यह सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय पूर्व तक रहता है। जिस दिन चंद्रमा जिस स्थान पर होता है उस दिन वही नक्षत्र रहता है। सूर्य-चंद्र के 13 अंश 20 कला साथ चलने से एक योग होता है। ये कुल 27 हैं। तिथि के अर्द्ध भाग को करण कहते हैं। इनकी संख्या ग्यारह है। स्थिर करण 7 एवं चर करण 4 होते हैं।
ज्योतिष की चर्चा में राशि का स्थान प्रमुख रूप से होता है। इसी से सभी ग्रह की स्थिति जानी जाती है। ये बारह होती हैं। इनका क्रम भी निश्चित है। अर्थात मेष राशि के पश्चात वृषभ राशि तथा पूर्व में मीन राशि आती है। राशियों का प्रारंभ मेष राशि से होकर अंत मीन राशि पर होता है। इस राशि के समूह को राशि चक्र या भाग चक्र कहते हैं।
यह ग्रहों के मार्ग के हिस्सों में रहता है। यह मार्ग 360 अंश का है। इसके सम बारह हिस्से अर्थात 30-30 अंश की जगह खगोल में एक-एक राशि के हैं। अर्थात प्रत्येक राशि 30 अंश की है। इनके नाम उस स्थान की भौगोलिक आकृति पर ऋषियों ने अथवा आदि ज्योतिषियों ने दिए हैं। अर्थात प्रथम शून्य से लेकर 30 अंश तक की भौगोलिक स्थिति भाग चक्र में मेष के (भेड़ के) आकार की होने के कारण उसे मेष नाम दिया गया है।
सरल शब्दों में कहें तो ग्रह पथ पर राशियाँ स्थान का नाम है। इनका क्रम है- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन।
जन्माक्षर कैसे निकलता है। राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। इस प्रकार बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के चार हिस्से होते हैं, जिन्हें उनके चरण कहा जाता है। प्रत्येक चरण का एक अक्षर होता है। जिस दिन एवं समय जातक का जन्म होता है, उस समय जिस नक्षत्र में चंद्रमा गमन कर रहे होते हैं, उस नक्षत्र के पूरे काल को ज्ञात करके उसके चार हिस्से करते हैं। जिस हिस्से में जातक का समय आता है, उस हिस्से (चरण) के अक्षर से ही प्रथमाक्षर जान सकते हैं। प्रत्येक समय सिर्फ एक अक्षर होता है। यह अक्षर वर्तनी (मात्रा) युक्त या रहित दोनों हो सकता है। अक्षर की मात्रा के अनुसार ही उसका नक्षत्र या राशि होती है। जैसे 'च' अक्षर को लें, लो, च, चा, ची अक्षर मीन राशि के रेवती नक्षत्र के हैं, जबकि चू, चे, चो मेष राशि के अश्विनी नक्षत्र के हैं। अर्थात अक्षर की मात्रा के अनुसार उसके नक्षत्र व राशि बदल जाते हैं।
मूलादि नक्षत्र क्या हैं?
