05 जनवरी 2010

महाभारत की कथाएँ – राम अवतार की कथा

जयद्रथ के हाथों द्रौपदी को मुक्‍ति दिलाने के के पश्‍चात् युधिष्ठिर के मन में बड़ा क्लेश हुआ। वे कहने लगे, “मेरे साथ मेरे भाइयों तथा द्रौपदी ने भी महान कष्ट उठाये हैं। क्या मुझसे अधिक भाग्यहीन इस संसार में और कोई हुआ होगा, जिसने वन में रहकर पत्‍नी के साथ इतने कष्ट झेले हों।” धर्मराज को उदास और खिन्न देखकर और उनकी बातें सुनकर मार्कण्डेय ऋषि ने समझाया, “हे धर्मराज! ऐसी विपदा अकेले आप पर ही नहीं आई है। त्रेता युग में भगवान राम ने भी वन में रहकर स्त्री वियोग का दुःख सहन किया था। उनकी पतिव्रता स्त्री सीता को रावण हर ले गया था और उन्हें भी इस तरह के दारुण दुःख उठाने पड़े थे।”


युधिष्ठिर बोले, “हे ऋषिवर! कृपा करके हमें पुण्यकर्मा श्री रामचन्द्र जी का चरित्र विस्तार से सुनाइये।” इस पर मार्कण्डेय ऋषि ने कहा, “हे युधिष्ठिर! इक्ष्वाकु वंश में अज नामक एक बड़े पराक्रमी राजा हुये थे। उनके पुत्र का नाम दशरथ था जो बहुत पवित्र आचरण वाले एवं स्वाध्याय शील थे। दशरथ के धर्म, अर्थ आदि तत्वों को जानने वाले राम, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न नामक चार पुत्र हुये। राम की माता कौशल्या, भरत की माता कैकेयी और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न की माता सुमित्रा थीं। विदेह देश के राजा जनक की पुत्री सीता श्री रामचन्द्र जी की पत्‍नी थीं।

“अब तुम रावण के जन्म की कथा सुनो। पितामह ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य जी की गौ नामक पत्‍नी कुबेर का जन्म हुआ। किन्तु कुबेर अपने पिता की अपेक्षा पितामह की सेवा में अधिक लगे रहते थे। इसलिये नाराज होकर पुलस्त्य जी ने अपने योगबल से विश्रवा नामक दूसरा शरीर धारण किया। विश्रवा कुबेर से रुष्ट रहा करते थे इसलिये कुबेर ने उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनकी सेवा में पुष्पोत्कटा, राका और मालिनी नामक तीन राक्षसियों को लगा दिया। विश्रवा मुनि के आशीर्वाद से पुष्पोत्कटा से रावण और कुम्भकर्ण, राका से खर-दूषण एवं शूर्पणखा और मालिनी से विभीषण नामक सन्तानें उत्पन्न हुईं। रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण ने पितामह ब्रह्मा की तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। रावण ने वर माँगा कि हे ब्रह्मदेव! मेरी मृत्यु देवता, राक्षस, यक्ष, नाग, गन्धर्व तथा किन्नर किसी के हाथों न हो सके। कुम्भकर्ण छः मास तक जगने और केवल एक दिन सोने का वर माँगना चाहता था किन्तु वर माँगते समय उसकी बुद्धि पलट गई और उसके मुख से ये शब्द निकले कि हे प्रभु! मैं छः मास तक सोते रहूँ और केवल एक दिन जागूँ। विभीषण ने सदा भगवान के चरणों में अपना मन लगाने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने उन्हें उनके माँगे अनुसार वर प्रदान कर दिया।

