
मेष : मेष राशि की आकृति मेंढे के समान है।
वृषभ : वृषभ राशि बैल की आकृति वाली है।
मिथुन : मिथुन राशि स्त्री-पुरुष का जोड़ा है।
कर्क : कर्क राशि केकड़े के समान है।
सिंह : सिंह राशि मृगराज शेर के समान आकृति लिए हुए है।
कन्या : नौका में बैठी हुई स्त्री हाथ में धान व अग्नि लिए हुए है।
तुला : तराजू हाथ में लिए हुए पुरुष के तुल्य है।
वृश्चिक : वृश्चिक राशि आकाश में डंकदार बिच्छू की आकृति बनाती है।
धनु : धनुष हाथ में लिए हुए, कमर ऊपर मनुष्य एवं कमर के नीचे जंघा घोड़े के समान है।
मकर : हिरण से सदृश मुख वाले मगरमच्छ के समान है।
कुंभ : कन्धे पर कलश लिए हुए पुरुष के सदृश्य है।
मीन : दो मछलियों के एवं मुख पर दूसरी पूंछ लगाकर गोल बनी हुई है।

ज्योतिष शास्त्र - एक परिचय

ज्योतिष शास्त्र एक बहुत ही वृहद ज्ञान है। इसे सीखना आसान नहीं है। ज्योतिष शास्त्र को सीखने से पहले इस शास्त्र को समझना आवश्यक है। सामान्य भाषा में कहें तो ज्योतिष माने वह विद्या या शास्त्र जिसके द्वारा आकाश स्थित ग्रहों, नक्षत्रों आदि की गति, परिमाप, दूरी इत्या‍दि का निश्चय किया जाता है।

ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति 'ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्‌' की गई है। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ज्योतिष भाग्य या किस्मत बताने का कोई खेल-तमाशा नहीं है। यह विशुद्ध रूप से एक विज्ञान है। ज्योतिष शास्त्र वेद का अंग है। ज्योतिष शब्द की उत्पत्ति 'द्युत दीप्तों' धातु से हुई है। इसका अर्थ, अग्नि, प्रकाश व नक्षत्र होता है। शब्द कल्पद्रुम के अनुसार ज्योतिर्मय सूर्यादि ग्रहों की गति, ग्रहण इत्यादि को लेकर लिखे गए वेदांग शास्त्र का नाम ही ज्योतिष है।

छः प्रकार के वेदांगों में ज्योतिष मयूर की शिखा व नाग की मणि के समान सर्वोपरी महत्व को धारण करते हुए मूर्धन्य स्थान को प्राप्त होता है। सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में लिखा है कि ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन अनुष्ठेय यज्ञ के उचित काल का संशोधन करना है। यदि ज्योतिष न हो तो मुहूर्त, तिथि, नक्षत्र, ऋतु, अयन आदि सब विषय उलट-पुलट हो जाएँ।

ज्योतिष शास्त्र के द्वारा मनुष्य आकाशीय-चमत्कारों से परिचित होता है। फलतः वह जनसाधारण को सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र-सूर्य ग्रहण, ग्रहों की स्थिति, ग्रहों की युति, ग्रह युद्ध, चन्द्र श्रृगान्नति, ऋतु परिवर्तन, अयन एवं मौसम के बारे में सही-सही व महत्वपूर्ण जानकारी दे सकता है। इसलिए ज्योतिष विद्या का बड़ा महत्व है।

महर्षि वशिष्ठ का कहना है कि प्रत्येक ब्राह्मण को निष्कारण पुण्यदायी इस रहस्यमय विद्या का भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए क्योंकि इसके ज्ञान से धर्म-अर्थ-मोक्ष और अग्रगण्य यश की प्राप्ति होती है। एक अन्य ऋषि के अनुसार ज्योतिष के दुर्गम्य भाग्यचक्र को पहचान पाना बहुत कठिन है परन्तु जो जान लेते हैं, वे इस लोक से सुख-सम्पन्नता व प्रसिद्धि को प्राप्त करते हैं तथा मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग-लोक को शोभित करते हैं।

ज्योतिष वास्तव में संभावनाओं का शास्त्र है। सारावली के अनुसार इस शास्त्र का सही ज्ञान मनुष्य के धन अर्जित करने में बड़ा सहायक होता है क्योंकि ज्योतिष जब शुभ समय बताता है तो किसी भी कार्य में हाथ डालने पर सफलता की प्राप्ति होती है इसके विपरीत स्थिति होने पर व्यक्ति उस कार्य में हाथ नहीं डालता।

ज्योतिष ऐसा दिलचस्प विज्ञान है, जो जीवन की अनजान राहों में मित्रों और शुभचिन्तकों की श्रृंखला खड़ी कर देता है। इतना ही नहीं इसके अध्ययन से व्यक्ति को धन, यश व प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। इस शास्त्र के अध्ययन से शूद्र व्यक्ति भी परम पूजनीय पद को प्राप्त कर जाता है। वृहदसंहिता में वराहमिहिर ने तो यहां तक कहा है कि यदि व्यक्ति अपवित्र, शूद्र या मलेच्छ हो अथवा यवन भी हो, तो इस शास्त्र के विधिवत अध्ययन से ऋषि के समान पूज्य, आदर व श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

ज्योतिष सूचना व संभावनाओं का शास्त्र है। ज्योतिष गणना के अनुसार अष्टमी व पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार-भाटे का समय निश्चित किया जाता है। वैज्ञानिक चन्द्र तिथियों व नक्षत्रों का प्रयोग अब कृषि में करने लगे हैं। ज्योतिष शास्त्र भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं व कठिनाइयों के प्रति मनुष्य को सावधान कर देता है। रोग निदान में भी ज्योतिष का बड़ा योगदान है।

दैनिक जीवन में हम देखते हैं कि जहां बड़े-बड़े चिकित्सक असफल हो जाते हैं, डॉक्टर थककर बीमारी व मरीज से निराश हो जाते हैं वही मन्त्र-आशीर्वाद, प्रार्थनाएँ, टोटके व अनुष्ठान काम कर जाते हैं।

नौ ग्रह सत्ताईस नक्षत्र

पूर्व में हमने बारह भावों से किन-किन बातों के बारे में जाना जाता है, बताया था। अब हम यहाँ पर नौ ग्रहों और सत्ताईस नक्षत्रों के बारे में बताएँगे।

नौ ग्रह क्रमशः सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु व केतु को कहते हैं। वैसे आजकल नेप्चून, हर्षल व प्लूटो को भी ग्रहों में मान्यता दी गई है लेकिन हमारे पूर्व मनीषियों ने इनको ज्यादा महत्व नहीं दिया है। इन नौ ही ग्रहों में से राहु, केतु को छोड़कर शेष 7 ग्रह आकाश मंडल में दिखाई देते हैं व राहु-केतु सिर्फ छाया ग्रह ही होते हैं।

नेप्चून, हर्षल, प्लूटो का प्रभाव नगण्य रहता है बाकि सभी ग्रह प्रभावी होते हैं।

सत्ताईस नक्षत्र भारतीय ज्योतिष में माने गए हैं, कहीं अभिजीत को लेकर 28 मानते हैं, इस प्रकार प्राचीनकाल से ही 27 और 28 नक्षत्रों को माना गया है।

सत्ताईस नक्षत्र इस प्रकार हैं :
1) अश्विनी, 2) भरणी, 3) कृतिका, 4) रोहिणी, 5) मृगशिरा, 6) आर्द्रा, 7) पुनर्वसु, 8) पुष्य, 9) आश्लेषा, 10) मघा, 11) पूर्वा फाल्गुनी, 12) उत्तरा फाल्गुनी, 13) हस्त, 14) चित्रा, 15) स्वाति, 16) विशाखा, 17) अनुराधा, 18) ज्येष्ठा, 19) मूल, 20) पूर्वाषाढ़ा, 21) उत्तराषाढ़ा, 22) श्रवण, 23) घनिष्ठा, 24) शतभिषा, 25) पूर्वा भाद्रपद, 26) उत्तरा भाद्रपद, 27) रेवती।

उपरोक्त 27 नक्षत्र हुए। अभिजीत नक्षत्र का क्षेत्र इन्हीं के मध्य उत्तराषाढ़ा के चतुर्थ चरण और श्रवण के आरंभ के 1/15 भाग को मिलाकर है। इसका कुल क्षेत्र 4 अंश 13 कला 20 विकला है।

प्रत्येक नक्षत्र का क्षेत्र 13 अंश 20 कला है। इस प्रकार 27 नक्षत्र में 360 अंश पूरे होते हैं। 1 अंश बराबर 1 घंटा, 1 कला बराबर 1 मिनट और 1 विकला बराबर 1 सेकंड होते हैं। इस प्रकार एक नक्षत्र 13 घंटे 20 मिनट का होता है।

ज्योतिषी और उनके लक्षण

ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को ज्योतिषी, ज्योतिर्विद, कालज्ञ, त्रिकालदर्शी, सर्वज्ञ आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है। सांवत्सर, गुणक देवज्ञ, ज्योतिषिक, ज्योतिषी, मोहूर्तिक, सांवत्सरिक आदि शब्द भी ज्योतिषी के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं।

ज्योतिष व ज्योतिषी के संबंध में सभी परिभाषाओं का सुन्दर समाहार हमें वराहमिहिर की वृहद संहिता से प्राप्त होता है। वराहमिहिर लिखते हैं ग्रह गणित (सिद्धांत) विभाग में स्थित पौलिश, रोमक, वरिष्ट सौर, पितामह इन पाँच सिद्धांतों में प्रतिपादित युग, वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र, प्रहर, मुहूर्त, घटी, पल, प्राण, त्रुटि आदि के क्षेत्र का सौर, सावन, नक्षत्र, चन्द्र इन चारों मानों को तथा अधिक मास, क्षय मास, इनके उत्पत्ति कारणों के सूर्य आदि ग्रहों को शीघ्र तुन्द दक्षिणा उत्तर, नीच और उच्च गतियों के कारणों को सूर्य-चन्द्र ग्रहण में स्पर्श, मोक्ष इनके दिग्ज्ञान, स्थिति, विभेद वर्ग को बताने में दक्ष, पृथ्वी, नक्षत्रों के भ्रमण, संस्थान अक्षांश, चरखण्ड, राश्योदय, छाया, नाड़ी, करण आदि को जानने वाला, ज्योतिष विषयक समस्त प्रकार की शंकाओं व प्रश्न भेदों को जानने वाला तथा परीक्षा की काल की कसौटी में, आग और शरण से परीक्षित शुद्ध स्वर्ण की तरह स्वच्छ, साररूप वाणी बोलने वाला, निश्चयात्मक ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति ज्योतिषी कहलाता है। इस प्रकार से शास्त्र ज्ञान से सम्पन्न ज्योतिषी को होरा शास्त्र में भी अच्छी तरह से निष्णात होना चाहिए, तभी गुण सम्पन्न ज्योतिषी की वाणी कभी भी खाली नहीं जाती।

