प्रणाम करने के भी कई तरीके या प्रकार हैं। हाथ जोड़कर, झुककर, पैर छूकर या साष्टांग दण्डवत होकर। प्रणाम करने की यह क्रिया, सम्मान करने और पाने वाले पर निर्भर करती है। किसी के प्रति सम्मान व्यक्त करने का कार्य हृदय से होता है न कि दिमाग से। जिसके प्रति हमारे हृदय में सच्चा सम्मान होता है तो प्रणाम करने की क्रिया अनायास ही हो जाती है। यदि प्रणाम करने से पूर्व हमारा दिमाग सक्रिय हो तो समझना चाहिये कि सम्मान सच्चा नहीं महज दिखावा है।
माता-पिता और गुरु के प्रति हमारे मन में ऐसा ही सच्चा प्रेम होता है। इनमें भी जो प्रेम गुरु के प्रति होता है वह अधिक आदर्श माना गया है। क्योंकि गुरु और शिष्य का रिश्ता ही सर्वाधिक लम्बा और स्थाई होता है। माता-पिता, पति-पत्नी तथा संतान आदि के प्रति जो प्रेम संबंध होता है, वह सांसारिकता और मोह से जन्मा होता है। जबकि गुरु के प्रति जो प्रेम संबंध होता है वह आध्यात्मिक और निस्वार्थ होता है। एक मात्र गुरु ही है जो हमारे दु:ख को स्थाई रूप से दूर कर सकता है। कहा जाता है कि इंसान अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है। यह बात सांसारिक रिश्तों पर ही लागू होती है क्योंकि गुरु मरने के बाद भी जन्मों तक साथ निभाने की क्षमता रखता है। इसीलिये सच्चे गुरु और माता-पिता को किया गया प्रणाम ही सार्थक एवं फलदाई होता है।
18 अप्रैल 2010
उन्हें आगे, पीछे और चारों ओर से प्रणाम
Posted by Udit bhargava at 4/18/2010 10:27:00 pm
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