आज जब सभी के पास समय अभाव है ऐसे में किसी के घर कोई बिना बुलाए, अनअपेक्षित, बिना किसी सूचना के अतिथि या मेहमान या गेस्ट आ जाए तो बहुत ही कम लोग होंगे जो उनके पर हर्षित होते हैं। जबकि प्राचीन काल से अतिथि को देवता तुल्य माना गया है।
सही मायने में अतिथि वही है तो बिना बुलाए, बिना किसी पूर्व सूचना के ही आपके यहां आए। ऐसे अतिथि ही देवताओं की श्रेणी में माने गए हैं। जिनका उचित और यथासंभव आदर, सत्कार वेद-पुराण में अनिवार्य बताया गया है। ऐसे अतिथि के सत्कार से जो पुण्य मिलता है उससे भगवान अतिप्रसन्न होते हैं।
अतिथि कैसा भी हो, अमीर-गरीब हो, कोई भी जाति-धर्म का हो, कहीं से भी आया हो उसका स्वागत करना ही चाहिए। अतिथि का महत्व श्रीकृष्ण के जीवन की उस घटना से समझा जा सकता है जब सुदामा श्रीकृष्ण के यहां पहुंचे थे। उस समय सुदामा की हालात बहुत ही दीन थी, उनके कपड़े फटे हुए थे, भूख-प्यास से बेहाल थे। ऐसे में जब श्रीकृष्ण को सुदामा के आगमन की सूचना मिली तो वे तुरंत उनका स्वागत करने के लिए दौड़ पड़ते हैं। साथ ही श्रीकृष्ण स्वयं उनके पैर धोते है और उनका भव्य स्वागत करते हैं। श्रीकृष्ण सुदामा को उचित समय और अपनत्व प्रदान करते हैं।
अतिथि सत्कार के संबंध में एक और बात विचार करने योग्य है कि जो व्यवहार हम स्वयं के लिए चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। जब हम किसी के यहां अतिथि बनकर जाए तो हम जैसा स्वागत सत्कार स्वयं के लिए चाहते हैं वहीं हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। साथ ही आने वाले अतिथि को यथा योग्य सुविधा और समय भी देना चाहिए। उसके आने का प्रयोजन पूछकर जब तक वह संतुष्ट ना हो जाए तब तक अतिथि सत्कार का धर्म अधुरा ही है।
18 अप्रैल 2010
अतिथि तुम कब आओगे....?
Posted by Udit bhargava at 4/18/2010 09:43:00 pm
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