08 जनवरी 2010

भगवान्‌ श्रीकृष्ण की व्रजभूमि

भगवान् श्रीकृष्ण धन्य हैं, उनकी लीलाएँ धन्य हैं और इसी प्रकार वह भूमि भी धन्य है, जहाँ वह त्रिभुवनपति मानस रूप में अवतरित हुए और जहाँ उन्होंने वे परम पुनीत अनुपम अलौकिक लीलाएँ कीं। जिनकी एक-एक झाँकी की नकल तक भावुक हृदयों को अलौकिक आनंद देने वाली है।

श्रीकृष्ण को अवतरित हुए आज पाँच सहस्र वर्ष से ऊपर हुए, परन्तु उनके कीर्तिगान के साथ-साथ उस परम पावन भूखण्ड की भी महिमा का सर्वदा बखान किया जाता है, जहाँ की रज को मस्तक पर धारण करने के लिए अब तक लोग तरसते हैं। बड़े-बड़े लक्ष्मी के लाल अपने समस्त सुख-सौभाग्य को लात मार यहाँ आ बसे और व्रज के टूक माँग कर उदरपोषण करने में ही उन्होंने अपने आपको धन्य समझा। यही नहीं, अनेक भक्त हृदय तो वहाँ के टुकड़ों के लिए तरसा करते हैं। भगवान्‌ से इसके लिए वे प्रार्थना करते हैं। ओड़छे के व्यास बाबा गिड़गिड़ाकर कहते हैं-
ऐसो कब करिहौ मन मेरो।
कर करवा हरवा गुंजन कौ कुंजन माहिं बसेरो॥
भूख लगै तब मांगि खाउंगो, गिनौं न सांझ सबेरो।
ब्रज-बासिन के टूक जूंठ अरु घर-घर छाछ महेरो॥

यह क्या बात है? इस भूमि में ऐसा कौन सा आकर्षण है, जो अपनी ओर आकर्षित कर लेता है? भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने यहाँ जन्म धारण किया था और नाना प्रकार की अलौकिक लीलाएँ की थीं, क्या इसीलिए भक्त हृदय इससे इतना प्रेम करते हैं? हाँ, अवश्य ही यह बात है पर केवल यही बात नहीं है, इसके साथ-साथ सोने में सुगंध यह और है कि इस भूमि को भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण गो लोक से यहाँ लाए थे।
जैसे भगवान्‌ के साथ-साथ देवी-देवता, ऋषि-मुनि, श्रुतियाँ आदि ने आकर गोप-गोपिकाओं का जन्म ग्रहण किया था। उसी प्रकार व्रज भूमि भी श्री गोकुलधाम से उनके साथ ही आई थी, इस कारण इसकी महिमा विशेष है। पुराणों के अनुसार यह भूमि सृष्टि और प्रलय की व्यवस्था से बाहर है। ऋग्वेद में एक ऋचा व्रज के संबंध में मिलती है, जो इस प्रकार है-
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिश्रृंगा
अयासःअत्राह तदुरुगायस्य वृष्णेः परमं पदमवभाति भूरि।


ता तानि वां युवयो रामकृष्णयोर्वास्तूनि निरम्य स्थानानि गमध्यै गन्तुम्‌ उश्मसि
उष्मः कामयामहे न तु तत्र गन्तुं प्रभवामः। यत्र (वृन्दावनेषु) वास्तुषु भूरिश्रृंगा गावः
अयासः संचरन्ति अत्र भूलोके अह निश्चितं तत्‌ गोलोकाख्यं परमं पदं भूरि अत्यन्तं
मुख्यम्‌ उरुभिर्बहुभिर्गीयते स्तूयत इत्युरुगायस्तस्य वृष्णेर्यादवस्य पदमवभाति प्रकाशते इति।
अर्थात्‌ इंद्र स्तुति करते हैं कि 'हे भगवन्‌ श्री बलराम और श्रीकृष्ण! आपके वे अति रमणीक स्थान हैं। उनमें हम जाने की इच्छा करते हैं पर जा नहीं सकते।
(कारण, 'अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी। विना कृष्ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्ठति॥' यानी यह मधुपुरी धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है पर यहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता)। यदुकुल में अवतार लेने वाले, उरुगाय (यानी बहुत प्रकार से गाए जाने वाले) भगवान्‌ वृष्णि का गोलोक नामक वह परम पद (व्रज) निश्चित ही भू-लोक में प्रकाशित हो रहा है।
तब फिर बताइए व्रजभूमि की बराबरी कौन स्थान कर सकता है? हिंदुस्थान में अनेक तीर्थ स्थान हैं, सबका महात्म्य है, भगवान्‌ के और-और भी जन्मस्थान हैं पर व्रजभूमि की बात ही कुछ निराली है। यहाँ के नगर-ग्राम, मठ-मंदिर, वन-उपवन, लता-कुंज आदि की अनुपम शोभा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने को मिलती है। अपनी जन्मभूमि से सभी को प्रेम होता है फिर वह चाहे खुला खंडहर हो और चाह सुरम्य स्थान, वह जन्मस्थान है, यह विचार ही उसके प्रति होने के लिए पर्याप्त है।
इसी से सब प्रकार से सुंदर द्वारका में वास करते हुए भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब व्रज का स्मरण करते थे, तब उनकी कुछ विचित्र ही दशा हो जाती थी।
जब व्रज भूमि के वियोग से स्वयं व्रज के अधीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण का ही यह हाल हो जाता है, तब फिर उस पुण्यभूमि की रही-सही नैसर्गिक छटा के दर्शन के लिए, उस छटा के लिए जिसकी एक झाँकी उस पुनीत युग का, उस जगद् गुरु का, उसकी लौकिक रूप में की गई अलौकिक लीलाओं का अद्भुत प्रकार से स्मरण कराती, अनुभव का आनंद देती और मलिन मन-मंदिर को सर्वथा स्वच्छ करने में सहायता प्रदान करती है, भावुक भक्त तरसा करते हैं। इसमें आश्चर्य ही क्या है?
नैसर्गिक शोभा न भी होती, प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात्‌ परब्रह्म का यहाँ विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहाँ की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था, वह व्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।
व्रज-वासी-पटतर कोउ नाहिं।
ब्रह्म सनक सिव ध्यान न पावत, इनकी जूठनि लै लै खाहिं॥
हलधर कह्यौ, छाक जेंवत संग, मीठो लगत सराहत जाहिं।
'सूरदास' प्रभु जो विश्वम्भर, सो ग्वालन के कौर अघाहिं॥

तब फिर यहाँ तो अनन्त दर्शनीय स्थान हैं, अनन्त सुंदर मठ-मंदिर, वन-उपवन, सर-सरोवर हैं, जो अपनी शोभा के लिए दर्शनीय हैं और पावनता के लिए भी दर्शनीय हैं। सबके साथ अपना-अपना इतिहास है। यद्यपि मुसलमानों के आक्रमण पर आक्रमण होने से व्रज की सम्पदा नष्ट प्राय हो गई है।
कई प्रसिद्ध स्थानों का चिह्न तक मिट गया है, मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी हैं, तथापि धर्मप्राण जनों की चेष्टा से कुछ स्थानों की रक्षा तथा जीर्णोद्धार होने से वहाँ की जो आज शोभा है, वह भी दर्शनीय ही है।