किसी बालक का जन्म होता है तो सामान्यतः यह पूछा जाता है कि बालक को मूल तो नहीं है। इसके उत्तर के लिए जन्मकाल के नक्षत्र को देखें, यदि यह इन 6 में से एक नक्षत्र है तो बालक मूल में हुआ है। अश्वनी, ज्येष्ठा, अश्लेषा, मूल, मघा, रेवती जन्म लिए बालक प्रारंभ में परिजनों के लिए कष्टकारक होते हैं, लेकिन बड़े होकर ये बहुत भाग्यशाली होते हैं। कर्मकांड के अंतर्गत मूल नक्षत्र की शांति भी होती है, जो कि आगे वही नक्षत्र आने पर इसकी शांति करते हैं। वही नक्षत्र लगभग सत्ताईस दिन बाद आता है।
भारतीय पंचाग की कहानी
आइए भारतीय पंचांग यानी भारतीय कलैंडर के बारे में जानते हैं। हमारे देश में लगभग 5,000 वर्ष पहले वैदिक काल में समय की गणना का काम शुरू हो गया था। उन दिनों इस बात का ज्ञान हो चुका था कि चांद्र-वर्ष में 360 से कुछ कम दिन होते हैं क्योंकि एक चंद्र-मास में ठीक 30 दिन नहीं होते। सूर्योदय से सूर्योदय तक के काल को ‘सावन-दिन’ माना गया। तब सावन-मास और चांद्र मास का भी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। बाद में नक्षत्र और फिर ‘तिथि’ का ज्ञान हुआ। अनुमान है कि शक संवत् से लगभग 1400 वर्ष पूर्व तक तिथि और नक्षत्र, समय के इन दो अंगों का ही ज्ञान था। उसके बाद करण, योग और वार का ज्ञान प्राप्त हुआ। इस तरह तिथि, नक्षत्र, वार, करण और योग, समय के इन पांच अंगों से ‘पंचांग’ यानी कलैंडर का विकास हुआ।
क्षेत्रीय आवश्यकताओं और धार्मिक तिथियों की गणना के लिए देश के विभिन्न प्रांतों में कई प्रकार के पंचांग बनाए गए जिनमें से अनेक पंचांग आज भी प्रचलित हैं। लेकिन, प्रशासनिक तथा नागरिक उद्देश्य के लिए संशोधित और मानक भारतीय राष्ट्रीय कलैंडर का प्रयोग किया जाता है।
हमारा राष्ट्रीय कलैंडर प्रोफेसर मेघनाद साहा जैसे समर्पित वैज्ञानिक के सतत प्रयासों का फल है। कलैंडर सुधार का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वासों पर सीधा प्रभाव पड़ने का खतरा मोल लेते हुए भी उन्होंने कलैंडर में वैज्ञानिक सुधार का बीड़ा उठाया और हमारे कलैंडर को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।
प्रोफेसर मेघनाद साहा ने भारतीय पंचांगों और कलैंडर सुधार की आवश्यकता पर ‘जर्नल ऑफ रॉयल एस्ट्रोनामिकल सोसाइटी’, ‘जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी’ और ‘साइंस एंड कल्चर’ जैसी प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिकाओं में लेख लिख कर इस विषय की ओर सरकार और आम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। कलैंडर से संबंधित उनके कुछ लेख इस प्रकार थेः ‘कलैंडर (पंचांग) सुधार की आवश्यकता’, ‘कालांतर में संशोधित कलैंडर तथा ग्रेगोरीय कलैंडर’, ‘भारतीय कलैंडर का सुधार’, ‘विश्व कलैंडर योजना’। ये सभी लेख ‘साइंस एंड कल्चर में प्रकाशित हुए। ‘प्राचीन एवं मध्ययुगीन भारत में काल निर्धारण की विभिन्न विधियां तथा शक संवत् की उत्पत्ति’ जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी में छपा। उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी में ‘शक संवत् की शुरुआत’ पर व्याख्यान दिया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1952 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने एक कलैंडर सुधार समिति गठित की। समिति को देश के विभिन्न प्रांतों में प्रचलित पंचांगों का अध्ययन करके सरकार को सटीक वैज्ञानिक सुझाव देने की जिम्मेदारी सौंपी गई ताकि पूरे देश में एक समान नागरिक कलैंडर लागू किया जा सके। प्रो. मेघनाद साहा इस कलैंडर सुधार समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। समिति के सदस्य थेः ए.सी.बनर्जी, के.के.दफ्तरी, जे.एस.करंडीकर, गोरख प्रसाद, आर.वी.वैद्य तथा एन.सी. लाहिड़ी।