ज्योतिषी के लक्षण
एक ज्योतिषी के लक्षण बताते हुए आचार्य वराहमिहिर कहते हैं कि ज्योतिषी को देखने में प्रिय, वाणी में संयत, सत्यवादी, व्यवहार में विनम्र होना चाहिए। इसके अतिरिक्त वह दुर्व्यसनों से दूर, पवित्र अन्तःकरण वाला, चतुर, सभा में आत्मविश्वास के साथ बोलने वाला, प्रतिभाशाली, देशकाल व परिस्थिति को जानने वाला, निर्मल हृदय वाला, ग्रह शान्ति के उपायों को जानने वाला, मन्त्रपाठ में दक्ष, पौष्टिक कर्म को जानने वाला, अभिचार मोहन विद्या को जानने वाला, देवपूजन, व्रत-उपवासों को निरंतर, प्राकृतिक शुभाशुभों के संकेतों को समझाने वाला, ग्रहों की गणित, सिद्धांत संहिता व होरा तीनों में निपुण ग्रंथी के अर्थ को जानने वाला व मृदुभाषी होना चाहिए।

सामुद्रिक शास्त्र में ज्योतिषी के लिए हिदायत दी गई है कि सूर्योदय के पहले, सूर्यास्त के बाद, मार्ग में चलते हुए, जहाँ हँसी-मनोविनोद होता हो, उस स्थान में एवं अज्ञानी लोगों की सभा में भविष्यवाणी न करें।

ज्योतिषी को अधिकतम अपने स्थान पर बैठकर जिज्ञासु व्यक्ति की दक्षिणा का फल, पुष्प व पुण्य भाव को प्राप्त करने के पश्चात अपने ईष्ट को ध्यान करके ही हस्तरेखाओं एवं कुण्डलियों पर फलादेश करना चाहिए क्योंकि ईश्वर, ज्योतिषी व राजा के पास खाली हाथ आया व्यक्ति खाली ही जाता है।

जन्म पत्रिका क्या कहती है?

जन्म पत्रिका बनाना सीखने से पहले हमें जान लेना होगा कि जन्म पत्रिका क्या कहती है व इससे क्या जाना जा सकता है? जन्म पत्रिका वह है, जिसमें जन्म के समय किन ग्रहों की स्थिति किस प्रकार थी व कौन-सी लग्न जन्म के समय थी। जन्म पत्रिका में बारह खाने होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

उपरोक्त कुंडली में प्रथम भाव लिया है, उसमें जो भी नंबर हो उसे जन्म लग्न कहते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि उस भाव में 1 नंबर है तो मेष लग्न होगा, उसी प्रकार 2 नंबर को वृषभ, 3 नंबर को मिथुन, 4 को कर्क, 5 को सिंह, 6 को कन्या, 7 को तुला, 8 को वृश्चिक, 9 को धनु, 10 को मकर, 11 को कुंभ व 12 नंबर को मीन लग्न कहेंगे। इसी प्रकार पहले घर को प्रथम भाव कहा जाएगा, इसे लग्न भी कहते हैं।

जन्म पत्रिका के अलग-अलग भावों से हमें अलग-अलग जानकारी मिलती है, इसे हम निम्न प्रकार जानेंगे-

प्रथम भाव से हमें शारीरिक आकृति, स्वभाव, वर्ण चिन्ह, व्यक्तित्व, चरित्र, मुख, गुण व अवगुण, प्रारंभिक जीवन विचार, यश, सुख-दुख, नेतृत्व शक्ति, व्यक्तित्व, मुख का ऊपरी भाग, जीवन के संबंध में जानकारी मिलती है। इस भाव से जनस्वास्थ्य, मंत्रिमंडल की परिस्थितियों पर भी विचार जाना जा सकता है।

द्वितीय भाव से हमें कुटुंब के लोगों के बारे में, वाणी विचार, धन की बचत, सौभाग्य, लाभ-हानि, आभूषण, दृष्टि, दाहिनी आँख, स्मरण शक्ति, नाक, ठुड्डी, दाँत, स्त्री की मृत्यु, कला, सुख, गला, कान, मृत्यु का कारण एवं राष्ट्रीय विचार में राजस्व, जनसाधारण की आर्थिक दशा, आयात एवं वाणिज्य-व्यवसाय आदि के बारे में जाना जा सकता है। इस भाव से कैद यानी राजदंड भी देखा जाता है।

तृतीय भाव से भाई, पराक्रम, साहस, मित्रों से संबंध, साझेदारी, संचार-माध्यम, स्वर, संगीत, लेखन कार्य, वक्ष स्थल, फेफड़े, भुजाएँ, बंधु-बांधव। राष्ट्रीय ज्योतिष के लिए रेल, वायुयान, पत्र-पत्रिकाएँ, पत्र व्यवहार, निकटतम देशों की हलचल आदि के बारे में जाना जाता है।

चतुर्थ भाव में माता, स्वयं का मकान, पारिवारिक स्थिति, भूमि, वाहन सुख, पैतृक संपत्ति, मातृभूमि, जनता से संबंधित कार्य, कुर्सी, कुआँ, दूध, तालाब, गुप्त कोष, उदर, छाती, राष्ट्रीय ज्योतिष हेतु शिक्षण संस्थाएँ, कॉलेज, स्कूल, कृषि, जमीन, सर्वसाधारण की प्रसन्नता एवं जनता से संबंधित कार्य एवं स्थानीय राजनीति, जनता के बीच पहचान- यह सब देखा जाता है।

पंचम भाव में विद्या, विवेक, लेखन, मनोरंजन, संतान, मंत्र-तंत्र, प्रेम, सट्टा, लॉटरी, अकस्मात धन लाभ, पूर्वजन्म, गर्भाशय, मूत्राशय, पीठ, प्रशासकीय क्षमता, आय भी जानी जाती है क्योंकि यहाँ से कोई भी ग्रह सप्तम दृष्टि से आय भाव को देखता है।

षष्ठ भाव इस भाव से शत्रु, रोग, ऋण, विघ्न-बाधा, भोजन, चाचा-चाची, अपयश, चोट, घाव, विश्वासघात, असफलता, पालतू जानवर, नौकर, वाद-विवाद, कोर्ट से संबंधित कार्य, आँत, पेट, सीमा विवाद, आक्रमण, जल-थल सैन्य के बारे में जाना जा सकता है।

सप्तम भाव स्त्री से संबंधित, विवाह, सेक्स, पति-पत्नी, वाणिज्य, क्रय-विक्रय, व्यवहार, साझेदारी, मूत्राशय, सार्वजनिक, गुप्त रोग, राष्ट्रीय नैतिकता, वैदेशिक संबंध, युद्ध का विचार भी किया जाता है। इसे मारक भाव भी कहते हैं।

अष्टम भाव से मृत्यु, आयु, मृत्यु का कारण, स्त्री धन, गुप्त धन, उत्तराधिकारी, स्वयं द्वारा अर्जित मकान, जातक की स्थिति, वियोग, दुर्घटना, सजा, लांछन आदि इस भाव से विचार किया जाता है।

नवम भाव से धर्म, भाग्य, तीर्थयात्रा, संतान का भाग्य, साला-साली, आध्यात्मिक स्थिति, वैराग्य, आयात-निर्यात, यश, ख्याति, सार्वजनिक जीवन, भाग्योदय, पुनर्जन्म, मंदिर-धर्मशाला आदि का निर्माण कराना, योजना, विकास कार्य, न्यायालय से संबंधित कार्य जाने जाते हैं।

दशम भाव से पिता, राज्य, व्यापार, नौकरी, प्रशासनिक स्तर, मान-सम्मान, सफलता, सार्वजनिक जीवन, घुटने, संसद, विदेश व्यापार, आयात-निर्यात, विद्रोह आदि के बारे में जाना जाता है। इस भाव से पदोन्नति, उत्तरदायित्व, स्थायित्व, उच्च पद, राजनीतिक संबंध, जाँघें एवं शासकीय सम्मान आदि के बारे में जाना जाता है।

एकादश भाव से मित्र, समाज, आकांक्षाएँ, इच्छापूर्ति, आय, व्यवसाय में उन्नति, ज्येष्ठ भाई, रोग से मुक्ति, टखना, द्वितीय पत्नी, कान, वाणिज्य-व्यापार, परराष्ट्रों से लाभ, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि जाना जाता है।

द्वादश भाव से व्यय, हानि, दंड, गुप्त शत्रु, विदेश यात्रा, त्याग, असफलता, नेत्र पीड़ा, षड्यंत्र, कुटुंब में तनाव, दुर्भाग्य, जेल, अस्पताल में भर्ती होना, बदनामी, भोग-विलास, बायाँ कान, बाईं आँख, ऋण आदि के बारे में जाना जाता है।

ज्योतिष शास्त्र के भेद

सिद्धांत ज्योतिष
संहिता ज्योतिष
होरा शास्त्र

इन तीन स्कन्धों वाला उत्तम ज्योतिष शास्त्र ही वेदों का पवित्र नेत्र कहा गया है।

सिद्धांत ज्योतिष
काल गणना की एक विशेष सूक्ष्म माप त्रुटि से लेकर प्रलय के अन्त तक कालों का आकलन, उनका मान, उनका भेद, उनका चार (चलन), आकाश में उनकी गति आदि क्रम से द्विविध प्रकार की गणित से उनके प्रश्न तथा उत्तर जिसमें निहित है। पृथ्वी और आकाश के मध्य स्थित ग्रहों का जिसमें कथन और उनको जानने, वैध करने का यन्त्र आदि वस्तुओं का जिसमें गणित निहित हो, उस प्रबन्ध को विद्वानों ने सिद्धान्त रूप से अभिहित किया है।

