04 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – अमृत वितरण

(1) ब्राह्मणों के उत्तम वृत्ति चार प्रकार की है – शिलोच्छन्न, शालीन यामाकर तथा वार्ता। आपत्तिकाल में सभी वृत्ति मान्य हैं। आधुनिक काल को क्या आपत्तिकाल माना जा सकता है? क्योंकि दैनिक जीवन में सभी वर्णों के साथ विनिमय अपरिहार्य हो चुका है. इस पर मेरी शंका का समाधान अवश्य करें.


(2) किंतु कल्पद्रुम कौन था-थी? इस पर प्रकाश डालें. धन्वन्तरि जब अमृत का कलश लेकर प्रकट हुए.. यह अमृत उनके पास क्या पहले से था? यदि हां तो समुद्र मंथन की आवश्यकता क्यों हुई? माता लक्ष्मी क्या समुद्र की बेटी कहलाई? इस पर भी प्रकाश डालें.

(1) दीवान जी, आपत्तिकाल क्या हो सकता है इसे समझने के लिये मैं राजा हरिश्चन्द्र का उदाहरण दे रहा हूँ। राजा हरिश्चन्द्र क्षत्रिय थे किन्तु आपत्तिकाल में उन्होंने डोम का दास बनकर क्षत्रियवृति के स्थान पर चाण्डालवृति (शूद्रवृति) की थी।

आपके प्रश्न का उत्तर देने के पहले हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा। वर्ण व्यवस्था मनुष्य के कर्मों पर आधारित था। विद्वान, पराक्रमी और व्यापार व्यवसाय की योग्यता रखने वाले क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में आते थे। जिनमें उपरोक्त किसी भी प्रकार की योग्यता नहीं होती थे वे ही शूद्र वर्ण में आते थे। यदि किसी क्षत्रिय में ब्राह्मण के कर्म करने की योग्यता आ जाती थी तो उसे ब्राह्मण वर्ण में मान्यता प्राप्त हो जाती थी। ऋषि विश्वामित्र क्षत्रिय राजा थे किन्तु बाद में ब्राह्मणत्व प्राप्त किया अर्थात् क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गये। इसी प्रकार परशुराम ब्राह्मण थे किन्तु अनेकों युद्ध करके क्षत्रिय वर्ण का कर्म किया। इस प्रकार की व्यवस्था होने के कारण अनेकों बार क्षत्रिय, ब्राह्मण या वैश्य के किसी सन्तान में किसी प्रकार का गुण न होने पर उसे शूद्र वर्ण में मान्यता दिया जाता था।

कालान्तर में इस वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था में बदल दिया गया जिससे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र जाति बन गये और नई व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण, क्षत्रिय की सन्तान क्षत्रिय आदि होने लगे। इससे स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था में कर्म की प्रधानता नहीं रही और इसके कारण से वृतियों का भी महत्व नहीं रहा। यही जाति व्यवस्था आज तक चली आ रही है।

अतः आधुनिक काल में हमें अपने अपने विवेक के अनुसार उचित-अनुचित का निर्णय लेना अधिक उत्तम होगा।

(2) पौराणिक कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकलने वाली वस्तुओं को रत्न कहा गया है तथा वे चौदह रत्न थे जिनके नाम हैं – (1) हलाहल (विष), (2) कामधेनु, (3) उच्चैःश्रवा घोड़ा, (4) ऐरावत हाथी, (5) कौस्तुभ मणि, (6) कल्पद्रुम, (7) रम्भा, (8) लक्ष्मी, (9) वारुणी (मदिरा), (10) चन्द्रमा, (11) पारिजात वृक्ष, (12) शंख, (13) धन्वन्तरि वैद्य और (14) अमृत। इससे स्पष्ट है कि पहले से न तो धन्वन्तरि थे और न ही अमृत। इसीलिये समुद्र मंथन की आवश्यकता पड़ी।

लक्ष्मी जी समुद्र पुत्री कहलाती हैं तथा उनके पिता भृगु ऋषि हैं।

कल्पद्रुम नाम पूरे सुखसागर में केवल एक बार आया है और इसके विषय में कुछ भी विस्तृत विवरण नहीं है। उसके विषय में आपकी शंका दूर करने के लिये मैं अन्य पौराणिक ग्रन्थों को टटोलूँगा। अतः आपसे अनुरोध है कि मुझे थोड़ा समय दीजिये।



धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।

वे दैत्य बोले, “हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।” इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, “हे देवताओं और दानवों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।”

विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, “सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।” विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।

भगवान की इस चाल को राहू नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।

इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यंत क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया जिसमें देवराज इन्द्र ने दैत्यराज बालि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।