“ब्रह्मा जी से प्राप्त वर एवं अपने प्रताप से रावण ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया तथा उसने कुबेर को निष्कासित कर उसकी राजधानी लंका को अपनी राजधानी बना लिया। उसकी दुष्टता और क्रूरता से देवता तथा ऋषि-मुनिगण त्राहि-त्राहि कर उठे। यह देखकर देवराज इन्द्र ब्रह्मा जी को लेकर श्री नारायण के पास पहुँचे और नारायण भगवान ने यह कहकर कि मैं त्रेतायुग में राम का अवतार लेकर उस दुष्ट राक्षस का वध करूँगा, उन्हें धैर्य बँधाया। भगवान नारायण के पास से वापस आकर ब्रह्मा ने इन्द्र से कहा कि अब तुम सब देवतागण श्री राम की सहायता करने के लिये पृथ्वी पर वानर और ऋक्ष के रूप में अवतार ले लो। इस प्रकार समस्त देवतागणों ने ब्रह्माजी की आज्ञानुसार वानर और ऋक्ष के रूप में अवतार ले लिया।

श्री राम के रूप में अवतार धारण करने वाले श्री नारायण का विवाह सीता, जो कि स्वयं लक्ष्मी देवी की अवतार थीं, के साथ हुआ। सीता जी के पिता राजा जनक जी थे। उन्होंने अपनी तथा अपने कनिष्ठ भ्राता कुशध्वज की अन्य तीन कन्याओं उर्मिला, माण्डवी तथा श्रुतकीर्ति का विवाह भी क्रमशः लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ कर दिया। विवाह के कुछ समय पश्‍चात भरत के मामा भरत और शत्रुघ्न को अपने घर कैकेय देश में ले गये। उसी समय राजा दशरथ ने अपनी वृद्धावस्था को ध्यान में रखकर विचार किया कि श्री राम को राज्य देकर वन में तपस्या करने चले जाना चाहिये। उनके इस विचार को सुनकर अयोध्या के कुलगुरु एवं पुरोहित वशिष्ठ जी ने श्री राम के राजतिलक का मुहूर्त भी निश्‍चित कर दिया। श्री राम के राज्यभिषेक के उपलक्ष में नगर में सब तरफ सजावट होने लगी और चारों ओर आनन्दोत्व मनाया जाने लगा।

किन्तु कैकेयी की प्रिय दासी मन्थरा को राम के राज्यभिषेक की बात अच्छी नहीं लगी और उसने महारानी कैकेयी से कहा कि राम तुम्हारा सौतेला पुत्र है और उसके राजा बन जाने से तुम्हारे सगे पुत्र भरत को उसका दास बन कर रहना होगा। इसलिये तुम राम का राज्याभिषेक मत होने दो। मन्थरा की बातें सुनकर कैकेयी ने पहले तो उसे बहुत फटकारा किन्तु उसके बार-बार समझाने से कैकेयी की बुद्धि भी पलट गई। मन्थरा ने कैकेयी को युक्‍ति समझाते हुये कहा कि देवासुर संग्राम के समय अपने प्राण बचाने के एवज में राजा दशरथ ने तुम्हें दो वर देने के लिये कहा था। अब तुम एक वर यह माँगो कि भरत को राज्य मिले और दूसरा वर यह माँगो कि राम चौदह वर्ष तक वन में रहें जिससे कि तुम्हारा पुत्र भरत अपनी शक्‍ति को इतना बढ़ा लेगा कि राम उससे अपना राज्य वापस नहीं ले सकेगा। इस प्रकार कैकेयी ने राजा दशरथ की इच्छा के विरुद्ध उन्हें विवश करके ये दोनों वर प्राप्त कर लिये। पिता की आज्ञा पालन करने के लिये राम सीता और लक्ष्मण के साथ वन चले गये। उनके वियोग में राजा दशरथ का स्वर्गवास हो गया।

फिर कैकेयी ने भरत और शत्रुघ्न को ननिहाल से वापस बुलवा लिया। समस्त वृतान्त जानने पर भरत ने अपनी माता कैकेयी को धिक्कारते हुये राजा दशरथ की अन्त्येष्टि की। इसके बाद राम को वापस लौटाने के लिये समस्त गुरुजनों, माताओं और प्रजाजनों के साथ भरत वन में गये। श्री राम की द‍ृष्टि में पिता की आज्ञा ही सर्वोपरि थी इसलिये भरत के बहुत अनुरोध करने पर भी श्री राम वापस लौटने के लिये तैयार नहीं हुये और उन्होंने भरत तथा उनके साथ आये हुये समस्त लोगों को समझा-बुझा कर वापस अयोध्या भेज दिया। भरत ने श्री रामचन्द्र जी की पादुका को राजसिंहासन पर स्थापित कर दिया और स्वयं नन्दिग्राम में तपस्वी के वेश में रहकर राज्य का संचालन करने लगे।