सिद्धान्त ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थों के नाम
सिद्धान्त ग्रन्थों में सूर्य सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त, ब्रह्म सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, पौलिश सिद्धान्त, ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त, पितामह सिद्धान्त आदि प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ हैं।

सिद्धान्त ज्योतिष के प्रमुख आचार्यों के नाम
जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को चलाया ऐसे ज्योतिष शास्त्र के 18 प्रवर्तक आचार्य माने जाते हैं। ये हैं- ब्रह्मा, आचार्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पौलस्य, रोमक, मरीचि, अंगिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्यवन, यवन, गर्ग, कश्यप और पाराशर।

संहिता ज्योतिष
ग्रहों की चाल, वर्ष के लक्षण, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, कण, मुहूर्त, ग्रह-गोचर भ्रमण, चन्द्र ताराबल, सभी प्रकार के लग्नों का निदान, कर्णच्छेद, यज्ञोपवीत, विवाह इत्यादि संस्कारों का निर्णय तथा पशु-पक्षी चेष्टा ज्ञान, शकुन विचार, रत्न विद्या, अंग विद्या, आकार लक्षण, पक्षी व मनुष्य की असामान्य चेष्टाओं का चिन्तन संहिता विभाग का विषय है।

संहिता ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थों के नाम
संहिता ग्रन्थों में वृहत्संहिता, कालक संहिता, नारद संहिता, गर्ग संहिता, भृगु संहिता, अरुण संहिता, रावण संहिता, लिंग संहिता, वाराही संहिता, मुहूर्त चिन्तामण इत्यादि प्रमुख संहिता ग्रन्थ हैं।

संहिता ज्योतिष के प्रमुख आचार्यों के नाम
मुहूर्त गणपति, विवाह मार्तण्ड, वर्ष प्रबोध, शीघ्रबोध, गंगाचार्य, नारद, महर्षि भृगु, रावण, वराहमिहिराचार्य सत्य-संहिताकार रहे हैं।

होरा शास्त्र
राशि, होरा, द्रेष्काण, नवमांश, चलित, द्वादशभाव, षोडश वर्ग, ग्रहों के दिग्बल, काल बल, चेष्टा बल, ग्रहों के धातु, द्रव्य, कारकत्व, योगायोग, अष्टवर्ग, दृष्टिबल, आयु योग, विवाह योग, नाम संयोग, अनिष्ट योग, स्त्रियों के जन्मफल, उनकी मृत्यु नष्टगर्भ का लक्षण प्रश्न एवं ज्योतिष के फलित विषय पर जहाँ विकसित नियम स्थापित किए जाते हैं, वह होरा शास्त्र कहलाता है।

होरा शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थों के नाम
सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहद पाराशर होरा शास्त्र मानसागरी, सारावली, वृहत्जातक, जातकाभरण, चमत्कार चिन्तामणि, ज्योतिष कल्पद्रुम, जातकालंकार, जातकतत्व होरा शास्त्र इत्यादि हैं।

होरा शास्त्र के प्रमुख आचार्यों के नाम
पुराने आचार्यों में पाराशर, मानसागर, कल्याणवर्मा, दुष्टिराज, रामदैवज्ञ, गणेश, नीपति आदि हैं।

18 अप्रैल 2010

उन्हें आगे, पीछे और चारों ओर से प्रणाम

प्रणाम करने के भी कई तरीके या प्रकार हैं। हाथ जोड़कर, झुककर, पैर छूकर या साष्टांग दण्डवत होकर। प्रणाम करने की यह क्रिया, सम्मान करने और पाने वाले पर निर्भर करती है। किसी के प्रति सम्मान व्यक्त करने का कार्य हृदय से होता है न कि दिमाग से। जिसके प्रति हमारे हृदय में सच्चा सम्मान होता है तो प्रणाम करने की क्रिया अनायास ही हो जाती है। यदि प्रणाम करने से पूर्व हमारा दिमाग सक्रिय हो तो समझना चाहिये कि सम्मान सच्चा नहीं महज दिखावा है।

माता-पिता और गुरु के प्रति हमारे मन में ऐसा ही सच्चा प्रेम होता है। इनमें भी जो प्रेम गुरु के प्रति होता है वह अधिक आदर्श माना गया है। क्योंकि गुरु और शिष्य का रिश्ता ही सर्वाधिक लम्बा और स्थाई होता है। माता-पिता, पति-पत्नी तथा संतान आदि के प्रति जो प्रेम संबंध होता है, वह सांसारिकता और मोह से जन्मा होता है। जबकि गुरु के प्रति जो प्रेम संबंध होता है वह आध्यात्मिक और निस्वार्थ होता है। एक मात्र गुरु ही है जो हमारे दु:ख को स्थाई रूप से दूर कर सकता है। कहा जाता है कि इंसान अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है। यह बात सांसारिक रिश्तों पर ही लागू होती है क्योंकि गुरु मरने के बाद भी जन्मों तक साथ निभाने की क्षमता रखता है। इसीलिये सच्चे गुरु और माता-पिता को किया गया प्रणाम ही सार्थक एवं फलदाई होता है।

भोग करो मगर खुली आंख से

वैसे तो भोग-विलास को धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में त्याज्य यानि कि त्याग देने योग्य कार्य माना गया है। किन्तु यह नियम या मर्यादा उस साधक के लिये है जो साधना के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति एवं प्रगति कर चुका हो।किसी नए एवं कच्चे साधक को यदि पूर्ण त्याग या पूर्ण वैराग्य की सीख दी जाए तो उसके लिये इसका पालन करना प्राय: कठिन ही होता है। यदि हिम्मत करके कोई साधक अपनी समस्त वृत्तियों पर एक ही साथ पूर्ण बंदिश लगा भी देता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि मौका मिलते ही नियंत्रण का बांध एक ही झटके में चरमरा के गिर जाता है।

अत: बार-बार की ठोकर खाने से अच्छा है कि हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखा जाए। मन को किसी कार्य से एक साथ रोकने की बजाय अनुभव से सीखने दिया जाए। अध्यात्म के तत्व ज्ञान में भी यही बात कुछ इस तरह से कही गई है - ' तेन त्यक्तेन भूंजीथा Ó

कहने का मतलब यह है कि भोग करो मगर त्याग के साथ। त्याग के साथ भोग करने का मतलब है खुली आंखों से भोग करना। यानि जब भी किसी इन्द्रिय सुख का भोग करो उसका पूरे ध्यान से निरीक्षण भी करो। पूरे साक्षी भाव से किया गया निरीक्षण आपको उस दिव्य ज्ञान से रूबरू करवा देगा जिसे पाकर आप समझ जाएंगे कि हर इंद्रिय सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख ही है। जबकि हर त्याग का परिणाम अन्तत: सुखद ही होता है।

स्वर्ग जाएं या नर्क मरजी आपकी

कर्म को समस्त धर्मों में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। हिंदू धर्म एवं दर्शन में तो कर्म को ईश्वर प्राप्ति का एक प्रामाणिक मार्ग कहा गया है। बोलचाल की भाषा में कर्म शब्द अत्यंत सहज एवं सामान्य प्रतीत होता है किंतु कर्म का मर्म (गहराई) बहुत गूढ़ एवं गंभीर है। इंसान अपने ही कर्मों से स्वर्ग या नर्क की रचना करता है।कर्म ही मनुष्य को प्रतिष्ठित करता है और कर्म से ही मनुष्य पतन के गड्ढे में गिरता है। कर्म से ही मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है और कर्म से ही उसे नर्क की प्राप्ति होती है। स्वर्ग का अर्थ उस वातावरण और उन परिस्थितियों से है जो मनुष्य को दिव्य शांति, दिव्य आनंद एवं दिव्य जीवन की अनुभूति कराते हैं। दूसरी तरफ नरक उस वातावरण को कहते हैं जहां घोर अशांति, दु:ख, क्लेश, भय, शोषण, आदि हिंसा दुगुर्णों का निवास होता है। धर्म अध्यात्म में कर्म को योग की श्रेणी में रखा गया है। तथा कर्मयोग कहकर कर्म की महिमा व्यक्त की गई हैं। बाहर से देखने में कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । एक मोची द्वारा जूते बनाना और कलेक्टर द्वारा प्रशासनिक कार्य करना बिल्कुल एक समान है। यहां तक कि उस मोची का काम उस भ्रष्ट कलेक्टर से अधिक श्रेष्ठ है जो अपना काम पूरी ईमानदारी और मेहनत से करता है।

मानसिक शांति चाहिए, क्रोध को दूर भगाइए

कोई मन की बात पूरी नहीं होती या कोई हमारी बात नहीं मानता तब क्या होता है? आवेश, क्रोध, गुस्सा स्वत: हम पर हावी हो जाता है और हम अपना विवेक खो बैठते हैं। क्रोध वैसे तो एक सामान्य मनोभाव है परंतु अधिकांशत: इसके परिणाम काफी बुरे ही होते हैं। क्रोध हमारे दिमाग की सोचने और समझने की क्षमता का हरण कर लेता है और वो कर बैठते हैं जिसके लिए बाद में पछताना पड़ता है।अच्छा यही है कि हम अपने क्रोध पर नियंत्रण रखें वैसे यह अत्यंत मुश्किल कार्य हैं हर किसी के बस में नहीं होता क्रोध पर काबू पाना। और जो अपने क्रोध पर काबू पा लेता है उसकी जीवन नितनए आयाम तक पहुंचता है, मान-सम्मान, इज्जत, खुशी और मानसिक शांति सहज उसे प्राप्त हो जाती है।श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्रोध के संबंध में कहा था कि क्रोध अविवेक और मोह का जन्मदाता है। मोह और अविवेक से हमारी सोचने-समझने की क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। परिणामस्वरूप हमें मान-सम्मान और यश की हानि उठानी पड़ती है। अत: युद्ध में विजय के लिए क्रोध पर विजय करना अति महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण की यह बात आज हमारे जीवन पर भी सटिक बैठती है। हमारी जिंदगी में क्रोध इतनी सरलता से हम पर हावी हो जाता है कि हम समझ भी नहीं पाते और गड़बड़ कर बैठते हैं।

