05 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – अर्जुन के अन्य विवाह



इन्द्रप्रस्थ के निर्माण के पश्चात् युधिष्ठिर सुखपूर्वक राज्य करने लगे। अकस्मात् एक दिन पाण्डवों के घर देवर्षि नारद पधारे। पाण्डवों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार करके बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। नारद जी पाण्डवों से बोले, “हे पाण्डवगण! तुम पाँच भाइयों के बीच एक पत्नी है, इसलिये तुम्हें कुछ ऐसा नियम बना लेना चाहिये जिससे परस्पर कलह न हो। कलह शत्रुता का मूल होता है। इस संदर्भ में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ। प्राचीन काल में सुन्द और उपसुन्द नाम के दो महाबली दैत्य थे। उनमें आपस में बहुत प्रेम था। उन्होंने पूरे त्रिलोक में विजय प्राप्त कर लिया और इन्द्रादि देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। इससे दुःखी होकर इन्द्र सहित समस्त देवतागण ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और उनसे रक्षा पाने का उपाय पूछने लगे। ब्रह्मा जी ने कहा कि जब तक उन दोनों दैत्यों में परस्पर कलह नहीं होगा, स्वयं भगवान भी उन्हें परास्त नहीं कर सकेंगे। मैं सवयं उनमें कलह कराने का उपाय सोच रहा हूँ। इतना कह कर उन्होंने एक अत्यन्त रूपमती एवं लावण्यमयी स्री की सृष्टि की। उस स्त्री का तिल-तिल सुन्दर होने के कारण उसका नाम तिलोत्तमा रखा गया। उसे देख कर समस्त दैत्य-दानव मोहित हो गये। ब्रह्मा जी ने तिलोत्तमा को सुन्द तथा उपसुन्द के पास जाकर उनमें कलह कराने का आदेश दिया। ब्रह्मा जी का आदेश पाकर तिलोत्तमा सुन्द-उपसुन्द के पास पहुँची। उसे देखते ही दोनों दैत्य कामान्ध हो उठे और उसे प्राप्त करने के लिये परस्पर लड़ने लगे। इस प्रकार भयंकर युद्ध करते हुये दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो गये।”


नारद जी के वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने कहा, “हे देवर्षि! हम सब भाई आपके कथनानुसार ही कार्य करेंगे।” नारद जी के प्रस्थान कर जाने के बाद पाँचों भाइयों ने नियम बना लिया कि प्रत्येक भाई द्रौपदी के साथ एक निश्चित काल तक रहेगा और उस काल में कोई भी दूसरा भाई उनके पास नहीं जायेगा। जो भी इस नियम की अवहेलना करेगा उसे बारह वर्षों तक अपने नगरी से निष्कासित होना पड़ेगा। इस प्रकार सभी पाण्डव अपने बनाये हुये नियम का पालन करते हुये सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।

इसी बीच एक दिन एक ब्राह्मण के गौ को कुछ लुटेरे उठा ले गये। उस ब्राह्मण ने अर्जुन के पास आकर लुटेरों के विषय में बताया और अपनी गौ वापस दिलाने की प्रार्थना किया। अर्जुन ने उसे शीघ्रातिशीघ्र न्याय देने का आश्वासन दे दिया। उस समय अर्जुन के अस्त्र-शस्त्र उस महल में रखे थे जहाँ पर युधिष्ठिर एवं द्रौपदी विहार कर रहे थे। ब्राह्मण को न्याय दिलाने तथा लुटेरों को दण्ड देने को अति आवश्यक समझ कर अर्जुन उस महल में जाकर अपना अस्त्र-शस्त्र उठा लाये और ब्राह्मण की गौ को लुटेरों से वापस दिलाया तथा लुटेरों को दण्ड भी दे दिया। इसके पश्चात् नियम का पालन करने के लिये अर्जुन बारह वर्षों के लिये निष्कासित जीवन व्यतीत करने के लिये प्रस्तुत हो गये। यह देख कर युधिष्ठिर बोले, “हे अर्जुन! आपत्तिकाल में मर्यादा का ध्यान नहीं किया जाता। ब्राह्मण को न्याय देने के कारण तुम्हारा अपराध क्षम्य हो गया है।” किन्तु अर्जुन ने उत्तर दिया, ” भैया! आपके बनाये नियम की अवहेलना करके मैं पाप का भागी नहीं बनना चाहता, अतः आप मुझे बारह वर्षों तक निष्कासित जीवन व्यतीत करने की आज्ञा दीजिये।” अर्जुन के तर्कपूर्ण वचनों को सुन कर युधिष्ठिर ने उसे बारह वर्षों के लिये निष्कासित कर दिया।

