24 अप्रैल 2010

रामनगर महल और उसकी चित्रकारी


हजारों वर्षों तक प्राकृतिक आपदाओं और इंसानी बर्बरता का कहर झेलने के बावजूद भारत में चित्रकला आज भी जीवित है। अजंता की गुफाओं (महारास्ट्र में औरंगाबाद जिला) में मौजूद भित्तिचित्र दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पांचवीं शताब्दी तक की भारतीय चित्रकला के सम्रद्ध सांस्कृतिक विरासत और परम्परा की दास्ताँ ब्यान करते हैं। इन 29 बौद्ध गुफाओं को ज्वालामुखीय शैल सतह पर बड़े परिश्रम और लग्न से बनाया गया है ताकि ये सजीव प्रतीत हों। इतना समय गुजरने के बाद भी अजन्ता के समृद्ध परम्पराएं आज भी अक्षुण्ण हैं, जबकि इन्हें कलाकारों द्वारा बाद के काल में चित्र संबंधी बनावट, चित्रण और रंगों को बेहतरीन ढंग से मिलाने की जानकारी होने से पहले बनाया गया था। जैन सम्प्रदाय के व्यापारी वर्ग ने धार्मिक पारंपरिक संरक्षण के माध्यम से चित्रकला परंपरा को अपने मंदिरों की दीवारों, ताड़पत्रों आदि पर चित्रकारी करके उसे जीवित रखा। देश की सीमाओं पर बार-बार आक्रमण होने के कारण 15वीं शताब्दी के प्रारंभ में कला की क़द्र घटने लगी तो वैष्णव धर्म के लोकप्रिय सम्प्रदाय ने उत्तरी भारत में समाज के विभिन्न वर्गों में भक्ति आन्दोलन चलाया। भक्ति आन्दोलन भगवान् विष्णु, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम और भगवान् कृष्ण के अवतारों पर केन्द्रित था, जिससे विविध कला रूपों को प्रोत्साहन मिला।
राजस्थान और पहाडी रियासतों के राजा राम लीला और कृष्ण लीला से काफी प्रभावित थे। उन्होंने कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया तथा भक्ति काव्य को चटकीले रंगों में चित्रित करने का आदेश दिया और इन चित्रकलाओं के कारण ही अविभाजित पंजाब में पहाडी शैली के विभिन्न लघु चित्रकला शैलियों का आर्विभाव हुआ। पहाडी शैली की चित्रकला का विकास भसौली, जम्मू, कांगडा और गुलेर रियासतों के दायरे में हुआ, जबकि 16वीं शाताब्दी के दौरान कुछ अन्य रियासतें अपनी निजी स्थापित करने का प्रयास कर रही थीं। इन रियासतों के जागीरदारों में आपस में कला को लेकर होड लगी हुई थी। उन्होंने अपने उभरते कलाकारों का एक दल बनाने तथा नए कलाकारों को प्रशिक्षित करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करना प्रारंभ किया। परिणामस्वरूप, ऊधमपुर, रियासी, बंद्राल्टा (रामपुर), चम्बा, कुल्लू, मण्डी, बिलासपुर आदि जैसी पहाडी रियासतों ने लघु चित्रकला परम्पराओं में नई ऊंचाइयां छूने का प्रयास किया। मुग़ल काल में औरंजेब की ताजपोशी होने के बाद मुग़ल दरबार के कलाकार दूसरी रियासतों को पलायन कर गए क्योंकि मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने बादशाह अकबर के दरबार में नियुक्त बहुत से दरबारी चित्रकारों को संरक्षण देना बंद कर दिया था।

