21 अप्रैल 2010

कलचुरि कालीन संस्कृतिक इतिहास



 नोहटा की भौगोलिक स्थिति- 23 40 उत्तरी अक्षांश तथा 79 30 पूर्वी देशांतर पर व्यारमा नदी की सहायक गोरया तथा व्यारमा के संगम पर है। दमोह से दक्षिण पूर्व की ओर नोहटा-जबलपुर मार्ग पर दमोह से 23 किलोमीटर की दूरी पर नोहटा नामक कस्बा है। कस्बे से एक कि.मी. जबलपुर मार्ग के बांई ओर कलचुरि शिखर का शिव मंदिर अवस्थित है। स्थानीय निवासे इसे "मढा" कहते हैं।

त्रिपुरी के कलचुरि-नरेश युधराज देव प्रथम के शासनकाल में उसकी धर्मात्मा पत्नी महारानी नोहला देवी द्वारा शैवाचार्यों के निर्देशन में यहां नोहलेश्वर शिव मन्दिर की स्थापना कराई गई। इसका निर्माण काल ईस्वी माना गया है। कलचुरियों के शासनकाल में त्रिपुरी, मडाघाट, बिलहारी, कारीतलाई, नोहटा, गुबरा, दोनी, कोडल, सोहागपुर, अमरकंटक, गुर्गी, चंद्रेहे आदि उल्लेखनीय कला केन्द्र थे। संस्कृत के सुप्रसिद्ध लेखक महाराज राजशेखर तथा अनेक विद्वानों और शैवाचार्यों ने कलचुरि-नरेशों के संरक्षण में कला तथा साहित्य के सृजन में महान योगदान दिया था।

कलचुरि शासन काल में इस भूभाग का चहुंमुखी विकास हुआ। काल विशेष में धर्म, साहित्य एवं कला-संस्कृति अपने चर्मोत्कर्ष पर थी, फ़लस्वरूप नोहलेश्वर मन्दिर का संस्कृतिक समरसता के सौहार्द्र में अभूतपूर्व योगदान रहा। ग्राम्य जीवन के संस्कृतिक पहलू को जानने के लिये स्मारक उपयोगी रहे हैं। कतिपय नोहटा ग्रामवासियों के मकानों की भित्तियों, अन्य कई स्थलों पर चतुर्भुजी देवी, नवग्रह, युगल प्रतिमाएं, चतुर्भुजी कंकाली, दण्डधर शिव, गजासुर संहारक शिव, पार्वती, गणेश आदि की प्रतिमाओं के अतिरिक्त वास्तुकला के अवशेष विघमान हैं। मन्दिर परिसर में 20 प्रतिमाएं संरक्षित हैं जो विविध देवी-देवताओं की हैं।

वर्तमान पुरातत्व शास्त्रियों के पुरातत्वीय अध्ययन के फ़लस्वरूप दमोह जिले के इतिहास को जानने में नोहलेश्वर मन्दिर के महत्व को नहीं भुलाय जा सकता है। तत्कालीन समय में शैव सम्प्रदाय उपासना, धर्मिक सद्भावना, सहिष्णुता, संस्कृतिक मेल-जोल की भावना को उजागर करता है।

क्षेत्र विशेष के अन्तर्गत जिले के ऐतिहासिक स्थलों पर नजर डालें तो कुण्डलपुर, नोहटा, कोडल, सकोर, बव्यिगढ, रनेह, हिण्डोरिया, सगोरिया, चौपडापट्टी, गुबारा, दोनी, मोहड, डूमर, बडगवां, छितराखेडा, फ़तेहपुर आदि स्थानों से क्षेत्र विशेष का परवर्ती इतिहास ज्ञात होता है।

क्षेत्र विशेष से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि दसवीं सदीं से लेकर 13वीं सदीं तक दमोह क्षेत्र के अंतर्गत कलचुरी कालीन काल का चहुंमुखी विकास हुआ। कलचुरी काल में विवेच्य क्षेत्र की समर्धि हुई। कल्च्चुरी शासक युवराज देव प्रथम गांगेयदेव लक्ष्मी कर्ण के समय में इस क्षेत्र में मंदिरों तथा मूर्तियों का व्यापक निर्माण करवाया गया। कलचुरी कालीन आरंभिक मूर्तिकला उच्चकोटि की थी। उसमें सुव्यवस्थित अंग-विन्यास के साथ-साथ भाव-प्रदशन का अत्यंत रोचक समन्वय मिलता है। कलचुरी शासकों ने साहित्यकारों तथा कुशल कलाकारों को राजाश्रय प्रदान किया।

