(संतश्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से)
गुरुभक्ति की महिमा गाते हुए भगवान शंकर माता पार्वती से कहते हैं :
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः ।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ॥
'हे देवी ! कल्पपर्यंत के करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ - ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।
'आत्मवेत्ता सद्गुरुदेव के अंतःकरण के संतोष में ही सारी साधनाओं का, सारे यज्ञ, तप, व्रतों का साफल्य है। ऐसे सद्गुरुओं या महापुरुषों के पास आने वाले भक्त पाँच प्रकार के होते हैं-
प्रथम प्रकार के भक्त वे होते हैं जो गुरु या भगवान के रास्ते यह इच्छा लेकर चलते हैं कि 'हमें इहलोक में भी सुख मिले और परलोक में भी लाभ हो।' वे सोचते हैं कि 'चलो, संत के द्वार जाएँ। वहाँ जाने से पुण्य होगा।' इसके अतिरिक्त संतों-महापुरुषों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। ये आरंभिक भक्त कहलाते हैं। जो नास्तिक हैं और संतों के द्वार नहीं आते, उनसे तो ये आरंभिक भक्त उत्तम हैं।
दूसरे भक्त वे होते हैं जो गुरु या भगवान के प्रति अपनत्व रखते हैं कि 'भगवान हमारे हैं, गुरु हमारे हैं।' अपनत्व रखने से उनको पुण्य व ज्ञान मिलता है। पहले वालों से ये कुछ ऊँचे दर्जे के हैं लेकिन ये अपने आराम व सुख-सुविधाओं को साथ में रखकर गुरुभक्ति, भगवद् भक्ति के मार्ग पर चलना चाहते हैं।
तीसरे भक्त वे होते हैं जो अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ गुरु और उनकी संस्था की भी आवश्यकता का ख्याल रखकर चलते हैं। वे सोचते हैं कि 'संत के दैवी कार्य में हमारा भी कुछ योगदान हो जाए।' ये तीसरे प्रकार के भक्त गुरु या भगवान की थोड़ी-बहुत सेवा खोज लेते हैं। सेवा करने से उनका आंतरिक आनंद उभरता है व हृदय पवित्र होने लगता है।
चौथे भक्त वे होते हैं जो गुरु की सेवा करते हुए अपने सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान की परवाह नहीं करते। उनकी पुकार और अनुभूति होती है कि
गुरुजी !
तुम तसल्ली न दो,
सिर्फ बैठे ही रहो।
महफिल का रंग बदल जाएगा,
गिरता हुआ दिल भी संभल जाएगा॥
इन प्रेमी भक्तों का प्रेम कुछ निराला ही होता है। भक्त नरसिंह मेहता ने ऐसे भक्तों के लिए कहा है -
भोंए सुवाडुं भूखे मारुं, उपरथी मारुं मार ।
एटलुं करता जो हरि भजे तो करी नाखुं निहाल॥
अर्थात् भूमि सुलाऊँ भूखा मारूँ तिस पर मारूँ मार ।
इसके बाद भी जो हरि भजे तो कर डालूँ निहाल॥
प्रेमाभक्ति में बहुत ताकत होती है।
पंचम प्रकार के भक्तों को बोलते हैं 'मुरीदे फिदाई'। माने गुरु पर, इष्ट पर बस, फिदा हो गए। जैसे पतंगा दीये पर फिदा हो जाता है, चकोर चाँद पर फिदा हो जाता है, सीप स्वाति नक्षत्र की बूँद पर फिदा हो जाती है, वैसे ही वे अपने गुरु पर, इष्ट पर फिदा हो जाते हैं। जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में, जाने तुझको खबर कब होगी?... - यह फरियाद पंचम श्रेणीवाला भक्त नहीं कर सकता। ऐसे भक्तों के लिए नारदजी ने कहा है- यथा गोपिकानाम्।
गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण में कोई दोष नहीं देखतीं। वे सोचती हैं 'मक्खन चोरी करते हैं तभी भी श्रीकृष्ण हमारे हैं, 'नरो वा कुंजरो वा' कहलवा रहे हैं तभी भी हमारे हैं। चाहे कोई कुछ भी कहता रहे बस, श्रीकृष्ण हमारे हैं।' कितना विशुद्ध प्रेम था गोपियों का! उन्होंने तो अपने-आपको भगवान श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया था।
श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे-
