05 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – सती का आत्मदाह



दक्ष प्रजापति एवं शंकर जी में परस्पर बैर बढ़ता गया। कुछ काल पश्चात् ब्रह्मा जी ने दक्ष को सभी प्रजापतियों का स्वामी बना दिया। जिससे दक्ष का गर्व और भी बढ़ गया। उसने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। दक्ष ने उस यज्ञ में सभी देवर्षि, ब्रह्मर्षि, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों, देवताओं आदि को निमन्त्रित किया। केवल शंकर जी को बुलावा नहीं भेजा गया। सभी देवता पितर आदि ने अपनी-अपनी गृहणियों के सहित अपने-अपने विमानों में बैठ कर यज्ञ में प्रस्थान किया। आकाश में विमानों को जाते हुये देखकर दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने महादेव जी से कहा, “हे देवाधिदेव! मैंने सुना है कि मेरे पिता ने एक बड़े भारी यज्ञ का आयोजन किया है। मुझे प्रतीत होता है कि ये देवता, यज्ञ, गन्धर्व आदि अपनी अपनी पत्नियों सहित सज धज कर तथा विमानों में बैठ कर वहीं के लिये प्रस्थान कर रहे हैं। वहाँ पर मेरी बहनें भी अपने अपने पतियों के साथ अवश्य पधारी होंगी। मेरी इच्छा है कि मैं भी आपके साथ यज्ञ में जा कर अपने पिता के यज्ञ की शोभा बढ़ाऊँ।”


महादेव जी बोले, “हे प्रिये! तुमने बहुत अच्छी बात कही है। तुम्हारे पिता ने तुम्हारी सभी बहनों को निमन्त्रित किया है किन्तु बैर भाव के कारण मेरे साथ तुम्हें भी न्यौता नहीं दिया। ऐसी स्थिति में वहाँ जाना उचित नहीं है।” इस पर सती जी बोलीं, “हे प्राणनाथ! पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है।” सती जी के ऐसा कहने पर शिव जी ने हँस कर कहा, “हे प्रिये! तुम्हारा कथन सत्य है कि पति, गुरु, माता-पिता तथा इष्ट मित्रों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जाया जा सकता है। किन्तु यह तभी हो सकता है जब उनसे कोई द्वेष भाव न हो। तुम्हारे पिता को अति अभिमान है इसलिये वहाँ जाने पर वे तुम्हारा निरादर कर सकते हैं।” सती के मन में अपने पिता के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा थी इसलिये उन्हें शिव जी की बातों से वे अति उदास हो गईं। सती की अपने पिता दक्ष प्रजापति के यहाँ जाने की प्रबल इच्छा को देख कर शंकर जी ने विचार किया कि यदि सती को न जाने दिया जायेगा तो यह प्राण त्याग देंगी और जाने पर भी प्राण त्यागने की सम्भावना है। अतः शंकर जी ने इसे काल की गति मानकर और होनहार को प्रबल समझकर अपने हजारों सेवक तथा वाहनों समेत सती को दक्ष के यहाँ भेज दिया।

कुछ ही काल में सती अपने पिता के यज्ञस्थल में पहुँच गईं। वहाँ पर वेदज्ञ ब्राह्मण उच्च स्वरों में वेद की ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। यज्ञस्थल की शोभा अद्वितीय थी। सती को देख कर उनकी माता और बहनें प्रसन्न हुईं किन्तु दक्ष प्रजापति ने सती को देखते ही कुदृष्टि करके मुँह फेर लिया। सती अपने इस अपमान को सह न सकीं। जब सती ने यज्ञ मण्डप में जाकर यह देखा कि उनके पति महादेव जी को यज्ञ में कोई भाग नहीं दिया गया है ति उन्हें अति क्रोध आया। दक्ष के इस अभिमान तथा शिव जी के के साथ किये गये द्वेष भाव को वे और अधिक सह न सकीं। वे यज्ञ में अपने पिता के पास आकर बोलीं, “हे पिता! इस संसार में भगवान शंकर से बढ़कर कोई देवता नहीं है। इसीलिये उन्हें देवाधिदेव महादेव कहते हैं। वे मेरे पति हैं और आपने समस्त देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष यज्ञ में उनका भाग न देकर उनकी निन्दा की है। अपने स्वामी की निन्दा देख-सुन कर मैं कदापि जीवित नहीं रह सकती। अब मैं आपसे उत्पन्न इस शरीर को त्याग दूँगी क्योंकि आप के रक्त से बना यह शरीर अपवित्र है।”

इतना कह कर सती मौन हो उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ गईं। आचमन से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके पीत वस्त्र से शरीर को ढँक लिया। नेत्र बन्द करके प्रणायाम द्वारा प्राण और अपान वायु को एक करके नाभिचक्र में स्थापित किया। तत्पश्चात् उदान वायु को नाभिचक्र से ऊपर ले जाकर शनैः शनैः हृदयचक्र में बुद्धि के साथ स्थित किया। फिर उदान वायु को ऊपर उठाकर कण्ठ मार्ग से भृकुटियों के मध्य स्थापित कर लिया। इसके बाद भगवान शंकर के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। सती के इस प्रकार देह त्याग पर सम्पूर्ण उपस्थित देवता, ऋषि-महर्षि आदि सभी ने दक्ष को बुरा भला कहा। शंकर जी का द्रोही होने के कारण उसका अपयश होने लगा।

सती के साथ आये हुये हुये शिव जी के गण यज्ञ का विध्वंश करने लगे। यज्ञ का विध्वंश देख कर भृगु ऋषि ने उस यज्ञ की रक्षा की।