05 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – गंगा की उत्पत्ति



श्री शुकदेव मुनि ने कहा, “हे परीक्षित, प्राचीन काल में बलि नाम का एक राक्षस था। उसके पिता का नाम विरोचन था। बलि बहुत पराक्रमी और बलशाली था और समस्त देवताओं को पराजित कर चुका था। एक बार उसने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञानुष्ठान से उसकी शक्ति में और भी वृद्धि हो जाने वाली थी। इस बात को विचार कर के देवराज इन्द्र अत्यंत भयभीत हो गया। इन्द्र सभी देवताओं को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास पहुँचा और उनकी स्तुति करने के पश्चात् दीन स्वर में उनसे प्रार्थना की, “हे त्रिलोकपति! राजा बलि ने सभी देवताओं को परास्त कर दिया है और अब वह एक विराट् यज्ञ कर रहा है। वह महादानी और उदार है। उसके द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता। उसकी दानशीलता, तपस्या, तेजस्विता और उसके द्वारा किये गये यज्ञादि शुभ कर्मों से देवलोक सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड काँप उठा है। इस यज्ञ के पूर्ण हो जाने पर वह इन्द्रासन को प्राप्त कर लेगा। इन्द्रासन पर किसी राक्षस का अधिकार होना सुरों की परम्परा के विरुद्ध है। अतः हे शेषशायी! आप से प्रार्थना है कि आप दुछ ऐसा उपाय करें कि उसका यज्ञ पूर्ण न हो सके।” उनकी इस प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा, “तुम सभी देवता निर्भय और निश्चिंत होकर अपने अपने धाम में वापस चले जाओ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने के लिये मैं शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान करूँगा।”
देवताओं के चले जाने के बाद भगवान विष्णु वामन (बौने) का रूप धारण करके उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पर बलि यज्ञ कर रहा था। राजा बलि इस बौने किन्तु परम तेजस्वी ब्राह्मण से बहुत प्रभावित हुये और बोले, “विप्रवर! मैं आपका स्वागत करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?” बलि के इस तरह कहने पर वामन रूपधारी भगवान विष्णु ने कहा, “राजन्! मुझे केवल ढाई चरण भूमि की आवश्यकता है जहाँ पर मैं बैठ कर भगवान का भजन कर सकूँ।” राजा बलि ने प्रसन्नता पूर्वक वामन को ढाई चरण भूमि नापने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही भगवान विष्णु ने विराट् रूप धारण किया और एक चरण में सम्पूर्ण आकाश को और दूसरे चरण में पृथ्वी सहित पूरे पाताल को नाप लिया और पूछा, “राजन! आपका समस्त राज्य तो मेरे दो चरण में ही आ गये। अब शेष आधा चरण से मैं क्या नापूँ?”
बलि के द्वार से कभी भी कोई याचक खाली हाथ नहीं गया था। बलि इस याचक को भी निराश नहीं लौटने देना चाहता था। अतः उसने कहा, “हे ब्राह्मण! अभी मेरा शरीर बाकी है। आप मेरे इस शरीर पर अपना आधा चरण रख दीजिये।” इस तरह भगवान विष्णु ने बलि को भी अपने आधे चरण में नाप लिया। भगवान विष्णु ने बलि की दानशीलता से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि तेरा यह दान ‘बलिदान’ के नाम से हमेशा याद किया जायेगा और यह स्थान सदा पवित्र माना जायेगा, सिद्धाश्रम कहलायेगा और यहाँ तपस्या करने वाले को शीघ्र ही समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होंगी।
विराट् भगवान ने जब नापने के लिये अपना चरण फैलाया था तो उनका बाँया पैर ब्रह्म लोक में गया। उनके नख से ब्रह्मांण्ड का ऊपरी भाग फट गया और वहाँ एक छिद्र हो गया। उस छिद्र से एक जल धारा बहने लगी। विराट् भगवान के चरण कमल की केसर के मिलने से वह लाल रंग की हो गई। उस धारा का नाम भगवत्पदी हुआ। वह धारा बहते बहते ध्रुव लोक में आई, वहाँ इस धारा का नाम विष्णुपदी हो गया। वह धारा आकाश से उतरती हुई और चन्द्रमण्डल को सींचती हुई मेरु के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरी। ब्रह्मपुरी में वह सीता, अलकनन्दा, चक्षु तथा भद्रा नामक चार भागों में बँट गई। सीता नदी ब्रह्मपुरी से निकल कर गन्धमादन के शिखर पर गिरी तथा भद्राश्चवर्ष को सींचती हुई पूर्व की ओर खारे समुद्र में गिरी। चक्षु नदी माल्यवान पर्वत पर गिर कर केतुभालवर्ष को सींचती हुई पश्चिम की ओर खारे समुद्र में गिरी। भद्रा नदी मेरु पर्वत से उत्तर की ओर दूसरे पर्वत पर गिरी तथा श्रंगवान पर्वत से निकल कर कुरुक्षेत्र के उत्तरी भाग को सींचती हुई उत्तरी समुद्र में गिरी। अलकनन्दा नदी ब्रह्मपुरी से निकल कर दक्षिण की ओर हेमकूट पर्वत पर गिर कर वहाँ से हिमालय के शिखरों को चीर कर भारतवर्ष में आकर दक्षिण की ओर समुद्र में गिरी। इसको भागीरथी गंगा कहते हैं।