''मेरे गुरु कलालखाने (शराबखाने में) जाते हों तो भी मेरे गुरु नित्यानंद राय हैं ।''यदि प्रेम में कोई फरियाद नहीं होती, कोई आडंबर नहीं होता तो यह प्रेम की पराकाष्ठा है। ऐसे भक्तों को फिर अन्य किसी जप, तप, यज्ञ, अनुष्ठान या साधना की जरूरत नहीं पड़ती, वे तो प्रेमाभक्ति से ही तर जाते हैं।
प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा चहों प्रजा चहों, शीश दिए ले जाए॥
अमीर खुसरो एक ऐसा ही प्रेमी भक्त था। एक बार जब वह अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के दर्शन करने गया तो वे अपने भक्तों के बीच सत्संग कर रहे थे। अमीर खुसरो पीछे जाकर बैठ गया। निजामुद्दीन औलिया को देखते-देखते वह आनंदित हो रहा था। दूसरे लोग तो शब्द सुन रहे थे लेकिन वह तो मानों, शब्दों के साथ-साथ उनको भी पी रहा था। फिर तो उसके हृदय से अनायास ही ये वचन स्फुरित हुए-
मन तो शुदम, तो मन शुदी,
मन तन शुदम तो जां शुदी ।
ता कस न गोयद बाद अजीं,
मन दीगरम तो दीगरो॥
इसका भावार्थ है कि 'हे मेरे प्यारे गुरुदेव! मैं तू हुआ, तू मैं हुआ। मैं देह हुआ, तू प्राण हुआ। अब कोई यह न कह सके, मैं और हूँ, तू और है।' सूफीवाद में ऐसे भक्तों को कहा जाता है 'मुरीदे फिदाई' अर्थात् गुरु पर, इष्ट पर फिदा हो जाने वाले।
देखने में तो गुरु और शिष्य अलग-अलग दिखते हैं लेकिन जब गुरु के प्रति शिष्य का प्रेम ऐहिक स्वार्थ से रहित होता है तो गुरु की आत्मा व शिष्य की आत्मा एक हो जाती है। जैसे एक कमरे में दो दीये जगमगाते हों तो किस दीये का कौन-सा प्रकाश है यह नहीं बता सकते, दो तालाबों के बीच की दीवार टूट गई हो तो किस तालाब का कौन-सा पानी है यह नहीं बता सकते, ऐसी ही बात इधर भी है।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनो।
व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे
फिर शिष्य चाहे घर में हो या दफ्तर में, देश में हो या विदेश में, उसके लिए स्थान और दूरी का कोई महत्व नहीं होता। वह जहाँ कहीं भी होगा, गुरु के साथ एकाकारता का अनुभव कर लेगा।
दिले तस्वीर है यार,
जब गर्दन झुका ली और मुलाकात कर ली।
वे थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था।
आता न था नजर तो नजर का कसूर था॥
वेदांती विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति, मुमुक्षुत्व का अवलंबन लेते-लेते जिस तत्व में स्थिति पाता है, प्रेमी भक्त अपने प्रेमास्पद का चिंतन करते-करते सहज में ही उस तत्व में स्थिति पा लेता है। प्रेमाभक्ति प्रेमी भक्त को प्रेमास्पद के अनुभव के साथ, प्रेमास्पद के स्वरूप के साथ एकाकार कर देती है।
हमने भी पहले मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम, प्रेममूर्ति भगवान श्रीकृष्ण, शक्तिरूपा माँ महाकाली आदि की उपासना की और बाद में भगवान शिव को इष्ट मानकर अनुष्ठान किया परंतु जब अपने गुरुदेव (स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज) की छत्रछाया में आए तो ऐसे अनुपम आनंद का खजाना हाथ लगा कि जिसके आगे चौदह भुवनों के सुख भी तुच्छ हैं।
इसलिए हे मानव! जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझ ले भैया! जीवन की कीमत मत आँक। तेरा निष्काम प्रेम और सेवा ही तुझे गुरुतत्व का खजाना प्राप्त करवा देंगे।
मकसदे जिंदगी समझ, कीमते जिंदगी न देख।
इश्क ही खुद है बंदगी, इश्क में बंदगी न देख॥
यह प्रेमाभक्ति ही पराभक्ति है, पूर्णता, सहजावस्था या जीवन्मुक्ति को पाने का उत्तम मार्ग है।
(संतश्री आसारामजी आश्रम से प्रकाशित पत्रिका 'ऋषि प्रसाद' से)
एक टिप्पणी भेजें