जम्मू लघु चित्रकला शैली में पुंछ, रामनगर, रियासी चित्रकला परंपरा शामिल हैं जो अपने रंगो, चित्रों और आत्मपरक सौंदर्य की दृष्टी से विख्यात हैं। यह चित्रकारी देवी-देवताओं के तीन उपाख्यानों प्राकृतिक सौन्दर्य की सुरम्य प्रस्तुति, फूलों तथा किनारों पर ज्यामिति डिजाइन तक ही सीमित है। यह चित्रकारी रामायण और महाभारत पर आधारित है। प्रेम को भारतीय चित्रकला परम्परा के मुख्य प्रतीक चिन्हों जैसे राधा-कृष्ण, पक्षियों की जोड़ी, उमड़ते-घुमड़ते मेघों, केले और कचनार के पेड़ों, आम्रवनों, कमल आदि के माध्यम से दर्शाया गया है। लाल, नीला और पीला रंग क्रमश: सृष्टी, जीवन और मृत्यु का प्रतीक माना जाता है। कैनवास या चित्रकला की पृष्ठभूमि को और अधिक आकर्षक तथा चमकदार बनाने के लिये अंडे की जर्दी, उबलते चावलों की मांड, जैविक बीजों, शीरे और पशुओं की हड्डियों के चूर्ण आदि का इस्तेमाल किया जाता था।

रामनगर, जो ब्रांद्राल्टा राज्य की तत्कालीन राजधानी थी, हरी-भरी शिवालिक पहाड़ियों के बीच, मध्य-हिमालय पर्वत श्रृंखला में रामनगर खड्ड के बायें तट पर स्थित है। यह स्थल धार सड़क के किनारे ऊधमपुर से पश्चिम में लगभग 40 कि.मी. पर तथा जम्मू से लगभग 105 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। रामनगर की पहाड़ियों पर बसा यह स्थान शहर की भाग-दौड़ वाली जिन्दगी से दूर एक खूबसूरत जगह है, जहाँ से घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है।

रामनगर महल परिसर किले की पश्चिम चारदीवारी से होकर गुजरने वाले नाले के ठीक ऊपर रामनगर की पहाड़ियों की ढलान पर बना है। सम्भवत: यह नाला चट्टानों में बने गहरे दर्रे से महल को सुरक्षा प्रदान करता होगा।

पूरा महल रामनगर शहर से अधिक ऊंचे स्थान पर है जहाँ से पहाडी की ढलान पर मुख्य सड़क दिखाई देती है। परिसर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की और है, जिसका रास्ता उत्तर दिशा में स्थित है शीशा महल और दक्षिण हिस्से में स्थित एक हांल, जिसे दरबार हांल के नाम से जाना जाता है, से होकर गुजरता है।

शीश महल परिसर के प्रवेश द्वार तक सीढ़ियों से चढकर पहुंचा जा सकता है जहाँ एक खुली ड्योढी है। सामने की और दोनों तरफ बने विशाल चबूतरों सहित खुले बुर्ज हैं, जो किले का आभास कराते हैं। यहाँ तीन पुरानी तोपें हैं जिन्हें रामनगर के किले से लाया गया था। मुख्य प्रवेश द्वार से पहले आँगन से ऊंची जगह पर शीश महल है जिसमें रामनगर की लघु चित्रकला शैली के खूबसूरत लघु-चित्रों को प्रदशित किया गया है।

दरबार महल में भित्तिचित्र हैं जो रामायण, भागवत और पुराणों के प्रसंगों पर आधारित हैं। इसके अलावा, यहाँ राजा सुचेत सिंह के चित्र भी हैं। उत्तर दिशा की और आगे जाने पर एक शीश महल आता है, जिसकी दीवारों को विभिन्न डिजाइनों में बड़े आकार के कांच और छोटे शीशों से सजाया गया है तथा बाद में विक्टोरिया परिधान में खूबसूरत फ्रांसीसी महिलाओं की अर्द्ध-प्रतिमाओं के फ्रांसीसी लीथोग्रफ भी लगाए गए।

रंगमहल की दीवारों को बारीक शीशे की उत्कृस्ट कारीगरी से सजाया गया है और पट्टियों पर शिकार करते हुए और दरबार के दृश्यों के अलावा नायिकाओं, रागनियों और कृष्ण-लीला के दृश्यों को प्रदशित किया गया है। चित्रित पट्टियों के बीच में कुछ शीशे लगे हुए थे, ब्रिटिश काल के दौरान उनकी जगह पर खूबसूरत महिलाओं के फ्रांसीसी लीथोग्राफ लगा दिए गए।