पंचांगों में सबसे प्रमुख त्रुटि थी वर्ष की लंबाई। पंचांग प्राचीन ‘सूर्य सिद्धांत’ पर आधारित होने के कारण वर्ष की लंबाई 365.258756 दिन की होती है। वर्ष की यह लंबाई वैज्ञानिक गणना पर आधारित सौर वर्ष से .01656 दिन अधिक है। प्राचीन सिद्धांत अपनाने के कारण ईस्वी सन् 500 से वर्ष 23.2 दिन आगे बढ़ चुका है। भारतीय सौर वर्ष ‘वसंत विषुव’ औसतन 21 मार्च के अगले दिन मतलब 22 मार्च से शुरु होने के बजाय 13 या 14 अप्रैल से शुरु होता है। दूसरी ओर, जैसे कि पहले बताया गया है, यूरोप में जूलियस सीजर द्वारा शुरू किए गए ‘जुलियन कलैंडर’ में भी वर्ष की लंबाई 365.25 दिन निर्धारित की गई थी जिसके कारण 1582 ईस्वी आते-आते 10 दिन की त्रुटि हो चुकी थी। तब पोप ग्रेगरी तेरहवें ने कलैंडर सुधार के लिए आदेश दे दिया कि उस वर्ष 5 अक्टूबर को 15 अक्टूबर घोषित कर दिया जाए। लीप वर्ष भी स्वीकार कर लिया गया। लेकिन, भारत में सदियों से पंचांग यानी कलैंडर में इस प्रकार का कोई संशोधन नहीं हुआ था।
उन्होंने विश्व कलैंडर योजना का भी सुझाव दिया और 1954 में जेनेवा में आयोजित यूनेस्को के 18वें अधिवेशन में ‘विश्व कलैंडर’ सुधार के लिए प्रस्ताव भेजा। कलैंडर सुधार समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। समिति ने प्रशासनिक तथा नागरिक कलैंडर के लिए महत्वपूर्ण संस्तुतियां कीं। इन संस्तुतियों के अनुसार राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसकी गणनाएं शक संवत् से की जाती हैं। शक संवत् की प्रथम तिथि ईस्वी सन् 79 के वसंत विषुव से प्रारंभ होती है। हमारे राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् 1879 (अठारह सौ उनासी) के चैत्र मास की प्रथम तिथि को आधार माना गया है जो ग्रेगोरीय कलैंडर की गणना के अनुसार 22 मार्च ईस्वी सन् 1957 है। यानी, हमारा संशोधित राष्ट्रीय कलैंडर 22 मार्च 1957 से शुरू होता है।
मिति ने सुझाव दिया कि वर्ष में 365 दिन तथा लीप वर्ष में 366 दिन होंगे। लीप वर्ष की परिभाषा देते हुए सुझाव दिया गया कि शक संवत् में 78 जोड़ने पर जो संख्या मिले वह अगर 4 से विभाजित हो जाए तो वह लीप वर्ष होगा। लेकिन, अगर वर्ष 100 का गुणज तो है लेकिन 400 का गुणज नहीं है तो वह लीप वर्ष नहीं माना जाएगा। राष्ट्रीय परंपरागत भारतीय मास 12 हैं : चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ और फाल्गुन। समिति ने यह भी संस्तुति की कि वर्ष का प्रारंभ वसंत विषुव के अगले दिन से होना चाहिए। कलैंडर में चैत्र मास वर्ष का प्रथम मास होगा। चैत्र से भाद्र तक प्रत्येक मास में 31 दिन और आश्विन से फाल्गुन तक प्रत्येक मास में 30 दिन होंगे। लीप वर्ष में, चैत्र मास में 31 दिन होंगे अन्यथा सामान्य वर्षों में 30 दिन ही रहेंगे। लीप वर्ष में चैत्र मास की प्रथम तिथि 22 मार्च के बजाय 21 मार्च होगी। समिति ने कहा कि जो उत्सव और अन्य महत्वपूर्ण तिथियां 1400 वर्ष पहले जिन ऋतुओं में मनाई जाती थीं, वे 23 दिन पीछे हट चुकी हैं। फिर भी धार्मिक उत्सवों की तिथियां परंपरागत पंचांगों से ही तय की जा सकती हैं। समिति ने धार्मिक पंचांगों के लिए भी दिशा निर्देश दिए। ये पंचांग सूर्य और चंद्रमा की गतियों की गणनाओं के आधार पर तैयार किए जाते हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग प्रति वर्ष भारतीय खगोल पंचांग प्रकाशित करता है। छुट्टियों की तिथियों की गणना इसी के आधार पर की जाती है।
हमारे राष्ट्रीय कलैंडर के लीप वर्ष विश्व भर में प्रचलित ग्रेगोरी कलैंडर के समान हैं। ग्रेगोरीय कलैंडर में 21 मार्च की तिथि वसंत विषुव यानी वर्नल इक्विनॉक्स मानी गई है।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कलैंडर सुधार समिति की रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा था, “हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। यह वांछनीय होगा कि हमारे नागरिक सामाजिक और अन्य कार्यों में काम आने वाले कलैंडर में कुछ समानता हो और इस समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए।”
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