04 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – सनातन धर्म के लक्षण



धर्मवेत्ताओं ने धर्म के तीस लक्षण शास्त्रों में वर्णन किये हैं। उनमें से दया, शौच, तपस्या, उचित-अनुचित का विवेक, तितिक्षा, ब्रह्मचर्य, विषय, इन्द्रिय दमन, अहिंसा, त्याग, स्वाध्याय आदि मुख्य हैं। मनुष्य का शनैः-शनैः सांसारिक भोगों से निवृत होकर भगवत परायण होना ही मुख्य धर्म है।
ब्राह्मणों का मुख्य धर्म अध्ययन करना, अध्ययन कराना, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना तथा यज्ञ कराना है। क्षत्रियों का धर्म निर्बलों तथा असहायों की रक्षा करना तथा दान देना है दान लेना नहीं। वैश्य का धर्म कृषि करना, व्यापार करना, गौ, पशु आदि पालना है। जिनमें उपरोक्त कार्य करने का सामर्थ्य एवं योग्यता नहीं होती वे शूद्र कहलाते हैं तथा उनका धर्म सेवा करना है।
ब्राह्मणों के उत्तम वृत्ति चार प्रकार की है – शिलोच्छन्न, शालीन यामाकर तथा वार्ता। इनमें उत्तरोत्तर वृत्तियाँ उत्तम हैं। खेतों में गिरा हुआ अन्न बीन कर संग्रह करके निर्वाह करना शिलोच्छन्न (ऋत) वृत्ति कहलाता है। बिना माँगे मिल गया उसे शालीन (अमृत) वृत्ति कहते हैं। नित्य माँग कर निर्वाह करना यामाकर (मृत) वृत्ति है। कृषि करके जीवनयापन करना वार्ता (प्रमृत) वृत्ति है। व्यापार करना सत्यावृत कहलाता है। नीच वर्ण की दासता करने को श्वान वृत्ति कहते हैं। क्षत्रिय दान लेने के अतिरिक्त ब्राह्मणों के शेष कर्म कर सकता है। आपत्तिकाल में सभी वृत्ति मान्य हैं।
शम, दम, तप, शौच, दया, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, सत्य तथा ईश्वर की भक्ति उत्तम ब्राह्मण के लक्षण कहे गये हैं। वीरता, उत्साह, धीरता, तेजस्विता, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति-भाव, प्रजा की रक्षा करना तथा क्षमा क्षत्रियों के लक्षण हैं। अर्थ, धर्म, काम तथा पुरुषार्थों की प्राप्ति वैश्य के लक्षण हैं। सेवा करना शूद्रों का लक्षण है।
स्त्रियों का धर्म पति को सदा प्रसन्न रखना, उसके कुटुम्बियों से प्रेम रखना, गृहकार्य करना, श्रृंगारादि करना है। उत्तम स्त्रियों के लक्षण हैं विनय, संयम, जो मिल जाय उसी में सन्तोष करना, मृदुभाषण तथा कलह से दूर रहना। स्त्रियों को स्वयं को लक्ष्मीस्वरूप व पति को नारायणस्वरूप मानना चाहिये।
शास्त्रो में चार प्रकार के आश्रमों की व्यवस्था की गई है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास। ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु की सेवा करते हुये विद्याध्ययन करना चाहिये। विद्याध्ययन पूर्ण होने पर गृहस्थ आश्रम में देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि सत्कार आदि करते हुये वंश परम्परा में वृद्धि के लिये सन्तानोत्पत्ति करना चाहिये। वानप्रस्थ आश्रम में वन में कुटी बना कर भगवत्भक्ति करना चाहिये। अन्त में सन्यास आश्रम धारण कर आत्म शुद्धि के लिये स्वयं को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये।
उपरोक्त वर्णन सुखसागर के सप्तम स्कन्ध से उद्धरित की गई हैं।