22 अप्रैल 2010

सिर्फ बड़े होने से नहीं आता बड़प्पन

कई लोगों को यह शिकायत होती है कि वे घर, परिवार या समाज के बड़े हैं लेकिन उन्हें वैसा सम्मान नहीं मिलता। छोटे उनकी राय को नहीं मानते, कभी-कभी तो ऐसे में घर के बड़े-बुजुर्ग डिप्रेशन में भी चले जाते हैं। सम्मान का अधिकार हमारा है लेकिन जो बड़े हैं उन्हें भी एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या वे व्यवहार, सोच और चिंतन में बड़े हैं।

हमारे व्यवहार और विचारों में भी बड़प्पन झलकना चाहिए। जो लोग घर में या किसी व्यवस्था में उम्र में बड़े हों, शीर्ष पद पर हों उन्हें निर्णय लेने में गहराई और दूरदर्शिता बनाए रखना चाहिए। श्रीराम के एक निर्णय से संकेत मिलता है। जब विभीषण ने श्रीराम की शरण ली। श्रीराम ने शरणागत वत्सलता की रघुकुल रीत निभाई और विभीषण के सिर पर कृपा का हाथ रख दिया। श्रीराम के मित्र और वानरराज सुग्रीव इस निर्णय से सहमत नहीं थे। उन्होंने राय दी थी - भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बांधि मोहि अस भावा।। कहा- ‘‘हे रघुवीर! विभीषण पर विश्वास करना ठीक नहीं है। आखिर वह शत्रु का भाई है। संभव है, हमारा भेद लेने आया हो। इसे बांधकर रखना उचित होगा।’’ सुग्रीव अपनी असहमति की स्पष्ट राय दे चुके थे। श्रीराम ने उनका भी मान रखने के लिए कहा था - मित्र सुग्रीव, तुमने नीति तो अच्छी बताई है लेकिन मेरा प्रण है शरणागत के भय को दूर करने का। फिर श्रीराम ने विभीषण को स्वीकार किया। न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि समुद्र से जल मंगाकर विभीषण का राज्याभिषेक भी कर दिया। यहां श्रीराम का निर्णय सवरेपरि रहा।जब जीवन सामूहिक स्थितियों में हो तब शीर्ष पुरुषों को निर्णय लेने में कई एंगल पर अपना ध्यान टिकाना पड़ता है। विभीषण से सुग्रीव सहमत नहीं थे और लक्ष्मण, सुग्रीव तथा विभीषण दोनों से ही असहमत रहे किन्तु श्रीराम के लिए यह तीनों महत्वपूर्ण थे। इन तीनों से श्रीराम के जो सम्बन्ध थे उनमें हनुमान एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। हनुमान सेवा और प्रेम का पर्याय है। श्रीराम जानते थे मुझे निर्णय मेरी दृष्टि से लेना है किन्तु सहमत और प्रसन्न सबको रखना है। बड़प्पन इसी का नाम है।