इधर चित्रकूट से आगे चलकर श्री रामचन्द्र जी दण्डकारण्य में गोदावरी के तट पर पंचवटी नामक स्थान पर आश्रम बनाकर सीता एवं लक्ष्मण के साथ रहने लगे। अचानक एक दिन वहाँ रावण की बहन शूर्पणखा आ पहुँची और राम के रूप पर मोहित होकर सीता जी को खाने दौड़ पड़ी। इस पर लक्ष्मण जी ने क्रोधित होकर शूर्पणखा के नाक-कान काट कर उसे कुरूप बना दिया। शूर्पणखा रोती हुई अपने भाई खर-दूषण के पास पहुँची। अपनी बहन के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये खर-दूषण श्री राम से युद्ध करने पहुँच गये। खर-दूषण अत्यन्त शक्‍तिशाली और रणनीति में कुशल थे किन्तु श्री रामचन्द्र जी ने अकेले ही उन्हें उनकी सेना सहित यमलोक में भेज दिया। अब शूर्पणखा रोती हुई रावण के पास पहुँची और उसे अपने अपमान तथा खर-दूषण के वध के विषय में बताया। श्री रामचन्द्र जी से बदला लेने के लिये रावण ने उनकी पत्‍नी सीता के हरण का विचार किया।

अपने विचार को पूरा करने के लिये रावण मारीच नामक अपने राक्षस मित्र के पास गया और बोला कि हे मारीच! तुम मेरा काम पूरा करने हेतु स्वर्ण-मृग बनकर राम के आश्रम के निकट जाओ। स्वर्ण-मृग को देख कर सीता राम से उसे पकड़ने का आग्रह करेगी। राम के चले जाने पर अवसर पाकर मैं सीता को बलपूर्वक हर ले जाउँगा। इस पर मारीच ने रावण को समझाया कि हे रावण! राम कोई साधारण व्यक्‍ति नहीं है। सीता को चुरा कर तुम अपने कुल का नाश करोगे। मेरी सलाह यह हैं कि तुम ऐसा काम मत करो और चुपचाप लंका लौट जाओ। मारीच की सलाह सुन कर रावण के क्रोध का पारावार न रहा और उसने तलवार निकाल कर कहा कि मारीच! या तो तुम मेरा काम करो या यमलोक जाने के लिये तैयार हो जाओ। मारीच ने यह सोचकर कि इस दुष्ट रावण के हाथों मारे जाने से श्री राम के हाथों मारा जाना अधिक उत्तम है, रावण के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और एक सुनहरे हिरण का रूप बनाकर राम के आश्रम के आस-पास घूमने लगा। उस सुनहरे मृग को देखकर सीता जी ने राम से उसे जीवित या उसको मार कर उसका चर्म लाने का आग्रह किया। रामचन्द्र जी धनुष बाण लेकर उस मृग के पीछे चले गये। मृग रूपी मारीच श्री राम को छलावा देकर बहुत दूर स्थित एक गहन वन में ले गया। अवसर पाते ही राम ने उस पर अपना बाण छोड़ दिया। बाण के लगते ही मारीच अपने असली रूप में आ गया और राम की आवाज में ‘हा लक्ष्मण!’ ‘हा सीते!’ कहते हुये उसने अपने प्राण त्याग दिया।

