मालिक या स्वामी के प्रति निष्ठावान होना एक अच्छी व्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति है। अपने गुण, योग्यता और परिश्रम के कारण ही कोई व्यक्ति शीर्ष पर होता है और स्वामी या मालिक की भूमिका में रहता है। बॉस इज ऑलवेज करेक्ट का एक अर्थ यह होता है कि अपनी शीर्ष व्यवस्था के प्रति हमारी प्रतिबद्घता। हस्तिनापुर की राजगादी के प्रति भीष्म की निष्ठा इसी का प्रतीक है। उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि आजीवन विवाह नहीं करेंगे। इच्छामृत्यु के वरदान से विभूषित भीष्म का यह भी संकल्प था कि हस्तिनापुर की गादी पर बैठने वाले हर राजा में अपने पिता की छवि देखेंगे। धृतराष्ट्र राजा बने और उन्होंने भीष्म की इच्छा के प्रतिकूल कई निर्णय भी लिए। राज्य का बंटवारा हो या द्रौपदी चीरहरण का प्रसंग या फिर युद्ध का निर्णय। न चाहते हुए भी भीष्म राजगादी के निर्णयों का सम्मान करते रहे। दुर्योधन से भीष्म सभी प्रकार से असहमत रहते थे। किंतु चूंकि वह राजा था अत: उसके पक्ष में युद्ध के लिए वे संकल्पित भी थे। जब युद्ध में भीष्म ने पांडव सेना को परेशान कर दिया था तब पांडवों ने भीष्म के पास जाकर सलाह लेने का विचार किया था। उस समय युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को एक प्रसंग सुनाया था। समयस्तु कृत: कश्चिन्मम भीष्णोम संयुगे। मन्त्रायिष्ये तवार्थाय न तु तोत्स्ये कथश्चन। दुर्योधनार्थ योत्स्यामि सत्यमेवदिति प्रभो॥ मेरी भीष्मजी के साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि मैं युद्ध में तुम्हारे हित के लिए सलाह दे सकता हूं परंतु तुम्हारी ओर से किसी प्रकार का युद्ध नहीं करूंगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधन के लिए ही करूंगा। भीष्म का यह सिद्धांत संपूर्ण रूप से सही न होते हुए भी इतना संदेश तो देता है कि लॉयल्टी बनाए रखना चाहिए। निष्ठा भी एक योग्यता बन जाती है किन्तु योग्यता में यदि निष्ठा न हो तो वह भ्रष्टाचार को जन्म दे देती है।
22 अप्रैल 2010
योग्यता के साथ चाहिए निष्ठा भी
मालिक या स्वामी के प्रति निष्ठावान होना एक अच्छी व्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति है। अपने गुण, योग्यता और परिश्रम के कारण ही कोई व्यक्ति शीर्ष पर होता है और स्वामी या मालिक की भूमिका में रहता है। बॉस इज ऑलवेज करेक्ट का एक अर्थ यह होता है कि अपनी शीर्ष व्यवस्था के प्रति हमारी प्रतिबद्घता। हस्तिनापुर की राजगादी के प्रति भीष्म की निष्ठा इसी का प्रतीक है। उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि आजीवन विवाह नहीं करेंगे। इच्छामृत्यु के वरदान से विभूषित भीष्म का यह भी संकल्प था कि हस्तिनापुर की गादी पर बैठने वाले हर राजा में अपने पिता की छवि देखेंगे। धृतराष्ट्र राजा बने और उन्होंने भीष्म की इच्छा के प्रतिकूल कई निर्णय भी लिए। राज्य का बंटवारा हो या द्रौपदी चीरहरण का प्रसंग या फिर युद्ध का निर्णय। न चाहते हुए भी भीष्म राजगादी के निर्णयों का सम्मान करते रहे। दुर्योधन से भीष्म सभी प्रकार से असहमत रहते थे। किंतु चूंकि वह राजा था अत: उसके पक्ष में युद्ध के लिए वे संकल्पित भी थे। जब युद्ध में भीष्म ने पांडव सेना को परेशान कर दिया था तब पांडवों ने भीष्म के पास जाकर सलाह लेने का विचार किया था। उस समय युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को एक प्रसंग सुनाया था। समयस्तु कृत: कश्चिन्मम भीष्णोम संयुगे। मन्त्रायिष्ये तवार्थाय न तु तोत्स्ये कथश्चन। दुर्योधनार्थ योत्स्यामि सत्यमेवदिति प्रभो॥ मेरी भीष्मजी के साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि मैं युद्ध में तुम्हारे हित के लिए सलाह दे सकता हूं परंतु तुम्हारी ओर से किसी प्रकार का युद्ध नहीं करूंगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधन के लिए ही करूंगा। भीष्म का यह सिद्धांत संपूर्ण रूप से सही न होते हुए भी इतना संदेश तो देता है कि लॉयल्टी बनाए रखना चाहिए। निष्ठा भी एक योग्यता बन जाती है किन्तु योग्यता में यदि निष्ठा न हो तो वह भ्रष्टाचार को जन्म दे देती है।
Posted by Udit bhargava at 4/22/2010 05:54:00 pm
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