वैसे तो भोग-विलास को धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में त्याज्य यानि कि त्याग देने योग्य कार्य माना गया है। किन्तु यह नियम या मर्यादा उस साधक के लिये है जो साधना के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति एवं प्रगति कर चुका हो।किसी नए एवं कच्चे साधक को यदि पूर्ण त्याग या पूर्ण वैराग्य की सीख दी जाए तो उसके लिये इसका पालन करना प्राय: कठिन ही होता है। यदि हिम्मत करके कोई साधक अपनी समस्त वृत्तियों पर एक ही साथ पूर्ण बंदिश लगा भी देता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि मौका मिलते ही नियंत्रण का बांध एक ही झटके में चरमरा के गिर जाता है।
अत: बार-बार की ठोकर खाने से अच्छा है कि हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखा जाए। मन को किसी कार्य से एक साथ रोकने की बजाय अनुभव से सीखने दिया जाए। अध्यात्म के तत्व ज्ञान में भी यही बात कुछ इस तरह से कही गई है - ' तेन त्यक्तेन भूंजीथा Ó
कहने का मतलब यह है कि भोग करो मगर त्याग के साथ। त्याग के साथ भोग करने का मतलब है खुली आंखों से भोग करना। यानि जब भी किसी इन्द्रिय सुख का भोग करो उसका पूरे ध्यान से निरीक्षण भी करो। पूरे साक्षी भाव से किया गया निरीक्षण आपको उस दिव्य ज्ञान से रूबरू करवा देगा जिसे पाकर आप समझ जाएंगे कि हर इंद्रिय सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख ही है। जबकि हर त्याग का परिणाम अन्तत: सुखद ही होता है।
18 अप्रैल 2010
भोग करो मगर खुली आंख से
Posted by Udit bhargava at 4/18/2010 10:10:00 pm
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