कैसे करे क्रोध पर नियंत्रण
- क्रोध आने पर अपना ध्यान कहीं ओर लगाने का प्रयत्न करें।
- ठंडा पानी पीएं या जो ठंडी चीज उपलब्ध हो खाएं।
- कुछ देर लंबी-लंबी सांसे लें।
- कुछ देर के लिए मौन धारण कर लें।
- ऐसे समय किसी भी प्रकार की बहस से बचें।

क्रोध पर नियंत्रण करें फिर देखिए जिंदगी कितनी सरल और शांति देने वाली हो जाएगी। विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि क्रोध हमारे शरीर के लिए भी हानिकारक है। अत: क्रोध से बचें।

दुःख से घबराना नहीं, सामना करों

दुख एक आग की तरह होता है जो व्यक्ति को जलाता है, तपाता है। सामान्यत: दुखी व्यक्ति के मन में यही ख्याल होता है कि भगवान भी उसका दुश्मन हो गया है परंतु ऐसा नहीं है।

जिस तरह सोना आग में तपने के पहले भी सोना ही होता है परंतु उसका मूल्य और उसकी सुंदरता किसी को लुभाने वाली नहीं होती। वही सोना आग में तपने के बाद चमकीला और बहुमूल्य हो जाता है। उसी तरह यदि कोई दुखों से घिरा हुआ है तो इसका मतलब यही है भगवान उसे दुखों की आग में तपा कर सोने के समान चमकीला और बहुमूल्य बनाना चाहता है।
दुख को एक और उदाहरण से समझा जा सकता है हार्स रेस में जॉकी घोड़े को पीटता है, मारता है ताकि वह तेज दौड़े। घोड़ा के मन में भी यही होता है कि ये दर्द, ये मार उसे क्यूं झेलना पड़ रही है। परंतु इसी दर्द की वजह वह रेस जीत जाता है। उसी तरह हमारे दुख-दर्द के समय यही सोचना चाहिए कि भगवान भी चाहता है यह जीवन की रेस जीत जाए।

अत: दुख से घबराना नहीं चाहिए और उसका हंसते हुए सामना करने से ही दुख से निपटा जा सकता है।

अतिथि तुम कब आओगे....?

आज जब सभी के पास समय अभाव है ऐसे में किसी के घर कोई बिना बुलाए, अनअपेक्षित, बिना किसी सूचना के अतिथि या मेहमान या गेस्ट आ जाए तो बहुत ही कम लोग होंगे जो उनके पर हर्षित होते हैं। जबकि प्राचीन काल से अतिथि को देवता तुल्य माना गया है।

सही मायने में अतिथि वही है तो बिना बुलाए, बिना किसी पूर्व सूचना के ही आपके यहां आए। ऐसे अतिथि ही देवताओं की श्रेणी में माने गए हैं। जिनका उचित और यथासंभव आदर, सत्कार वेद-पुराण में अनिवार्य बताया गया है। ऐसे अतिथि के सत्कार से जो पुण्य मिलता है उससे भगवान अतिप्रसन्न होते हैं।

अतिथि कैसा भी हो, अमीर-गरीब हो, कोई भी जाति-धर्म का हो, कहीं से भी आया हो उसका स्वागत करना ही चाहिए। अतिथि का महत्व श्रीकृष्ण के जीवन की उस घटना से समझा जा सकता है जब सुदामा श्रीकृष्ण के यहां पहुंचे थे। उस समय सुदामा की हालात बहुत ही दीन थी, उनके कपड़े फटे हुए थे, भूख-प्यास से बेहाल थे। ऐसे में जब श्रीकृष्ण को सुदामा के आगमन की सूचना मिली तो वे तुरंत उनका स्वागत करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। साथ ही श्रीकृष्ण स्वयं उनके पैर धोते है और उनका भव्य स्वागत करते हैं। श्रीकृष्ण सुदामा को उचित समय और अपनत्व प्रदान करते हैं।

अतिथि सत्कार के संबंध में एक और बात विचार करने योग्य है कि जो व्यवहार हम स्वयं के लिए चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। जब हम किसी के यहां अतिथि बनकर जाए तो हम जैसा स्वागत सत्कार स्वयं के लिए चाहते हैं वहीं हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। साथ ही आने वाले अतिथि को यथा योग्य सुविधा और समय भी देना चाहिए। उसके आने का प्रयोजन पूछकर जब तक वह संतुष्ट ना हो जाए तब तक अतिथि सत्कार का धर्म अधुरा ही है।

17 अप्रैल 2010

प्रार्थना में होती है, बड़ी शक्ति

कहते हैं प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, इससे व्यक्ति अपने उन कार्यों को भी सिद्ध कर लेता है, जो उनको असंभव दिखाई देते हैं। कुछ यही मानना है आज की युवतियों का। जो पढ़ाई-लिखाई में कई व्यस्तताओं के बावजूद भी रोज शाम को मंदिरों में दीयाबत्ती करने के लिए जाती हैं। कोई इसे हिंदू समाज की परंपरा बता रहा है तो कोई प्रतिकूल ग्रहों की शांति के लिए आवश्यक उपाय। मंदिरों में अक्सर सूर्यास्त के बाद गोरज मुहूर्त में पीपल के वृक्ष व भगवान की मूरत के आगे युवतियों को दीप जलाते देखा जा सकता है।

श्रद्धास्वरूप जलाती हैं दीपक
:- ग्रहों की शांति के लिए केले व बरगद के वृक्ष तले दीप जलाने से जीवन में आने वाली समस्त बाधाओं से मुक्ति मिलती है। कुछ यही मानना है बीएससी की छात्रा विमलेश का। वे बताती हैं कि भले ही पूरा दिन कॉलेज में निकल जाता है और शाम को आकर घर का काम भी करना प़ड़ता है, लेकिन इतनी व्यस्तताओं के बावजूद भी अपने जीवन को शांत व सुखमय करने के लिए ईश्वर पर एक श्रद्धा होती है। यही श्रद्धास्वरूप दीपक हम प्रतिदिन शाम को मंदिर में लगाने जाते हैं। और परीक्षा के दिनों में एक हौंसला रहता है।

परमात्मा को पाने का माध्यम :- अपने जीवन में खुशहाली व ग्रहों की शांति के लिए लगातार प्रयास किए जाते हैं कि उनसे बचाव हो। इसके लिए हम कभी पीपल के पे़ड़ के नीचे दीपक जलाते हैं तो कभी साँझ होते ही मंदिर में दियाबत्ती करते हैं। क्योंकि जीवन में सफलता के लिए भगवान का साथ होना जरूरी है। उस परमात्मा का साथ पाने के लिए व उसे मनाने के लिए दीप जलाना एक माध्यम होता है, तभी तो हम दीप जलाकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अर्जी लगाकर ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। यह कहना है इंटीरियर डिजाइनर सरगम का।

शुभ होता है दीपक जलाना :- जब परीक्षा का समय आता है तो याद आता है भगवान, जिससे हम मन्नते माँगते हैं कि भगवान हमें परीक्षा में पास करा दो। पाँच सोमवार आपके दर पर दीपक जलाएँगे। कुछ इसी आस्था के साथ शुरू हो जाता है मंदिर में दीप जलाने का सिलसिला। जो धीरे-धीरे हमारी दैनिक दिनचर्या में शामिल हो जाता है। ग्रहों से होने वाले अनिष्ट के निवारण के लिए घी या तेल का दीपक जलाना शुभ माना जाता है।

परंपरा का निर्वहन :- दीपक जलाने की महत्वता बताते हुए प्रीति ने कहा कि ये परंपरा हिंदू समाज में वर्षों से चली आई है। हम तो बस इसका निर्वहन कर रहे हैं। चूंकि हमारे समाज में स्त्री द्वारा पीपल के पे़ड़ पर या भगवान के मंदिर में दीपक जलाना शुभ माना जाता है, इसलिए प़ढ़ाई-लिखाई में चाहे जितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, हम मंदिर में दीपक जलाना नहीं भूलते। चूंकि यह तो हमारे परिवार द्वारा दिए गए संस्कार व हमारे भारतवर्ष की संस्कृति है।

ग्रहों की शांति के लिए जरूरी :- राशियों पर ग्रहों का प्रभाव चलता ही रहता है, जिसमें शनि को अनिष्टकारी ग्रह माना गया है। इस ग्रह से प्रभावित राशि वाले लोगों का परेशानियों से चोली-दामन का साथ रहता है। अन्य ग्रह भी कभी-कभी अपना प्रभाव राशियों पर दिखाते हैं, लेकिन ग्रहों की शांति व उनमें अनुकूलता बनाए रखने के लिए प्रभावित लोगों को मंदिर या पीपल के वृक्ष के नीचे घी या तेल का दीपक अवश्य जलाना चाहिए।

