विवाह शौक, मजबूरी, जरूरत नहीं एक दिव्य परंपरा है। ऐसी जीवन शैली है जो आध्यात्मिक और सांसारिक लक्ष्य में साधक बनती है बाधक नहीं। आज अगहन शुक्ल पंचमी, श्रीराम विवाहोत्सव को, उनके पावन प्रसंग को याद करें। नया कुछ नहीं है सभी का विवाह होता है, लेकिन यहां जो अनूठा घटा उसे जीवन से जोड़ा जा सकता है। जनकराजा की सभा में रखा धनुष टूटा था उसके पश्चात ही विवाह हो पाया था। धनुष का पूरा गठन और क्रिया अहंकार का प्रतीक है। श्रीराम ने पहले अहंकार तोड़ा फिर दाम्पत्य में प्रवेश किया था। यदि अपने-अपने अहंकार के साथ गृहस्थी आरंभ होगी तो घर को अशांति का अड्डा और उपद्रव का अखाड़ा बनने से कौन रोक सकेगा।हमारे यहां परिवारों में विवाह पूर्व वर-वधु की खूब तैयारी की जाती है। घर बाजार एक कर दिए जाते हैं। पता ही नहीं चलता कि शादी हो रही है या धंधा हो रहा है। हर रीति रीवाज पर दिखावा इतना हावी हो जाता है कि हम भूल ही जाते हैं कि परिवार प्रदर्शन पर नहीं, प्रेम पर टिका होना चाहिए।भरपूर शारीरिक और सांसारिक तैयारी के साथ युवक-युवती, पति-पत्नी बना दिए जाते हैं। पति-पत्नी बनने के पूर्व अहंकार का गलना और प्रेम के पनपने की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे पाता। परिणाम होता है विवाह पश्चात पति-पत्नी के रूप में दो महत्वाकांक्षाएं टकरा जाती है, दो आस्तित्व भिड़ जाते हैं। अपने-अपने सपने चूर हो जाते हैं और दोषारोपण, लंबा सिलसिला शुरू होता है, संभवत: आजीवन ही।पुन: चलें श्रीराम-सीता विवाह की ओर। पहले अहंकार तोड़ा फिर वरमाला डाली, यानि एक-दूसरे की प्रत्येक गतिविधि की पूर्ण स्वीकृति प्रसन्नता के साथ। फिर गठबंधन यानि जुड़ाव। यही क्रम है भगवान से भक्ति के मिलने का। श्रीराम-सीता विवाह भक्ति के भगवान से मिलने का पर्व है। हम भी अपनी भक्ति को भगवान से जोड़ने का ऐसा प्रयास करें और इसी प्रयास को दाम्पत्य में उतारें, फिर गृहस्थी वैकुंठ होगी जंजाल नहीं।
22 अप्रैल 2010
..तो गृहस्थी वैकुंठ होगी, जंजाल नहीं
विवाह शौक, मजबूरी, जरूरत नहीं एक दिव्य परंपरा है। ऐसी जीवन शैली है जो आध्यात्मिक और सांसारिक लक्ष्य में साधक बनती है बाधक नहीं। आज अगहन शुक्ल पंचमी, श्रीराम विवाहोत्सव को, उनके पावन प्रसंग को याद करें। नया कुछ नहीं है सभी का विवाह होता है, लेकिन यहां जो अनूठा घटा उसे जीवन से जोड़ा जा सकता है। जनकराजा की सभा में रखा धनुष टूटा था उसके पश्चात ही विवाह हो पाया था। धनुष का पूरा गठन और क्रिया अहंकार का प्रतीक है। श्रीराम ने पहले अहंकार तोड़ा फिर दाम्पत्य में प्रवेश किया था। यदि अपने-अपने अहंकार के साथ गृहस्थी आरंभ होगी तो घर को अशांति का अड्डा और उपद्रव का अखाड़ा बनने से कौन रोक सकेगा।हमारे यहां परिवारों में विवाह पूर्व वर-वधु की खूब तैयारी की जाती है। घर बाजार एक कर दिए जाते हैं। पता ही नहीं चलता कि शादी हो रही है या धंधा हो रहा है। हर रीति रीवाज पर दिखावा इतना हावी हो जाता है कि हम भूल ही जाते हैं कि परिवार प्रदर्शन पर नहीं, प्रेम पर टिका होना चाहिए।भरपूर शारीरिक और सांसारिक तैयारी के साथ युवक-युवती, पति-पत्नी बना दिए जाते हैं। पति-पत्नी बनने के पूर्व अहंकार का गलना और प्रेम के पनपने की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे पाता। परिणाम होता है विवाह पश्चात पति-पत्नी के रूप में दो महत्वाकांक्षाएं टकरा जाती है, दो आस्तित्व भिड़ जाते हैं। अपने-अपने सपने चूर हो जाते हैं और दोषारोपण, लंबा सिलसिला शुरू होता है, संभवत: आजीवन ही।पुन: चलें श्रीराम-सीता विवाह की ओर। पहले अहंकार तोड़ा फिर वरमाला डाली, यानि एक-दूसरे की प्रत्येक गतिविधि की पूर्ण स्वीकृति प्रसन्नता के साथ। फिर गठबंधन यानि जुड़ाव। यही क्रम है भगवान से भक्ति के मिलने का। श्रीराम-सीता विवाह भक्ति के भगवान से मिलने का पर्व है। हम भी अपनी भक्ति को भगवान से जोड़ने का ऐसा प्रयास करें और इसी प्रयास को दाम्पत्य में उतारें, फिर गृहस्थी वैकुंठ होगी जंजाल नहीं।
Labels: ज्ञान- धारा
Posted by Udit bhargava at 4/22/2010 06:01:00 pm
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