शिशु से बालक, तरुण एवं युवा होते कृष्ण ने अपनी बाल लीला करते हुये तृणावर्ण, अघासुर, अरिष्टासुर, केशी, व्योमासुर, चाणूर, मुष्टिक तथा कंस जैसे दुष्ट दैत्यों और राक्षसों का वध कर डाला। राधा तथा गोपियों के साथ रासलीला की। यमुना के भीतर घुसकर विषधर कालिया नाग को नाथा। गोवर्धन पर्वत को उठा कर इन्द्र के अभिमान को चूर-चूर किया। अपने बड़े भाई बलराम के द्वारा धेनुकासुर तथा प्रलंबसुर का वध करवा दिया। विश्वकर्मा के द्वारा द्वारिका नगरी का निर्माण करवाया। कालयवन को भस्म कर दिया। जरासंघ को सत्रह बार युद्ध में हराया। चूँकि जरासंघ के पाप का घड़ा अभी भरा नहीं था और उसे अभी जीवित रहना था, इसलिये अठारहवीं बार उससे युद्ध करते हुये रण को छोड़ कर द्वारिका चले गये। इसीलिये कृष्ण का नाम रणछोड़ पड़ा। इस प्रकार कृष्ण युवा हो गये।
कृष्ण के शील व पराक्रम का वृत्तान्त सुनकदर विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी उन पर आसक्त हो गईं। विदर्भराज के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और एक पुत्री रुक्मणी थी। रुक्मणी सर्वगुण सम्पन्न तथा अति सुन्दरी थी। उसके माता-पिता उसका विवाह कृष्ण के साथ करना चाहते थे किन्तु रुक्म चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। अतः उसने रुक्मणी का टीका शिशुपाल के यहाँ भिजवा दिया। रुक्मणी कृष्ण पर आसक्त थी इसलिये उसने कृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों संदेशा भेजा। कृष्ण ने संदेश लाने वाले ब्राह्मण से कहा, “हे ब्राह्मण देवता! जैसा रुक्मणी मुझसे प्रेम करती हैं वैसे ही मैं भी उन्हीं से प्रेम करता हूँ। मैं जानता हूँ कि रुक्मणी के माता-पिता रुक्मणी का विवाह मुझसे ही करना चाहते हैं परन्तु उनका बड़ा भाई रुक्म मुझ से शत्रुता रखने के कारण उन्हें ऐसा करने से रोक रहा है। तुम जाकर राजकुमारी रुक्मणी से कह दो कि मैं अवश्य ही उनको ब्याह कर लाउँगा।”
केवल दो दिनों बाद ही रुक्मणी का शिशुपाल से विवाह होने वाला था। अतः कृष्ण ने अपने सारथी दारुक को तत्काल रथ लेकर आने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर दारुक रथ ले कर आ गया। उस रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहर्षक नाम के द्रुतगामी घोड़े जुते हुये थे। रथ में बैठकर कृष्ण विदर्भ देश के लिये प्रस्थान कर गये। सन्ध्या तक वे विदर्भ देश की राजधानी कुण्डिलपुर पहुँच गये। वहाँ पर शिशुपाल की बारात पहुँच चुकी थी। बारात में शाल्व, जरासंघ, दन्तवक्र, विदूरथ, पौन्ड्रक आदि सहस्त्रों नरपति सम्मिलित थे और ये सभी श्री कृष्ण तथा बलराम के विरोधी थे। उनको रुक्मणी को हर ले जाने लिये कृष्ण के आने की सूचना भी मिल चुकी थी इसलिये वे कृष्ण को रोकने के लिये अपनी पूरी सेना के साथ तैयार थे। इधर जब कृष्ण के अग्रज बलराम को जब सूचना मिली की रुक्मणी को लाने के लिये कृष्ण अकेले ही प्रस्थान कर चुके हैं और वहाँ विरोधी पक्ष के सारे लोग वहाँ उपस्थित हैं तो वे भी अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर द्रुतगति से चल पड़े और कुण्डिलपुर में पहुँच कर कृष्ण के साथ हो लिये।