रामनगर शहर शिवालिक पहाड़ियों के प्राकृतिक सौंदर्य से घिरा हुआ है जिसमे अनेक झरने बहते हैं, जो इसकी आसपास के परिवेश को हरा-भरा रखते हैं। यह क्षेत्र कभी पहाडी रियासत हुआ करता था, जिस पर चन्द्र वंश के चम्बा शासक के परिवार से जुड़े बंद्राल राजपूत शासन किया करते थे। बंद्राल्टा राजा भूपेन्द्र देव ने, सिक्ख फौजों द्वारा उन्हें गद्दी से उतारे जाने तक यहाँ सन 1821 ईस्वी तक शासन किया। राजा को मजबूर होकर रामनगर छोडना पडा और उन्होंने अम्बाला (हरियाणा) की पहाड़ियों में शरण ली। रामगर प्राचीन बंद्राल्टा रियासत की राजधानी भी रह चुका है और इसकी बागडोर राजा सुचेत सिंह को सौंपी गयी थी, जो महाराजा रणजीत सिंह (सन 1819-39 ईस्वी) के सिक्ख दरबार में जांबाज सिपहसालार थे। राजा सुचेत सिंह, जम्मू के राजा गुलाब सिंह के भाए भी थे, जो प्राचीन बंद्राल्टा राज्य के शासक बने।

बंद्राल्टा जागीरदारों ने राजा सुचेत सिंह के शासन काल के दौरान 19वीं शताब्दी में इसका नाम बदलकर रामनगर कर दिया। राजा सुचेत सिंह कला और वास्तुकला के महान पारखी थे। उन्होंने रामनगर महल में काफी रूचि दिखाई और शीश महल तथा पुराना महल का निर्माण करवाया। उन्होंने शहर में स्थित किले का जीर्णोद्वार भी करवाया। सन 1844 ईस्वी में रामनगर पर गद्दीनशीं होने के बाद राजा रामसिंह ने नया महल बनवाया। वे रणबीर सिंह के पुत्र थे, जो 1856 ईस्वी में जम्मू व कश्मीर के महाराजा बने और उन्होंने 1880 ईस्वी तक राज किया। राजा सुचेत सिंह ( सन 1801-1844 ईस्वी) और राजा राम सिंह दोनों का कोई वारिस नहीं था, जिसके परिणामस्वरुप सन 1887 ईस्वी में राजा राम सिंह की मृत्यु के बाद उनकी जागीर का जम्मू साम्राज्य में विलय हो गया। कांगड़ा के राजा संसार चन्द की ही तरह राजा सुचेत सिंह भी कला के महान पारखी थे। इसलिये बन्द्राल जागीरदारों के इलाकों में बन्द्राल्टा चित्रकला शैली का उदभव हुआ और यह राजा सुचेत सिंह के शासनकाल में खूब फला-फूला। रामनगर के शीश महल में भित्तिचित्र बनवाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। रामनगर महल परिसर में शीश महल, पुराना महल और नवा महल स्थित हैं जो एक- दूसरे के काफी नजदीक हैं। रामनगर की पहाड़ियों की ढलान पर स्थित ये महल घाटी की खूबसूरती को बढाते हैं।

