22 अप्रैल 2010

ज्ञान के साथ ही अपनी चैतन्यता को जागृत करें

हम जब कोई ज्ञान हासिल करते हैं तो उसी के बोझ तले दब जाते हैं। वह ज्ञान ही हमें संपूर्ण लगने लगता है। हम अपनी चेतनता पर ध्यान नहीं देते केवल उस ज्ञान के बखान में लग जाते हैं। इससे नुकसान यह होता है कि हम जीने का अपना स्वभाव खो देते हैं। जबकि ज्ञानी जिसका ज्ञान उसकी चेतनता पर हावी नहीं होता वह उस ज्ञान को अपने जीने में लगाता है और जीने के कहीं ज्यादा लुत्फ भी उठाता है।

महापुरुषों की एक विशेषता होती है वे जितना जानते हैं उससे अधिक उसे जी लेते हैं। उनका ज्ञान उनकी चैतन्यता पर हावी नहीं हो पाता। वे ज्ञान के बोझ से दबते नहीं वे चैतन्यता के बोध से हल्के रहते हैं और इसी से उनके जीवन में एक संतुलन आ जाता है। किसी भी धर्म के धर्मगुरु या महान पुरुष हुए हों उन्होंने अपने अभाव और अपनी समृद्धि को अपनी अध्यात्म की यात्रा में साधक बनाया बाधक नहीं। जिनका इस्लाम से कम परिचय है ऐसे लोग शायद ही जानते होंगे कि हजरत मोहम्मद का बचपन बहुत कष्टों में बीता था। पिता की मृत्यु जन्म से दो महिने पहले ही हो चुकी थी। उनकी उम्र जब ६ साल की थी तो उनकी मां अमीना बीबी उन्हें लेकर मदीना गईं लेकिन रास्ते में मां का देहांत हो गया। अनाथ बालक मोहम्मद किसी तरह वापस मक्का लौटे। दादा बूढ़े थे और गरीब भी। लेहाजा मोहम्मद पढ़-लिख नहीं सके । लेकिन जाते-जाते दादा ने मोहम्मद को अपने दूसरे बेटे अबू तालीब के हवाले कर दिया। चाचा ने पाला लेकिन अभाव ने मोहम्मद के भीतर गजब की समझदारी भर दी। ऐसा कहते हैं जब उनकी उम्र १३ साल थी तब व्यापार के सिलसिले में उनके चाचा उन्हें सीरिया ले गए थे। जिनसे भी मोहम्मद मिलते लोग प्रभावित हो जाते। बातों की प्रस्तुति वे इतनी प्रभावशाली करते थे कि एक ईसाई पादरी उनके भीतर की आध्यात्मिकता को देखकर दंग रह गए। आगे जाकर मोहम्मद क्या हुए ये दुनिया जानती है। इंसान की जिंदगी में सुविधाएं होना जरूरी नहीं है। प्रतिकूलताएं भी प्रगति का करण बन सकती हैं यदि जाने हुए को जीने की कला आ जाए। सोचने से जीवन के सत्य हाथ नहीं आते। उन्हें पकड़ना हो तो जीना पड़ता है। मोहम्मद किसी भी उम्र में रहे हों उनका ज्ञान ही उनका अस्तित्व बन गया था। फूल में यदि सुगंध है तो वह और भी खुबसूरत हो जाता है बस महापुरुष हमें यही सिखाते हैं। कुरआन मोहम्मद की सुगंध का नाम है।