रुक्मणी अपनी सहेलियों के साथ गौरी पूजन के लिये मन्दिर जा रही थीं। उनके साथ उनकी रक्षा के लिये शिशुपाल और जरासंघ के नियुक्त किये गये अनेक महाबली दैत्य भी थे। रुक्मणी की उस टोली को देखते ही सारथी दारुक ने रथ को उनकी ओर तीव्र गति से दौड़ा दिया और पलक झपकते ही रथ पहरे के लिये घेरा बना कर चलते हुये दैत्यों को रौंदते हुये रक्मणी के समीप पहुँच गया। कृष्ण ने रुक्मणी को उनका हाथ पकड़ कर रथ के भीतर खींच लिया। रुक्मणी के रथ के भीतर पहुँचते ही दारुक ने रथ को उस ओर दौड़ा दिया जिधर अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ बलराम उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। पहरेदार देखते ही रह गये।
रुक्मणी के हरण का समचार सुनते ही जरासंघ और शिशुपाल अपने समस्त सहायक नरपतियों और उनकी सेनाओं के साथ कृष्ण के पास पहुँच गये। बलराम और उनकी चतुरंगिणी सेना पहले से ही तैयार खड़ी थी। दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी और घोर संग्राम छिड़ गया। बलराम जी ने अपने हल और मूसल से हाथियों की सेना को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया जैसे घनघोर बादलों को वायु छिन्न-भिन्न कर देती है। कृष्ण के सुदर्शन चक्र ने विरोधियों की सेना में तहलका मचा दिया। किसी के हाथ किसी के पैर तो किसी के सिर कट कट कर गिरने लगे। शिशुपाल की पराजय हो गई।
शिशुपाल की पराजय होने पर रुक्मणी का बड़ा भाई रुक्म अत्यन्त क्रोधित होकर कृष्ण के सामने आ डटा। उसने प्रतिज्ञा की थी कि यदि मैं कृष्ण को मार कर अपनी बहन को न लौटा सका तो लौट कर नगर में नहीँ आउँगा। उसने कृष्ण पर तीन बाण छोड़े जिन्हें कृष्ण के बाणों ने वायु में ही काट दिया। फिर कृष्ण ने अपनी बाणों से रुक्म के सारथी, रथ, घोड़े, धनुष और ध्वजा को काट डाला। रुक्म एक दूसरे रथ में फिर आया तो कृष्ण ने पुनः दूसरे रथ का भी वैसा ही हाल कर दिया। रुक्म ने गुलू, पट्टिस, परिध, ढाल, तलवार, तोमर तथा शक्ति आदि अनेक अस्त्र शस्त्रों का प्रहार किया पर कृष्ण ने उन समस्त शस्त्रास्त्रों को तत्काल काट डाला। रुक्म क्रोध से उन्मत्त होकर रथ से कूद पड़ा और तलवार लेकर कृष्ण की ओर दौड़ा। कृष्ण ने एक बाण मार कर उसके तलवार को काट डाला और एक लात मार कर उसे नीचे गिरा दिया। फिर उसकी उसकी छाती अपना पैर पर रख दिया और उसे मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण तलवार उठा ली। रुक्मणी व्याकुल होकर कृष्ण के चरणों पर गिर गई और अपने भाई के प्राण दान हेतु प्रार्थना करने लगी। रुक्मणी की प्रार्थना पर कृष्ण ने अपनी तलवार नीचे कर ली और रुक्म को मारने का विचार त्याग दिया। इतना होने पर भी रुक्म कृष्ण का अनिष्ट करने का प्रयत्न कर रहा था। उसके इस कृत्य पर कृष्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बाँध दिया तथा उसके दाढ़ी-मूछ तथा केश तलवार से मूँड़ कर उसको रथ के पीछे बाँध दिया। बलराम ने रुक्म पर तरस खाकर उसे कृष्ण से छुड़वाया। अपनी पराजय पर दुःखी होता हुआ वह अपमानित तथा कान्तिहीन होकर वहाँ से चला गया। उसने अपनी प्रतिज्ञानुसार कुण्डलपुर में प्रवेश न करके भोजपुर नामक नगर बसाया।
इस भाँति भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी को लेकर द्वारिकापुरी आये जहाँ पर वसुदेव तथा उग्रसेन ने कुल पुरोहित बुला कर बड़ी धूमधाम के साथ राक्षस विधि से दोनों का पाणिग्रहण संस्कार करवाया।
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