पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में रहते कुछ काल व्यतीत हो गया तो एक दिन उनके यहाँ भ्रमण करता हुआ एक ब्राह्मण आया। पाण्डवों ने उसका यथोचित सत्कार करके पूछा, “देव! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “मैं महाराज द्रुपद की नगरी पाञ्चाल से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं।” पाण्डवों ने प्रश्न किया, “हे ब्राह्मणोत्तम! द्रौपदी में क्या-क्या गुण तथा विशेषताएँ हैं?” इस पर ब्राह्मण बोला, “पाण्डवगण! गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट याज तथा उपयाज नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, “इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये जिससे कि वे आपको वे महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।” महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न हो कर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के सँहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा रखा गया। द्रुपद ने धृष्टद्युम्न को शिक्षा के लिये द्रोणाचार्य के पास भेज दिया और द्रोणाचार्य अपनी समस्त शत्रुता को त्याग कर उस बालक को विद्या प्रदान करने लगे। बालिका अब युवा होकर अत्यन्त लावण्यमयी हो गई है और उसी का स्वयंवर होने वाला है।
उस ब्राह्मण के प्रस्थान करने के पश्चात् पाण्डवों से भेंट करने वेदव्यास जी आ पहुँचे। वेदव्यास ने पाण्डवों को आदेश दिया कि तुम लोग पाञ्चाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पाञ्चाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है क्योंकि पूर्व जन्म में उसने भगवान शंकर की तपस्या की थी और उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर शिव जी ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जा कर उसे प्राप्त करो। इतना कह कर वेद व्यास वहाँ से चले गये।
05 जनवरी 2010
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – द्रौपदी का जन्म
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Posted by Udit bhargava at 1/05/2010 05:17:00 pm
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