युवराज देव प्रथम ईसवी सन 915 से 1945  तक कलचुरी शासक थे। वे अप्रतिम वीर, नीतिज्ञ तथा उदार शासक थे। युवराज देव के उतराधिकारी एवं अन्य सामयिक राजवंशों के लेखों में इस रजा के सम्बन्ध में पर्याप्त विवरण उपलब्ध है। राजशेखर कृत संस्कृत रचना विद्वशालभंजिका में भी इस राजा के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। युवराज देव का अन्य नाम कपूर्वर्ष अथवा कपूर्वर्ष प्राप्त होता है। इसके पुत्र द्वितीय लक्ष्मण राज के कारीतालाई शिलालेख में उसके विविध सैन्य अभियानों का विवरण है। बिल्हारी अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने गौड़(बंगाल), कर्णाट(कर्नाटक), गुजरात(लाट), कलिंग(उडीसा) तथा कश्मीर पर आक्रमण किया और उन प्रदेशों की रमणियों से विवाह किया। चन्देल रजा यशोवर्मा के अभिलेख में युव्राज देव के प्रताप का वर्णन निम्न पद ’विख्यात क्षितिपाल मौलीरचना विनय स्तपादाम्बुज’ (जिसने अपना पद-कमल प्रख्यात नरेशों के सिर पर स्थापित किया), में किया गया है। उसने सम्राट पड़ की सूचक पदवियां-परमेश्वर, चक्रवर्ती तथा त्रिकलिंगाधिपति धारण कर राखी थीं। राजशेखर कृत विद्वशाळाभंजिका नाटक के चतुर्थ अंक में युवराज देव द्वारा विभिन्न प्रदेशों पर विजय की चर्चा अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से की गयी है। द्वितय लक्ष्मण राज के कारीतालाई अभिलेख के अनुसार युवराज देव ने गुर्जर प्रतिहार नरेश महिपाल पर विजय प्राप्त की थी उसने गौदाधिपति, मालवनृपति और इसी तरह दक्षिण कौशालाधिपति को पराजित किया था। राष्ट्रकूट नृपति इन्द्र ने किसी कलचुरी राजकन्या से विवाह किया था। उसकी कन्नौज की चढ़ाई के समय युवराज देव ने उसे मदद पहुंचाई थी। राष्ट्रकूट और कलचुरि की सामूहिक शक्ति के समक्ष प्रतिहार नरेश महिपाल न टिक सका और उसे भी अपनी राजधानी छोड़कर भागना पडा और तभी से प्रतिहारों के साम्राज्य का ह्वास होने लगा। सुप्रसिद्ध संस्कृत कवी राजशेखर कन्नौज में प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल और महिपाल के आश्रय में थे। इस आक्रमण के बाद वे त्रिपुरी आये। वहां उन्हों "विद्वशालभंजिका" नामक नाटिका और संस्कृत साहित्य पर काव्य मीमांसा नामक एक बहुमूल्य ग्रन्थ की रचना की थी। माना जाता है कि चंदेल वंशीय त्रैलोक्यवर्मन ने 1211 ई. के लगभग त्रिपुरी के विजय सिंह को पराजित करके उसकी साम्राज्य सत्ता अपनी हाथों में ले ली थी। त्रैलोक्यमल्ल को चंदेलवंश का त्रैलोक्यवर्मन माना गया और यह निष्कर्ष निकाला गया कि उसने कलचुरी विजय सिंह से यह प्रदेश छीन लिया था।

माण्डला जिले के झूलपुर ग्राम से प्राप्त ताम्रपत्र द्वारा जानकारी मिलती है कि कलचुरी राजा विजय सिंह का पुत्र त्रैलोक्यममल्ल था। उसका जन्म 1197 ई. में हुआ था| चूंकि चंदेल त्रैलोक्यवर्मन की मृत्यु 1245 में हो चुकी थी, इसलिये 1250 ई. में राज्य करने वाला त्रिकलिंगाधिपति त्रैलोक्यवर्मन देव वास्तव में विजय सिंह का पुत्र कलचुरी राजा त्रैलोक्यमल्ल था। कलचुरी नरेश त्रैलोक्यमल्ल 1250 ई. तक राज्य करता रहा, लेकिन उसके बाद त्रिपुरी के कलचुरी वंश के इतिहास का अध्याय समाप्त होता है।