पुराना महल परिसर में अनेक कमरे हैं। यह तीन मंजिला है और इसकी दीवारें बहुत ऊंची हैं, जिसमें समान दूरी पर बने बुर्ज इसकी शोभा बढाते हैं। कमरों की दीवारों को गचकारी (बारीक चूना) से सजाया गया है और इस पर फूल-पट्टियों और ज्यामिती डिजाइन बनाए गए हैं। अंदरुनी छत में लगी लकड़ी के हिस्सों को भी काफी सजाया गया है। अंदरूनी छत के उभारदार कोने कमल के आकार के हैं। नवा महल के अन्दर एक आँगन है इसके चारों ओर हांल हैं और आमने-सामने दो प्रवेश द्वार हैं। बाहरी ऊंची दीवारों को टेक लगाकर सहारा दिया गया है। हांल की कृत्रिम अंदरूनी छत लकड़ी की कड़ियों से बनी है जिस पर फूलों के दिजाएं बने हुए हैं। शीश महल पुरानी हवेलियों की तरह बना हुआ एक अनूठा भवन है, जिसके चौड़े अलंकृत प्रवेश-द्वार के दोनों ओर सजावट कक्ष हैं, जिनके दाईं ओर भित्तिचित्र बने हुए हैं। इसमें तीन हांल हैं जो दरबार हाल, शीश महल और रंग महल के नाम से जाने जाते हैं। दरबार हाल की विशाल दीवारों को भित्तिचित्रों से सजाया गया है। चित्रकला बंद्राल्टा शैली की विशिस्ट पहाड़ी शैली को दर्शाती है। इनमें महाभारत और रामायण के प्रसंगों को बड़ी दक्षता और कुशलता से चित्रित किया गया है। दीवार पर राजा सुचेत सिंह का दरबार में अपने दरबारियों के साथ एक बेहद खूबसूरत चित्र भी बनाया गया है जो बरबस आकर्षित करता है। युद्ध के कुछ दृश्यों में राज सुचेत सिंह को नायक के रूप में चित्रित किया गया है, जो हांल की श्वेत पृष्ठभूमि को भव्यता प्रदान करते हैं। सम्भवतः इस हल का उपयोग शाही दरबार के रूप में किया जाता होगा। दूसरा कक्ष छोटा है जिसे शिकार दरबार के दृश्यों और राजाओं तथा दरबारियों के चित्रों सहित नदियों, बेलों, पगडण्डी और फूलों की पट्टियों से सजाया गया है।

दीवारों पर बनी पट्टियों में सबसे अधिक आकर्षक पट्टियां वे हैं जिनके ऊपरी कोने पर लगे स्लैब पर नायकों के चित्र बने हुए हैं। गठीले बदन पर सजी अलंकृत वेशभूसा, बारीक कढाई लाल, सफ़ेद और आसमानी रंग की किनारी से सजी हुई है। इसमें सुनहरी पत्तियां लगाई गई हैं। इन चित्रकाओं में बन्द्राल्टा शैली के कुछ उत्क्रस्त पहलुओं की झलक मिलती हैं, जिसकी अवधारणा जम्मू और भासौली की लघु चित्रकारी शैली से प्रभावित है। कुछ आलों में राजकुमारियों और नायिकाओं के चित्र बनाये गए थे, जिन्हें कुछ ब्रिटिश निवासियों द्वारा यूरोपीय मूल की अंग्रेज सुंदरियों के चित्रों से बदल दिया गया था। बीच में लगी कुछ पट्टियों के मूल चित्रों को हटाकर उनके स्थान पर यूरोपीय लीथोग्रफ लगा दिए गए थे। रंगमहल की दीवारों को भगवान् कृष्ण और गोपियों की प्रेम लीलाओं के अनेक चित्रों से सजाया गया है। महल के इस हिस्से का प्रयोग सम्भवतः शाही परिवार के मनोरंजन, संगीत और नृत्य के लिये किया जाता होगा, इसलिये इसे रंगमहल के नाम से जाना जाता हैं।

रंगमहल का अगला कक्ष शीश महल के नाम से जाना जाता है। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस कक्ष में उत्तल शीशे लगे हुए हैं, जिनके बीचों-बीच सुंदर चित्र बने हुए हैं, रामनगर महल परिसर की इन चित्रकलाओं को अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा परिरक्षित और संरक्षित किया जा रहा है क्योंकि इसे रास्ट्रीय महत्व के स्मारक का दर्जा दिया गया है। किसी काल की बहुमूल्य अमूर्त विरासत को नष्ट किये बिना हमें उसे भावी पीढ़ी को सौंपना होगा अन्याथा इनका संरक्षण न करने के लिये भावी पीढियां, वर्त्तमान पीढी को दोषी ठहराएंगी। इससे पहले कि बन्द्राल्टा की यह अद्वित्य चित्रकला परंपरा लुप्त हो जाएँ, इन्हें भावी पीढी को सौंपे जाने की आवश्यकता है।