श्री शुकदेव मुनि ने कहा – “हे राजन्! अब मैं आपको संक्षेप में आपके गुरुजनों के विषय में बताता हूँ। आपके परदादा राजा धृतराष्ट्र जन्म से अन्धे थे किन्तु अपनी लोलुपता के कारण वे बुद्धि से भी अन्धे हो गये थे। अधर्मी हो जाने के कारण उनकी मति मारी गई थी। उन्होंने आपके पितामह पाण्डवों के साथ बचपन से ही दुर्व्यवहार किया। उन्हें लाक्षागृह में मार डालने का षड़यंत्र किया। भरी सभा में आपकी दादी रानी द्रौपदी के केश खींचते हुये दुःशासन को नहीं रोका। अपने पुत्रोँ की सहायता से धर्मराज युधिष्ठिर का राज्य जुआ खेलने का कपट कर के छीन लिया। और अन्त में पाँचों पाण्डवों को वनवास दे दिया।
तेरह वर्षों तक यातनाएँ भोगने के बाद जब पाण्डवों ने अपना राज्य वापस माँगा तो भी नहीं लौटाया। श्री कृष्ण, भीष्म, विदुर आदि के समझाने पर भी काल के वश में होने से तथा पुत्रमोह के कारण उसकी बुद्धि नहीं फिरी। धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया।
महाभारत के इस युद्ध के से विदुर जी को, जो कि तीर्थयात्रा से लौटे थे, सन्ताप हुआ और वे पुनः तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। यमुना के तट पर उनकी भेंट भगवान श्री कृष्णचन्द्र के परम भक्त और सखा उद्धव जी से हुई और विदुर जी ने उनसे भगवान श्री कृष्णचन्द्र का हाल पूछा।
रुँधे कंठ से उद्धव ने बताया – “हे विदुर जी! महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति को फेर दिया। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह से भगवान श्री कृष्णचन्द्र को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा। इस घटना के बाद भगवान श्री कृष्णचन्द्र महाप्रयाण कर के स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गये। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो के उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये।
रुँधे कंठ से उद्धव ने बताया – “हे विदुर जी! महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्री कृष्णचन्द्र को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्री कृष्णचन्द्र ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति को फेर दिया। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह से भगवान श्री कृष्णचन्द्र को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा। इस घटना के बाद भगवान श्री कृष्णचन्द्र महाप्रयाण कर के स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गये। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो के उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये।
05 जनवरी 2010
भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – यदुवंश का नाश
Labels: भागवत की कथाएँ|
Posted by Udit bhargava at 1/05/2010 06:28:00 pm
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sukh sagar ki katha mangadhant katha hai ya phir unko tod marod kar mirch masala laga kar shradhalujano ko gumrah kiya gaya hai. sukh sagar mai ek jagah gopiyon ke nange snan ki baat aati hai use itane kamuk dangh se likha gaya hai ki sharm aati hai. kya ShriKrishna jaise mahapurush jo us samay kevel chhote balak ki avastha main the gopiyo se kah sakate the "Tum log (bina bina vastron ke) bahaar aavo" . jab vo aapana ek haath chhatiyo ko aur doosara haath apane gupt ang ko dhak kar bahaar aane lagi tab kaha "ese nahin dono haatho se sir ke upar jod kar surya ko namaskar karati hooe bahhar aavo"lagibhawanishankar
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