04 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – कृष्णावतार



श्री शुकदेव जी बोले, “हे राजन्! जब कंस ने देवकी के छः बालकों मार डाला तब सातवें गर्भ में भगवान शेष जी देवकी के गर्भ में पधारे। इधर भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से कहा कि हे कल्याणी! तुम ब्रज में जाओ। वहाँ पर देवकी के गर्भ में मेरे अंशावतार शेष जी पहुँच चुके हैं। तुम उन्हें नन्द बाबा की पहली पत्नी रोहिणी के गर्भ में रख दो और स्वयं उनकी दूसरी पत्नी यशोदा के गर्भ में स्थित हो जाओ। तुम वहाँ दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशायिनी, शारदा, अम्बिका आदि अनेक नामों से पूजी जाओगी। मैं भी अपने समस्त ज्ञान, बल तथा सम्पूर्ण कलाओं के साथ देवकी के गर्भ में आ रहा हूँ।


हे परीक्षित! इस तरह शेष भगवान के अवतार बलराम जी पहले देवकी के गर्भ में आये और फिर उनको योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकाल कर रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसीलिये बलराम जी की दो माताएँ हुईं। इसके पश्चात् भगवान विष्णु स्वयं देवकी के गर्भ में आ पहुँचे।

भादों माह की अष्टमी तिथि थी। रोहिणी नक्षत्र था। अर्द्धरात्रि का समय था। बादल गरज रहे थे और घनघोर वर्षा हो रही थी। उसी काल में देवकी के गर्भ से भगवान प्रकट हुये। उनकी चार भुजाएँ थीं जिनमें वे शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुये थे। वक्षस्थल पर श्री वत्स का चह्न था। कण्ठ में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। उनका सुन्दर श्याम शरीर था जिस पर वे पीताम्बर धारण किये हुये थे। कमर में कर्धनी, भुजाओं में बाजूबन्द तथा कलाइयों में कंकण शोभायमान थे। अंग प्रत्यंग से अपूर्व छटा छलक रही थी जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण बन्दीगृह जगमगा उठा। वसुदेव और देवकी विस्मय और हर्ष से ओत-प्रोत होने लगे। यह जान कर कि स्वयं भगवान उनके पुत्र के रूप में पधारे हैं उनके आनन्द की सीमा नहीं रही। बुद्धि को स्थिर कर दोनों ने भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।

स्तुति करके देवकी बोलीं कि हे प्रभु! आपने अपने दर्शन देकर हमें कृतार्थ कर दिया। अब मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप अपने अलौकिक रूप को त्याग कर सामान्य बालक का रूप धारण कर लीजिये। भगवान ने देवकी से कहा, “हे देवि! अपने पूर्व जन्म में आप दोनों ने घोर तपस्या की थी और ब्रह्मा जी से वरदान में मुझे पुत्र रूप में माँगा था। अतः ब्रह्मा जी के वरदान को सत्य सिद्ध करने के लिये मैंने आप लोगों के पुत्र के रूप में अवतार लिया है।” फिर वे वसुदेव से बोले, “हे तात! मैं अब बालक रूप हो जाता हूँ। आप मुझे गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ पहुँचा दीजिये। वहाँ पर मेरी योगमाया ने कन्या के रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया है। आप उसे यहाँ ले आइये। इतना कहकर उन्होंने बालक रूप धारण कर लिया।

भगवान की माया से वसुदेव की हथकड़ी-बेड़ी खुल गईं, पहरेदारों को गहन निद्रा व्याप्त गई, और कपाट भी खुल गये। वसुदेव बालक को लेकर गोकुल की ओर चले। बादल धीरे-धीरे गरज रहे थे। जल की फुहारें पड़ रहीं थीं। शेष जी अपना फन फैला कर छतरी बने हुये बालक को ढँके हुये थे। वसुदेव जी यमुना पार करने के लिये निर्भय होकर जल में घुस पड़े। भगवान के चरण को स्पर्श करने के लिये यमुना जी का जल चढ़ने लग गया। ज्यों-ज्यों वसुदेव बालक को ऊपर उठाते, त्यों-त्यों जल और भी ऊपर चढ़ता जाता। इस पर वसुदेव के कष्ट को जान कर भगवान ने अपने चरण बढ़ा कर यमुना जी को उसे छू लेने दिया और जलस्तर नीचे आ गया।

यशोदा जी अचेत होकर अपनी शैया पर सो रहीं थीं उन्हें नवजात कन्या के जन्म का कुछ भी पता नहीं था। वसुदेव ने अपने पुत्र को यशोदा की शैया पर सुला दिया और उनकी कन्या को अपने साथ बन्दीगृह ले आये। कन्या को देवकी की शैया पर सुलाते ही हथकड़ी-बेड़ी अपने आप लग गये, कपाट बन्द हो गये और पहरेदारों को चेत आ गया।