नागेश्वर हरते हैं संकट और पीडा

भगवान शिव का यह ज्योतिर्लिङ्ग गुजरात राज्य में जामनगर जिले के नागेश्वर गांव में है। इस ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन व पूजन का अपना धार्मिक महत्व है। मंदिर में प्राय: बड़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं। इस ज्योतिर्लिंङ्ग के संबंध में भी मत-मतांतर हैं। कुछ लोगों का मानना है महाराष्ट्र राज्य के हिंगोली जिले में स्थित औढ़ नागनाथ का ज्योतिर्लिंङ्ग सही है। इसके अलावा कुछ लोगों का विश्वास है कि उत्तरांचल राज्य के अल्मोड़ा जिले का जागेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग ही बारह ज्योतिर्लिंङ्ग में से एक है। कथा-नागेश ज्योतिर्लिंङ्ग की भी दो पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं एक कथा के अनुसार प्राचीनकाल में सुप्रिय नाम का एक वैश्य था। वह भगवान शिव का भक्त था। एक बार वह नाव में सवार होकर जा रहा था। तब दारुक नामक राक्षस ने नाव में सवार सभी लोगों को बंदी बनाकर एक कारागार में डाल दिया। सुप्रिय कारागार में भी शिव भक्ति करता रहा। कहते हैं कि शिव प्रसन्न होकर उस कारागार में ही एक ऊंचे स्थान पर ज्योतिर्लिंङ्ग रूप में प्रकट हुए और सुप्रिय को पशुपातास्त्र प्रदान किया। इस अस्त्र से दारुक व अन्य राक्षसों को उसने मार डाला। शिव तभी से यहां नागेश ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में स्थापित हुए। दूसरी कथा यह है कि दारुक नामक एक राक्षसी थी। वह माता पार्वती की सेवा करती थी। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर पार्वती ने उसे अपना निवास स्थान इच्छानुसार कहीं भी ले जाने का वर दिया। इसके बाद वह लोगों को सताने लगी। एक दिन शिव भक्त वैश्व को दारुक ने मारना चाहा। तभी शिव वहां प्रकट हुए और दारुक का अंत कर दिया। कहते हैं कि अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए शिव ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में विराजमान हुए। भगवान का दशम अवतार नागेश्वर नाम से प्रसिद्ध है, जो अपने भक्तजनों को अर्थ और दुष्टजनों को दंड देने के लिए ही प्रकट हुए थे। इस अवतार में शिव ने दारुक दैत्य का वध कर सुप्रिय नाम वाले अपने परम भक्त एक वैश्य की रक्षा की थी।महत्वकहते हैं कि नागेश ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन व पूजन से तीनों लोकों की कामनाएं पूरी होती हैं। इसका उल्लेख शिवपुराण में भी है। दर्शनार्थियों के सभी दु:ख दूर होते हैं और उसे सुख-समृद्धि मिलती है। केवल दर्शन मात्र से ही पापों से छुटकारा मिल जाता है।कब जाएं -जामनगर स्थित ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन व पूजन करने के लिए अक्टूबर से मार्च तक का समय अनुकूल रहता है।पहुंच के संसाधन -नागेश्वर मंदिर तक आप मुख्य रूप से सड़क मार्ग से पहुंच सकते हैं।बस सेवा- मंदिर तक पहुंचने के लिए बस सुविधा आसानी से उपलब्ध है।रेल सेवा- मंदिर से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन द्वारका है जहां से मंदिर की दूरी करीब २० किमी है। बस या कार से आप वहां पहुंच सकते हैं।वायु सेवा- जामनगर तक आपको वायु सेवा मिल सकती है। यहां हवाई अड्डा है जो द्वारका से लगभग १४५ किमी की दूरी पर है। यह मुंबई व अहमदाबाद से जुड़ा है।अन्य दर्शनीय स्थल- यहां स्थित अन्य दर्शनीय स्थानों में गोमती द्वारका, भेंट द्वारका, रणछोरजी का मंदिर, गोपी तालाब, श्रीकृष्ण महल, शारदा मठ आदि प्रमुख है । औढ़ा नागनाथ यदि तीर्थयात्री औढ़ा नागनाथ ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन करना चाहते हैं तो अक्टूबर से मार्च माह के बीच जाएं। यह समय मौसम के मान से अच्छा रहता है।

मंगल ने बढ़ाया हनुमान का बल

रामभक्त बजरंग बली (हनुमान) का जन्म चैत्र मास की पूर्णिमा को बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। वैसे तो हनुमान का जन्मदिवस वर्ष में दो बार मनाया जाता है, उत्तर भारत में कार्तिक चतुर्दर्शी व दक्षिण भारत में चैत्र पूर्णिमा को। आपकी जन्मकुण्डली का विवरण कहीं नहीं मिलता है, लेकिन भारत के महान ज्योतिषी स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास की कुण्डली संग्रह से कल्पना द्वारा बनाई गई से उद्घृत है।
आपने तुला का सूर्य बताया है सो यह कार्तिक में ही आता है। और हनुमान की राशि कर्क बताई है लेकिन चतुर्दशी के दिन चन्द्रमा कन्या में ही रहता है, कर्क में किसी भी सूरत में नहीं होगा। हनुमान पवन पुत्र हनुमान के नाम से विख्यात, सो आपकी कन्या राशि बनती है क्योंकि अमावस्या के दिन सूर्य-चन्द्र साथ होते हैं इस हिसाब से चन्द्र कन्या में ही होना चाहिए।

आइ जानें हनुमान किन ग्रहों से प्रभावित है :- बजरंग बली के लग्न में मेष का मंगल जो कि अष्टमेश भी है, ऐसे जातक अत्यंत शूरवीर, पराक्रमी और साहस से भरपूर होते है। अतः आप महापराक्रमी, बलशाली और अजर-अमर हैं। मंगल की नीच दृष्टि चतुर्थ भाव पर पड़ने से आपको पारिवारिक सुख नहीं है। अतः रावण की लंका जलाने के बाद जब समुद्र से जा रहे थे उस समय आपके पसीने की समुद्र में गिरी एक बूँद को एक मछली ने पी लिया, जिसके परिणामस्वरूप उस मछली को मकरध्वज नाम का पुत्र हुआ था। कन्या राशि होने और मीन राशि पर सप्तम दृष्टि पड़ने से ही मीन यानी मछली को पुत्र हुआ। हनुमान भगवान शिव के अंश माने जाते है। सप्तम पत्नी भाव का स्वामी शुक्र नीच का होकर षष्ट भाव में होने से व सप्तम में नीच का सूर्य भी दाम्पत्य जीवन में अवरोध का कारण रहा और इसी कारण ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। पिता भाव दशम में शनि स्वराशि का होने से इनके पिता यानी भगवान शिवजी अजर-अमर है। ज्ञानवान, धर्मज्ञ, सेवाभावी और वचन के पक्के होना यह सब भाग्येश गुरु की ही देन है। और यही कारण है कि द्वापर युग में महापराक्रमी भीम को वचन दिया था कि मैं तुम्हारी विजय पताका पर सुमेरु पर्वत के साथ विराजमान होऊँगा। गुरु का पंचम में होना और भाग्य धर्म भाव पर स्वदृष्टि तथा कन्या राशि के साथ राम की नाम राशि तुला का स्वामी बुध के साथ है, जो षष्ट भाव में है यही कारण भी शत्रुओं के नाश का कारण बनता है। इसी वजह से भगवान राम के अनन्य भक्त होने का श्रेय भी हनुमान को जाता है। चूँकि शुक्र-बुध के साथ राहु भी है जो प्रबल रूप से षष्ट भाव में होने से शत्रुहंता बनता है। अत: बजरंग बली का नाम ही शत्रुओं का काल है। भूत-पिशाच भी इनके नाम स्मरण से निकट नहीं आते। जो भी भक्त हनुमान चालीसा का पाठ करता है, उसके सारे कष्ट मिट जाते हैं। हनुमान जयंती के दिन बजरंग बली को सिंदूर लगाया जाता है व चोला चढ़ाया जाता है। साथ ही व्रत भी रख सकते हैं। रामचरित मानस का पाठ, हनुमान चालीसा एवं हनुमान मंत्रों का प्रयोग विशेष फलदायी है।

कुछ कहती है हथेली की रेखाए

जी हाँ, हमारी हथेली में हृदय रेखा का अपना विशिष्ट स्थान है, जिससे हृदय रेखा को देखा-जाना जा सकता है। यह रेखा अधिकांश विवाह रेखा यानि सबसे छोटी अँगुली के लगभग एक इंच नीचे से निकल कर किसी क्षेत्र पर जा सकती है व किन्हीं भी रेखाओं से इनका संबंध हो सकता है। इसकी समाप्ति स्थान मुख्यतः गुरु पर्वत यानि तर्जनी अंगुली के नीचे होता है, लेकिन कभी-कभी इसका अंत शनि पर्वत या सूर्य पर्वत पर ही हो जाता है। किसी-किसी के हाथ में ये रेखा होती ही नहीं और किसी- किसी की हथेली में इस रेखा का मिलन मस्तिष्क रेखा पर होता है। तो आइए जाने क्या कहती है हमारी हृदय रेखा-

* हृदय रेखा अपने उद्गम स्थान से निकल कर गुरु पर्वत तक जा पहुँचे तो ऐसा जातक धार्मिक, न्यायाधीश, प्रोफेसर, धर्म का ज्ञाता, पुजारी, राजनेता होकर सदैव प्रसन्न रहने वाला होगा। हाँ यह स्पष्ट व कहीं से भी कटी या जंजीरदार नहीं होना चाहिए।

* यदि हृदय रेखा का कहीं से कटा होना, फिर आगे बढ़ना उस जातक को हृदय से संबंधित विकार या अन्य कष्ट जैसे प्रेम में आघात लगना, झेलनेपड़ते हैं।

* हृदय रेखा यदि शनि पर्वत पर मुड़ जाए तो ऐसा जातक या तो बहुत निर्दयी होगा या बहुत ही दयावान-परोपकारी हो सकता है, क्योंकि शनि मोक्ष का भी कारक है।

* हृदय रेखा का मिलाप यदि मस्तक रेखा से हो जाए तो ऐसा व्यक्ति सिर्फ अपने मन की ही करता है, दूसरों की बातों पर ध्यान नहीं देता।

* हृदय रेखा का न होना उस जातक को कठोर बना देता है। उसके मन में दया का भाव ही नहीं होता।

* हृदय रेखा जंजीर के समान हो तो वह व्यक्ति कपटी होता है, मन की बात किसी को भी नहीं बताता।

* हृदय रेखा पर काला तिल होना उस जातक के लिए अनिष्ठकारी होता है। ऐसा जातक निश्चित ही कलंकित होता है।

* हृदय रेखा पर द्वीप का चिह्न होना ही उसे बार-बार धोखे दिलाता है।

* हृदय रेखा पर वृत्त का चिह्न हो तो उसका मन अत्याधित कमजोर होगा।

* हृदय रेखा के मध्य गुच्छा जैसे कोई चिह्न दिखाई दे तो वह जातक घमंडी होता है।

* गुरु पर्वत के नीच पहुँचकर कई शाखाएँ हो तो वह जातक शक्ति संपन्न व भाग्यशाली होगा।

* बहुत पतली हृदय रेखा या बहुत गहरी लाल रंग की हो तो वह जातक दुर्भाग्यशाली व कठोर होगा।

* सामान्य से अधिक चौड़ी रेखा हो तो वायु विकार से ग्रस्त रहता है व उच्च रक्तचाप भी होता है।

