किन्तु दक्ष प्रजापति शिव जी के श्वसुर थे, उन्हें शिव जी का खड़े होकर स्वागत न करना अच्छा नहीं लगा। शंकर जी का ऐसा व्यवहार देख कर दक्ष प्रजापति को बड़ा क्रोध आया और वे बोले, “हे देवताओं तथा ऋषि महर्षियों! मेरी बात सुनो! इस शंकर ने लोक मर्यादा तथा शिष्टाचार का उल्लंघन किया है। यह निर्लज्ज शंकर अहंकारवश सब लोकपालों की कीर्ति को मिट्टी में मिला रहा है। इसने घमण्ड में आकर सत्पुरुषों के आचरण को भी धूल में मिला दिया है। मैंने भोला शंकर सत्पुरुष समझ कर अपनी सुन्दर कन्या सती का विवाह इससे कर दिया। इस नाते यह मेरे पुत्र के समान है। इसको उठ कर मेरा सम्मान करना चाहिये था। मझे प्रणाम करना चाहिये था। किन्तु इसने ऐसा नहीं किया। अपने पिता ब्रह्मा जी के कहने पर मेरे इच्छा न होते हुये भी मैंने इस अपवित्र, भ्रष्ट कर्म करने वाले, घमण्डी, धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, भूत-प्रेत के साथी और नंग-धड़ंग पागल को अपनी कन्या दे दी। यह शरीर में भस्म लगाता है, कंठ में नर मुण्डों की माला पहनता है। यह तो नाम मात्र का शिव है। यह अमंगल रूप है। यह बड़ा मतवाला और तमोगुणी है।
सभी देवताओं, ऋषि-महर्षियों आदि के समक्ष दक्ष प्रजापति ने शंकर जी का अपमान किया और शंकर जी चुपचाप बैठे हुये निरुत्तर भाव से सुनते रहे। शंकर जी के इस प्रकार चुप रहने से दक्ष प्रजापति का क्रोध और भी बढ़ गया और वे महादेव जी को शाप देने के लिये उद्यत हो गये। वहाँ पर उपस्थित सभी देवताओं तथा ऋषि-महर्षियों ने दक्ष प्रजापति को शाप देने से मना किया किन्तु क्रोध और अहंकार के वशीभूत दक्ष प्रजापति ने किसी की भी न सुनी और शाप दे दिया कि इस अशिव को इन्द्र, उपेन्द्र आदि बड़े-बड़े देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले।
जब महादेव जी के गण नन्दीश्वर को दक्ष के शाप के विषय में पता चला तो वे बोले, “जो नीच अभिमानवश भगवान शंकर से बैर करता है उस दक्ष को मैं शाप देता हूँ कि वह तत्वज्ञान से हीन हो जावे। यह दक्ष यज्ञादि अनुष्ठान करता रहता है किन्तु फिर भी पशु के समान कार्य करता है इसलिये यह स्त्री लम्पट हो जावे और इसका मुख बकरे के समान हो जावे। जो इसके अनुयायी हों और शिव जी से बैर रखते हों वे जन्म मरण के चक्कर में पड़ते रहें, भक्षाभक्ष अन्न ग्रहण करें और संसार में भीख माँगते फिरें।”
नन्दीश्वर के इस शाप को सुन कर दक्ष प्रजापति के हितचिन्तक भृगु ऋषि ने शाप दिया, “शिव भक्त शास्त्रों के विरुद्ध कर्म करने वाले तथा पाखण्डी हों और उन्हें सुरा अतिप्रिय होवे।”
इन समस्त बातों से खिन्न होकर भगवान शंकर अपने अनुचरों के साथ वहाँ से उठ कर कैलाश पर्वत चले गये।
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