अर्जुन अपनी नगरी छोड़ कर अनेक देशों का भ्रमण करने लगे। एक दिन हरिद्वार में गंगा-स्नान करने हेतु जैसे ही वे जल में उतरे कि उलूपी नामक एक नाग-कन्या उन्हें खींचती हुई जल के अन्दर ले गई और अर्जुन से बोली, “हे नरश्रेष्ठ! मैं ऐरावत वंश की नाग-कन्या हूँ तथा आप पर आसक्त हो गई हूँ। आप मेरे साथ विहार कीजिये। यदि आपने मेरी इच्छा की पूर्ति न किया तो मैं तत्काल अपने प्राण त्याग दूँगी।” उलूपी को प्राण त्यागने के लिये तत्पर देख कर अर्जुन ने उसकी इच्छा पूर्ण की और फिर तीर्थ यात्रा के लिये आगे निकल पड़े।

यात्रा करते-करते अर्जुन मणिपुर जा पहुँचे और वहाँ के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा को देख कर वे उस पर आसक्त हो उठे। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन के पास जा कर अपना परिचय दिया तथा उनसे अपनी पुत्री का विवाह स्वयं के साथ कर देने का निवेदन किया। अर्जुन का निवेदन सुनकर चित्रवाहन ने कहा, “हे महाधनुर्धारी! मुझे आपके साथ अपनी पुत्री का विवाह करने में आपत्ति नहीं है, किन्तु आपको वचन देना होगा कि मेरी पुत्री के गर्भ से आपका जो पुत्र होगा उसे मैं अपने दत्तक पुत्र के रूप में अपने पास ही रखूँ।” अर्जुन ने चित्रवाहन की बात स्वीकार कर ली और चित्रांगदा से विवाह कर लिये। चित्रांगदा से अर्जुन के पुत्र होने के उपरान्त अर्जुन वहाँ से आगे तीर्थ यात्रा के लिये निकल पड़े।

कुछ काल पश्चात् अर्जुन श्री कृष्ण के प्रभास नामक क्षेत्र में पहुँचे। श्री कृष्ण अर्जुन को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हे अपना अतिथि बना लिया। वहाँ रहते हुये अर्जुन की दृष्टि बलराम तथा कृष्ण की बहन सुभद्रा पर पड़ी और वे उस पर आसक्त हो गये। अर्जुन के पराक्रम के विषय में सुनकर सुभद्रा पहले से ही उनसे प्रेम करती थी। श्री कृष्ण को दोनो के प्रेम के विषय में ज्ञात हो गया और वे अर्जुन से बोले, “अर्जुन! तुम्हारे साथ सुभद्रा का विवाह करने के लिये मेरे बड़े भाई बलराम कदापि तैयार नहीं होंगे। अतएव तुम वर्तमान प्रथा के अनुसार सुभद्रा का हरण कर के उससे विवाह कर लो। एक दिन रैवत पर्वत में एक महोत्सव के आयोजन से अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को अपने रथ पर चढ़ा कर उसका हरण कर लिया। सुभद्रा के हरण का समाचार सुनकर यादव बहुत क्रोधित हुये और बलराम के नेतृत्व में अर्जुन से युद्ध की योजना बनाने लगे। इस पर श्री कृष्ण ने बलराम समेत समस्त यादवों को समझा बुझा कर शान्त किया और अर्जुन एवं सुभद्रा को बुलवा कर उनका विवाह कर दिया। इस विवाह के बाद अर्जुन एक वर्ष तक द्वारिका में रहे, फिर पुष्कर होते हुये सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आये क्योंकि बारह वर्षों के निष्कासन की अवधि पूर्ण हो चुकी थी।

समय आने पर सुभद्रा के गर्भ से अर्जुन का पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। अभिमन्यु ने अल्पकाल में ही विद्याभ्यास तथा अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त कर ली और अपने पिता के समान ही पराक्रमी हो गये।

द्रौपदी के भी यधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से पाँच पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम क्रमशः प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन रखा गया।