* शुक्र पर्वत से निकल कर कोई रेखा हृदय रेखा से जा मिले तो वह जातक अत्यधिक भोगी होगा।

* चंद्र पर्वत से निकल कर हृदय रेखा पर जा पहुँचे तो उस जातक को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है।

किस दिशा में भाग्य चमकेगा ( In which way fortune shine )

कई बार व्यक्ति जिस स्थान पर जन्म लेता है वहाँ उसकी प्रोग्रेस नहीं हो पाती मगर उस प्लेस से दूर जाते ही उसकी प्रोग्रेस होने लगती है, असेट्‍स भी बनने लगते हैं। इसे जानने के लिए हॉरोस्कोप देखना जरूरी है। यदि धन का आगमन देखना हो तो 'इलेवन्थ हाउस' में जो राशि होती है, उसके अनुसार लाभ व प्रोग्रेस की दिशा तय की जाती है। यदि प्रोग्रेस, जॉब ‍आदि के लिए माइग्रेट करना हो तो नवम-दशम हाउस देखे जाते हैं।

* राशियों के अनुसार देखें तो मेष, सिंह, धनु पूर्व दिशा को दर्शाते हैं।

* वृषभ, कन्या, मकर ये ‍दक्षिण दिशा को दिखाते हैं।

* मिथुन, तुला, कुंभ पश्चिम को दिखाते हैं।

* कर्क, वृश्चिक, मीन की दिशा उत्तर होती है।

ग्रहों की दिशाएँ :-

* ग्रहों में सूर्य ईस्ट का, चंद्र नॉर्थ-वेस्ट (वायव्य) का, मंगल साउथ का, बुध नॉर्थ का, गुरु नॉर्थ-ईस्ट का, शुक्र साउथ ईस्ट का, शनि वेस्ट का, राहु-केतु साउथ-वेस्ट का स्वामी है। हॉरोस्कोप में रूलिंग प्लेनेट की (मनुष्य ग्रह) की दिशा के अनुसार भी भाग्योदय या धनलाभ की दिशा को जाना जा सकता है।

काला तिल का होना शुभ ( Black sesame auspicious )

मुखड़े पर काला-काला तिल चेहरे की सुंदरता बढ़ा देता है। आइए, जानते हैं कि चेहरे पर या शरीर के किसी भी भाग पर तिल का क्या अर्थ है। तिल के अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग परिणाम होते हैं। तिल काला व कत्थई रंग का होता है, काले तिल का गाल पर होना या ऊपरी अधर पर होना जहाँ सुंदरता में चार चाँद लगा देता है, वहीं यह कामुकता का प्रतीक भी बन जाता है। ऊपरी अधर पर तिल व्यक्ति को कामुक बनाने वाला होता है, उसी प्रकार निचले होंठ पर तिल दरिद्रता का सूचक होता है।

- दोनों भौंहों के मध्य तिल हो तो एसा जातक परोपकारी और उदार होगा।

- सिर के राइट साइड में पाया जाने वाल तिल समाज में मान-प्रतिष्ठा दिलाने वाला होगा।

- मस्तक पर बीच में पाया जाने वाला तिल उस जातक की फाइनेंशियल कंडीशन को मजबूत बनाता है।
- गले पर दिखाई पड़ने वाला तिल उस जातक को तेज दिमाग का, पैसा कमाने में सफल व सेल्फ मेड बनाता है।

- ठोड़ी पर पाया जाने वाला तिल व्यक्ति को स्वार्थी व समाज से कटा हुआ बनाता है।

- राइट गाल पर तिल उन्नतिशील और मेघावी होने की सूचना देता है।

- लेफ्ट गाल पर तिल शुभ नहीं माना जाता है, ऐसा तिल गृहस्थ जीवन में धन का अभाव बताता है।

- नाक के सीधे भाग पर तिल सुखी, धन संपन्न और नाक के लेफ्ट हिस्से पर तिल परिश्रमी, कठिनाई से सफलता का सूचक होता है।

- नाक के मध्य तिल हो तो ऐसा जातक स्थिर न रहकर इधर-उधर भटकता रहने वाला होता है।

- दाएँ हाथ पर तिल शुभ व बाएँ हाथ की हथेली में तिल अति व्यय का सूचक होता है।

इस प्रकार तिल भी शुभ-अशुभता के संकेत देते हैं। महिलाओं में लेफ्ट साइड पर तिल शुभ होता है जबकि पुरुषों में राइट साइड पर तिल शुभ होता है।

जीवन प्रबंधन के गुर सांई बाबा ( Life management tricks Sai Baba )

शिर्डी के सांई बाबा के भक्त दुनियाभर में फैले हैं। उनके फकीर स्वभाव और चमत्कारों की कई कथाएं है। सांई बाबा के सारे चमत्कारों का रहस्य उनके सिद्धांतों में मिलता है, उन्होंने कुछ ऐसे सूत्र दिए हैं जिन्हें जीवन में उतारकर सफल हुआ जा सकता है। हमें उन सूत्रों को केवल गहराई से समझना होगा। सांई बाबा के जीवन पर एक नजर डाली जाए तो समझ में आता है कि उनका पूरा जीवन लोककल्याण के लिए समर्पित था। खुद शक्ति सम्पन्न होते हुए भी उन्होंने कभी अपने लिए शक्ति का उपयोग नहीं किया। सभी साधनों को जुटाने की क्षमता होते हुए भी वे हमेशा सादा जीवन जीते रहे और यही शिक्षा उन्होंने संसार को भी दी। सांई बाबा शिर्डी में एक सामान्य इंसान की भांति रहते थे। यूं तो उनका पूरा जीवन ही हमें हमारे लिए आदर्श है, उनकी शिक्षाएं हमें एक ऐसा जीवन जीने की प्रेरणा देती है जिससे समाज में एकरूपता और शांति प्राप्त हो सकती है।

सबका मालिक एक..
.सांई बाबा ने हमेशा ही कहा है सबका मालिक है। भगवान हर धर्म, जाति और संप्रदाय के लिए एक ही है। हमने नाम अलग-अलग कर दिए हैं। इसी मूल मंत्र से समाज में एकरूपता का भाव बनेगा और लोग जात-पात, ऊंच-नीच के मतभेद को भूलकर एकसाथ रह सकते हैं। यहीं से भेदभाव खत्म होंगे और समाज में शांति की स्थापना होगी।

श्रद्धा और सबुरी...
हमारा जीवन समस्याओं से घिरा है या यूं कहें समस्याओं का दूसरा नाम ही जीवन है। ऐसे में अपने आराध्य के प्रति सच्ची श्रद्धा रखें। समस्याओं से डरे नहीं और इस बात की सबुरी रखें कि अच्छा समय भी आएगा। जब भी कोई मुसीबत आती है हम सबसे पहले अपना धैर्य खोते हैं और फिर परमात्मा में विश्वास। अगर मुसीबत में भी भगवान पर विश्वास रखा जाए और धैर्य से काम लें तो सारे अशुभ, शुभ में बदल सकते हैं।

निस्वार्थ भाव से सबकी मदद...
अपने माता-पिता और परिवारजनों का आदर, मान-सम्मान और ध्यान रखना हमारा परम कर्तव्य है। परंतु साथ ही साथ हमें अन्य बुजुर्गों, गरीब, निशक्त और निसहाय लोगों की भी मदद खुले दिल से करना चाहिए।जब ईश्वर ने मनुष्य में कोई भेदभाव नहीं रखा, वह सभी को समान रूप से सूर्य की किरणें पहुंचाता है, सभी के लिए जल उपलब्ध कराता है, हवा सभी के लिए समान रूप से प्रवाहित होती है। ऐसे में हमें भी सारे ऊंच-नीच और भेदभाव भुलाकर समानरूप से रहना चाहिए।

ईश्वरवाद की शुरुआत वेद से ( From the beginning of Eswaarvad Veda )

भारत में अनीश्वरवाद की शुरुआत जैन और चार्वाक मत से मानी गई है और ईश्वरवाद की शुरुआत वेद से। योरोप में अनीश्वरवादी दर्शन की शुरुआत सोफिस्ट समुदाय और सुकरात से मानी जा सकती है। स्टोइक दर्शन भी अनीश्वरवाद को फैलाने में कामयाब रहा। हालाँकि यह बहस बहुत ही प्राचीन रही है, लेकिन हर काल में यह नए रूप में सामने आती है। इस बहस का कोई अंत नहीं। यह हमारे संदेह को जितना पुख्ता करती है उतना ही हमारे विश्वास को भी। आस्तिकता और नास्तिकता को कुछ लोग अब एक ही सिक्के के दो पहलू मानने लगे हैं। कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक नीत्शे, इमानुएल कांट, हेगेल, जे. कृष्णमूर्ति, ओशो के अलावा ऐसे बहुत से प्रसिद्ध लोग हैं जिन्हें ईश्वर के होने पर संदेह रहा है या जिन्होंने ईश्वर के होने को नकार दिया है या यह मान लिया गया कि जीवन में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं, चाहे वह हो या नहीं हो, जीवन ही है महत्वपूर्ण। अभी खबरों में ही कहीं पढ़ने में आया था कि मदर टेरेसा भी इस मामले में संदेह से भरी थी। जो लोग वेद, कुरान, बाइबिल और गुरुग्रंथ साहिब को परम प्रमाण नहीं मानते उन्हें नास्तिक या अनीश्वरवादी कहा जाता है। भारत में न्याय और वेदांत दर्शनों को छोड़कर चार्वाक, सांख्य, योग, वैशेषिक, मीमांसा, बौद्ध और जैन को नास्तिक या अनीश्वरवादी मत का माना जाता है, क्योंकि इनमें ईश्वर को रचयिता, पालक और विनाशक नहीं माना गया है। जिसने सभी तरह के धर्म, विज्ञान, धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन किया है या जिसमें थोड़ी-बहुत तार्किक बुद्धि का विकास हो गया है वह प्रत्येक मामले में 'शायद' शब्द का इस्तेमाल करेगा और ईश्वर के मामले में या तो संशयपूर्ण स्थिति में रहेगा या पूर्णत: कहेगा कि ईश्वर का होना एक भ्रम है, छलावा है। इस छल के आधार पर ही दुनिया के तमाम संगठित धर्म को अब तक जिंदा बनाए रखा है, जो एक-दूसरे के खिलाफ है। हाल ही के एक सर्वे से यह खुलासा हुआ कि 93 फीसदी ब्रितानी क्रिसमस पर चर्च जाने से बचते हैं। ओपिनियन मेटर्स द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक केवल 11 फीसदी लोग क्रिसमस की प्रार्थना में भाग लेते हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ ही चर्च में जाती है। वैसे महिलाओं में भी यह प्रवृत्ति अब कम होती जा रही है। 2008 में लंदन में बहुत-सी बसों पर ईश्वर के नहीं होने का प्रचार किया गया था जिसे नास्तिकों की बस कहा जाता था। दूसरी ओर इस बस के खिलाफ ईश्‍वरवादियों ने ईश्वर के होने का भी प्रचार जोर-शोर से किया। कहते हैं कि संकट के समय लोगों को भगवान ही याद आते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक अमेरिका में आर्थिक संकट शुरू होने के बाद गिरजाघरों में श्रद्धालुओं की संख्या अचानक बढ़ गई थी। पश्चिमी देशों में आर्थिक मंदी के दौर में नौकरियाँ बचाने के लिए लोग प्रत्येक वह उपक्रम कर रहे थे जिसके लिए शायद वे तैयार नहीं थे। जैसे कि बॉस या भगवान की चापलूसी करना, ज्योतिष से सलाह लेना या फिर खुद का कोई व्यापार शुरू करने के बारे में सोचना। उपरोक्त सर्वे इस्लाम को छोड़कर सभी धर्म के लोगों पर लागू किया जा सकता है, क्योंकि मस्जिद में महिलाएँ नहीं जाती। हालाँकि मस्जिदों में नमाज के लिए बढ़ती तादाद से लगता है कि मुस्लिम जनता पहले की अपेक्षा इस्लाम के ज्यादा नजदीक हो चली है। इस्लाम में नास्तिक लोगों को काफीर कहा जाता है। हालाँकि मंदिर या मस्जिदों में बढ़ती तादाद को धार्मिकता से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। लोग संकट के चलते, कट्टरता के चलते या सामाजिक दबाव के चलते धार्मिक स्थल, उत्सव या आयोजनों में जाने लगे हैं दूसरी ओर चूँकि धर्म भी आज के युग में व्यापार का बहुत बड़ा जरिया है इस कारण भी लोग उससे जुड़े हुए हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि धर्म पूर्णत: निजी मामला है। प्रार्थना में माँग है तो फिर धर्म उसमें कहाँ रहा।

आधुनिक माइंड :- वैज्ञानिक और बौद्धिक युग में तो नास्तिक या अनीश्वरवादियों की संख्या कुछ कम नहीं है। अनीश्वरवादी लोग सभी देशों और कालों में पाए जाते हैं। कार्ल मार्क्स के बाद अनीश्वरवादियों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है, लेकिन अनीश्वरवाद के मायने सभी जगह अलग-अलग रहे हैं। एक दौर था जबकि लोग या तो ईश्वर को मानते या नहीं मानते थे, लेकिन आधुनिक मनुष्य को समझ में नहीं आ रहा है कि ईश्वर है या नहीं। सारे तर्क, सारे तथ्य और विज्ञान की बातें तो ईश्‍वर के नहीं होने की सूचना देते हैं, लेकिन जीवन के दुख और संताप से बचना है तो ईश्वर को मानने में कोई बुराई नहीं है। यदि हमने कहा कि ईश्वर नहीं है तो फिर समाज, धर्म और शायद राष्ट्र से भी हमें बहिष्कृत कर दिया जाए। तो चुप रहो। जैन और बौद्ध धर्म को नास्तिकों का धर्म माना जाता है। कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग भी नास्तिक माने जाते हैं। विज्ञान ने अभी तय नहीं किया है कि ईश्वर है या नहीं है। विज्ञान का मानना है कि ईश्वर को जानने से कहीं ज्यादा जरूरी है ब्रह्मांड के रहस्य को जानना। ब्रह्मांड का परम तत्व कौन-सा है उसे जानना। वेद ने जिसे ब्रह्माणु कहा है विज्ञान ने अभी उसकी खोज जारी रखी हुई है।

तार्किक युद्ध :

अनीश्वरवादियों का तर्क :- यदि आप यह कहते हैं कि ईश्वर, अल्लाह या गॉड ने संसार को छह दिन में बनाकर सातवें दिन विश्राम किया तो फिर तर्क करने वाले कहेंगे कि ईश्वर को किसने बनाया और क्या ईश्वर को भी आराम करने की आवश्यकता होती है। सृष्टी बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या आत्मा भी बनाई गई है? यदि बनाई है तो कौन से तत्व से बनाई। क्या ईश्वर को भी शैतान से डर लगता है। दुनिया में लोगों के साथ इतना अन्याय होता है न्याय तो होता कहीं दिखता ही नहीं। देर भी है और अंधेर भी। अनीश्वरवादी लोग मानते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व का कोई सबूत नहीं है। ब्रह्मांड या प्रकृति के सारे नियमों को विज्ञान से समझा जा सकता है। जगत और जीवन की उत्पत्ति, पालन और विनाश के नियम को भी विज्ञान समझा सकता है। धर्मग्रंथों में जो भी लिखा है वह कपोलकल्पित और मानव को भ्रमित करने वाला है।उनकी परीकथाएँ मनुष्य के दिमाग में इस कदर घुस गई है कि अब वे उसे किसी भी तरह से असत्य मानने को तैयार नहीं है, जबकि उनके कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। स्वर्ग और नर्क की कल्पनाएँ, प्रलय या कयामत के दिन के फैसले की बातें या फिर भयभीत करने वाला ईश्वर। ईश्वर भी ऐसा कि दूसरे धर्म के ईश्‍वर से श्रेष्ठ और लड़ाने वाला ईश्वर। पाप और पुण्य का डर बिठाने वाला ईश्‍वर। धर्मग्रंथों की बकवास और झूठी बातों ने एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग कर उनमें नफरत के बीज बो दिए हैं।

ईश्‍वर का तर्क :- इस ब्रह्मांड को सृजित करने वाला कोई तो होगा। मनुष्य की ताकत नहीं है कि वह ब्रह्मांड रच दे या मनुष्य बना दें। नास्तिक या अनीश्वरवादी लोग देखी, सुनी, महसूस की हुई या तार्किक बातों को ही सत्य मानते हैं जबकि सत्य को जानना इतना आसान नहीं। ईश्वर रहस्यपूर्ण और अनंत है उसे तर्क या विज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। कोई तो है ‍जो हम सभी को जिंदा और इस ब्रह्मांड को चलायमान रखे हुए है। ईश्‍वर के कारण ही हम नियमों से बंधे रहकर सत्य और न्याय की राह पर चलते हैं। न्याय का राज्य ईश्वर से ही कायम रहता है। हम इस ब्रह्मांड में रेत के एक कण पर खड़े हैं। विशालकाय ब्रह्मांड का और हमारा होना ही उसके होने की सूचना देता है। इससे बड़ा और दूसरा कोई सबूत नहीं।

'हनुमानजी' से सीखें फंडे ( Learn tips from Hanuman ji )

राम भक्त हनुमान एक कुशल प्रबंधक भी थे। वे मानव संसाधन का बेहतर उपयोग करना जानते थे। मैनेजमेंट गुरुओं के मुताबिक, संपूर्ण रामचरित मानस में ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे साबित होता है कि महाबली हनुमान में मैनेजमेंट की जबर्दस्त क्षमता थी। समुद्र को पार किया श्रीराम के परम भक्त हनुमान के मैनेजमेंट से भगवान ने रावण पर विजय प्राप्त की। हनुमानजी ने सेना से लेकर समुद्र को पार करने तक जो कार्य कुशलता व बुद्धि के साथ किया वह उनके विशिष्ट मैनेजमेंट को दर्शाता है। हर काम में निपुण भगवान राम से परिचय के बाद से हनुमानजी को जो भी कार्य सौंपा वह उन्होंने पूर्ण कुशलता के साथ संपन्न किए। इस प्रकार हनुमानजी को प्रबंधन के क्षेत्र में एक कुशल स्तंभ माना जा सकता है।

सही प्लानिंग :- श्री हनुमानजी ऊर्जा प्रदान करने वाले शक्ति और समर्पण के पुंज हैं। आज के युवा मैनेजरों को अंजनी पुत्र हनुमानजी से कई प्रकार की प्रेरणा मिलती है। बुद्धि के साथ सही प्लानिंग करने की उनमें गजब की क्षमता है।

वैल्यूज और कमिटमेंट :- हनुमानजी का प्रबंधन क्षेत्र बड़े ही विस्तृत, विलक्षण और योजना के प्रमुख योजनाकार के रूप में जाना जाता है। हनुमानजी के आदर्श बताते हैं कि डेडिकेशन, कमिटमेंट, और डिवोशन से हर बाधा पार की जा सकती है। लाइफ में इन वैल्यूज का महत्व कभी कम नहीं होता।

दूरदर्शिता :- हनुमान जी ने सहज और सरल वार्तालाप के अपने गुण से कपिराज सुग्रीव से श्रीराम की मैत्री कराई। उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि सुग्रीव रामजी के सहयोगी बने। हनुमान जी की कुशलता एवं चतुरता आगे चल कर सही दिखाई पड़ती है जब सुग्रीव श्रीराम के काम आते हैं और रामजी की मदद से सुग्रीव को अपना राज्य मिलता है।

नीति कुशल :- राजकोष व पराई नारी प्राप्त कर सुग्रीव मैत्रीधर्म भुला देते हैं तो हनुमानजी उसे चारों विधियों साम, दाम, दण्ड, भेद नीति का प्रयोग कर श्रीराम के कार्यों की याद दिलाते हैं। यहाँ उनकी स्मरण शक्ति, सजगता, सतर्कता तथा लक्ष्य की दिशा में तत्परता श्रीराम को प्रभावित करती है। हनुमानजी मैनेजमेंट की यह सीख देते हैं कि अगर लक्ष्य महान हो और उसे पाना सभी के हित में हो तो हर प्रकार की नीति अपनाई जा सकती है, और यह भी कि कोई अपने कर्तव्यों और अहसानों को भूल रहा है तो उसे सही राह पर लाने के लिए भी हर तरह की नीति लागू की जा सकती है।

लीडर हो तो हनुमान जैसा :- उनकी सहज विनम्रता, लीडरशिप और सब को साथ लेकर चलने की क्षमता श्रीराम पहचान लेते हैं। कठिनाइयों में जो निर्भयता और साहसपूर्वक साथियों का सहायक और मार्गदर्शक बन सके लक्ष्य प्राप्ति हेतु जिसमें उत्साह और जोश, धैर्य और लगन हो, कठिनाइयों पर विजय पाने, परिस्थितियों को अपने अनुकूल कर लेने का संकल्प और क्षमता हो वही तो नेतृत्व कर सकता है।

सबकी सलाह सुनने का गुण :- हनुमानजी का राम-काज हेतु उत्साह और वह जामवंत से मार्गदर्शन चाहना भी प्रबंधन का तत्व है। सबको सम्मानित करना, सक्रिय और ऊर्जा संपन्न होकर कार्य में निरंतरता बनाए रखने की क्षमता भी कार्यसिद्धि का गुरुमंत्र है। ह्यूमन नेचर की स्टडी और पहचान, मैनेजमेंट का खास एलिमेंट है। यह एलिमेंट हनुमानजी में पूरी राम-कथा के दौरान मिलता है।

दुश्मन पर नजर :- विरोधी के असावधान रहते ही उसके रहस्य को जान लेना दुश्मनों के बीच दोस्त खोज लेने की दक्षता विभीषण प्रसंग में दिखाई देती है। हनुमानजी उससे भ्राता का संबंध जोड़कर अपना और उसका भी कार्य सिद्ध करने में सफल होते हैं। उनके हर कार्य में थिंक और एक्ट का अद्भुत कॉम्बिनेशन है।

नैतिक साहस :- परिस्थितियों से विचलित हुए बिना दृढ़ इच्छाशक्ति को बनाए रखना प्रबंधन कला का महान गुण है। रावण को सीख देने में उनकी निर्भीकता, दृढ़ता, स्पष्टता और निश्चिंतता अप्रतिम है। उनमें न कहीं दिखावा है, न छल कपट। व्यवहार में पारदर्शिता है, कुटिलता नहीं। उनमें अपनी बात को कहने का नैतिक साहस हैं। हनुमानजी की शीलता और निर्भयता की प्रशंसा रावण भी करता है।

हर हाल में मस्त :- रावण को हनुमानजी 'रामचरन पंकज उर धरहू लंका अचल राज तुम्ह करहू' का मंत्र देते हैं। लेकिन वह अभिमानवश उनकी सलाह की उपेक्षा करता है परंतु विनम्र विभीषण उसी को मानकर लंका के राजा बनते है। इन सबके साथ ही उनमें आज की सबसे अनिवार्य मैनेजमेंट क्वॉलिटी है कि वे अपना विनोदी स्वभाव हर सिचुएशन में बनाए रखते हैं। हर हाल में मस्त रहना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

भारत भ्रमण में ईसा मसीह ( Messiah in Tours )

ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। अपनी इस उम्र के बीच ईसा मसीह भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष। रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्रायडे' कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ सम्प्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया। कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल। आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था। पहलगाव था पहला पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है। पहलगाम चारों तरफ पहाड़ों से घिरा है। यहाँ की सुंदरता और प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। यहाँ के पहाड़ों के दर्रों से पाक अधिकृत कश्मीर या तिब्बत के रास्ते जाया जा सकता है। इसके आसपास बर्फीले इलाके की श्रृंखलाबद्ध पहाड़ियाँ है। यही से बाबा अमरनाथ की गुफा की यात्रा शुरू होती है। मान्यता है कि ईसा मसीह ने यही पर प्राण त्यागे थे और ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है। 'पहलगाम एक छोटा-सा गाँव है, जहाँ पर कुछ एक झोपड़ियाँ हैं। इसके सौंदर्य के कारण जीसस ने इसको चुना होगा। जीसस ने जिस स्‍थान को चुना वह मुझे भी बहुत प्रिय है। मैंने जीसस की कब्र को कश्‍मीर में देखा है। इसराइल से बाहर कश्‍मीर ही एक ऐसा स्‍थान था जहाँ पर वे शांति से रह सकते थे। क्‍योंकि वह एक छोटा इसराइल था। यहाँ पर केवल जीसस ही नहीं मोजेज भी दफनाए गए थे। मैंने उनकी कब्र को भी देखा है। कश्मीर आते समय दूसरे यहूदी मोजेज से यह बार-बार पूछ रहे थे कि हमारा खोया हुआ कबिला कहाँ है (यहूदियों के 10 कबिलों में से एक कबिला कश्मीर में बस गया था)। यह बहुत अच्‍छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्‍तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्‍का की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्‍मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।'-

ओशो निकोलस नोतोविच का शोध :- एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है। हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहाँ रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुँचे और वहाँ वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।

ईसा का नामकरण :- यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुँचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुँचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है। एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालाँकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।

पहली बार हुआ विवाद :- सिंगापुर स्पाइस एयरजेट की एक पत्रिका में इसी बात की चर्चा की गई थी कि यीशु को जब क्रूस पर चढ़ाने के लिए लाया जा रहा था तब वे क्रूस से बचकर भाग निकले और कश्मीर पहुँचे और बाद में वहाँ उनकी मृत्यु हो गई। उनका मकबरा कश्मीर के रौजाबल नामक स्थान में है। कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक एक संस्था ने इस खबर का कड़ा विरोध किया। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस पत्रिका के खिलाफ प्रदर्शन भी हुआ। विरोध के बाद स्पाइस एयरजेट के डायरेक्टर अजय सिंह ने माफी माँगी और कहा कि पत्रिका की करीब 20 हजार प्रतियों का वितरण तुरंत बन्द कर दिया गया है।

द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट :- स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएँ और यहाँ योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया। उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामी जी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।

अँगूठे से जानिए पर्सनेलिटी का राज ( Learn the Secrets of Personality with thumb )

अँगूठा मानवीय चरित्र का सरलतम प्रतीक है। अँगूठा एक वह धुरी है जिस पर संपूर्ण जीवन चक्र घूमता रहता है। सफलता दिलवाने वाला अँगूठा सुडौल, सुंदर और संतुलित होना चाहिए। अँगूठे को मस्तिष्क का सेंटर प्वॉइंट बताया गया है। अँगूठे में पहला पोर दृढ़ इच्छाशक्ति का सूचक है, दूसरा पोर तर्क और कारण का तथा तीसरा जो शुक्र पर्वत को घेरता है, वह मनोविकार को प्रकट करता है। यदि पूर्ण भरा हुआ तो मानव मनोविकारों के अधीन होगा। यदि दूसरा पोर कमजोर हुआ तथा मनोविकार का पुष्ट हुआ तो व्यक्ति पथभ्रष्ट हो जाता है। यदि इच्छाशक्ति कमजोर है तथा अंतिम दोनों पेरुवे सुगठित हैं तो ऐसा मानव लम्पट होगा या दुर्गुणों में फँस जाएगा। हाथ में अँगूठे की अपनी एक अनूठी विशेषता है। हाथ में इसका सुदृढ़ होना जीवन का संतुलित होना है। सुदृढ़ अँगूठे वाला व्यक्ति अपनी बात का धनी होता है, विचारों व सिद्धांतों का पक्का होता है। ऐसा व्यक्ति सोचे हुए काम को करता है तथा समय का पाबंद होते हुए जिद्दी भी होता है। सतर्कता के साथ-साथ वह अपना भेद किसी को नहीं देता। वह स्वयं अनुशासित होता है। इच्छाशक्ति और तर्क शक्ति के बीच में यदि यव (द्वीप) हो तो वह व्यक्ति अपने घर में रहने वाला मिष्ठान्न प्रेमी, सुखी, विद्वान व कीर्ति वाला होता है। अँगूठे की जड़ में यदि सीधी रेखाएँ हों तो उनकी संख्या के अनुसार उतने ही उसके पुत्र/संतानें होंगी, स्त्री के हाथ में यदि दूसरी संधि पर कोई तारे का चिह्न हो तो वह लड़की अत्यधिक धनवाली होती है। अँगूठे की जड़ में से कोई एक रेखा शुक्र के ऊपर से होकर आयु रेखा में मिल जाए तो यह रेखा बहुत बड़ी संपत्ति दिलाती है। यदि ऐसी दो रेखाएँ हों तो बड़ी जायदाद और कुटुम्ब दोनों ही होते हैं। पहला पेरुवा मोटा, भारी और छोटा हो तो ऐसा व्यक्ति अचानक गुस्से में आकर किसी को कुछ भी हानि पहुँचा सकता है। अँगूठे का दूसरा पोर बड़ा रहने से तर्क, विवेक और कारण शक्ति से काम को सोच-समझकर करने की सूझबूझ उस व्यक्ति में रहती है। इसके साथ ही बुध पर्वत सुंदर हो या मस्तक रेखा गोलाईयुक्त लंबी हो तो तर्क, वाक्‌चातुर्य से वह व्यक्ति हर काम को सफल कर लेगा। अधिक छोटे अँगूठे वाला व्यक्ति आत्म नियंत्रण नहीं रख पाता। अँगूठे का छोटा होना शुभ नहीं है। छोटे अँगूठे में काम विकृति भी पैदा हो सकती है बशर्ते कि मंगल का पर्वत उभरा हुआ हो, शुक्र मुद्रिका हो और क्यालेस्विया की स्थिति मजबूत हो, यदि प्रथम पोर लचीला हो तो व्यक्ति समाज में मिलनसार होगा, परिस्थिति के अनुसार झुक जाएगा वैवाहिक जीवन ठीक रहेगा,कभी-कभी वह बाहरी दिखावा करेगा और यदि गुरु पर्वत तथा मस्तिष्क व हृदय रेखा समांतर पर है तो मित्रता करने में निपुण होगा। लंबी हथेली में यदि छोटा अँगूठा हो तो वह व्यक्ति स्वयं के स्थान व क्षेत्र में अच्छा होता है।