इस आर्तनाद को सुनकर सीता ने समझा कि यह राम की ही आवाज है और वे किसी कष्ट में पड़ गये हैं। इसलिये सीता ने राम की सहायता के लिये लक्ष्मण को जाने के लिये कहा। लक्ष्मण ने यद्यपि सीता को बहुत समझाया कि यह आवाज राम की नहीं है, क्योंकि उन्हें मारने वाला इस संसार में कोई नहीं है, किन्तु स्त्रियोचित स्वभाव के वशीभूत होकर सीता ने लक्ष्मण को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया। सीता के वचनों से लक्ष्मण मर्माहत हो उठे और सीता को अकेली ही आश्रम में छोड़कर राम के पास पहुँचने के लिये चल पड़े। रावण इसी अवसर की तलाश में वहाँ छुपा हुआ बैठा था। लक्ष्मण के जाते ही उसने सन्यासी का रूप धारण किया और सीता के सामने भिक्षा माँगने के बहाने आ गया। अपना धर्म समझ कर भिक्षा देने के लिये सीता रावण के पास आईं तो उसने यह कहकर कि ‘मैं लंकापति रावण हूँ और तुम्हें हरण करके लंका ले जाने आया हूँ’ सीता को बलपूर्वक उठाकर अपने पुष्पक विमान में डाल दिया और लंका की ओर जाने लगा। विमान में सीता जी जोरों के साथ विलाप कर रही थीं। उनके विलाप को सुनकर पंचवटी के निकट रहने वाला राजा दशरथ का मित्र जटायु सीता जी की सहायता करने के लिये रावण से युद्ध करने लगा। लेकिन रावण ने अपने तलवार से वृद्ध जटायु के पंख काटकर उसे बलहीन कर दिया। जटाय घायल होकर पृथ्वी पर गिर गया।

रावण का पुष्पक विमान जब ऋष्यमूक पर्वत के ऊपर से जा रहा था तो वहाँ पर कुछ लोगों को बैठे देखकर विलाप करती हुई सीता जी ने अपने कुछ आभूषण नीचे गिरा दिये जो वहाँ पर बैठ सुग्रीव, हनुमान आदि वानरों को मिले। रावण ने सीता जी को लंका में ले जा कर अशोकवाटिका में अनेक राक्षसियों के देख-रेख छोड़ दिया।

इधर राम जब कपट मृग को मार कर वापस लौट रहे थे तो मार्ग में उनकी भेंट लक्ष्मण से हो गयी। लक्ष्मण के द्वारा सीता को अकेले छोड़ कर आने के लिये राम के उलाहना देने पर लक्ष्मण ने उन्हें बताया कि वे सीता जी के मजबूर करने पर ही उनके पास आये हैं। आश्रम में वापस आकर उन्होंने देखा कि सीता जी वहाँ नहीं है। वे उन्हें खोजने निकले तो उनकी भेंट घायल जटायु से हुई। जटायु ने सीता जी के रावण के द्वारा हरण की बात राम को बता कर अपने प्राण त्याग दिये। राम और लक्ष्मण सीता जी को खोजने के लिये आगे बढ़े तो ऋष्यमूक पर्वत में उनकी भेंट सुग्रीव, हनुमान एवं अन्य वानरों से हुई। श्री राम और सुग्रीव में मित्रता हो गई। श्री राम ने सुग्रीव के बड़े भाई बालि का वध करके सुग्रीव को उसकी पत्‍नी तथा किष्किन्धा का राज्य वापसे दिलवा दिया। किष्किन्धा का राज्य मिल जाने पर सुग्रीव चारों ओर अपने दूतों को भेज कर सीता की खोज करवाने लगे। अन्त में चतुर और अतुलित बलवान पवनपुत्र हनुमान ने सौ योजन समुद्र को पार कर सीता जी का पता लगा लिया और लंका को भस्म कर सीता जी की निशानी (चूड़ामणि) लेकर राम के पास वापस लौटे। श्री रामचन्द्र जी सुग्रीव और उनकी वानरसेना के साथ समुद्र के तट पर जा पहुँचे। इसी समय रावण का भाई विभीषण रावण के द्वारा अपमानित होकर श्री राम के साथ आ मिला।

समुद्र पर पुल बना कर श्रीरामचन्द्र जी सेना के साथ लंका जा पहुँचे। लंका में श्री राम और रावण के मध्य घोर युद्ध हुआ और उस युद्ध में रावण अपने सम्बंधियों तथा सेना समेत मारा गया। इस प्रकार श्री रामचन्द्र जी सीता जी को छुड़ाकर पुष्पक विमान से अयोध्या वापस पहुँचे जहाँ कि उनका राज्याभिषेक हुआ और वे वहाँ सुखपूर्वक राज्य करने लगे।” इतनी कथा सुना कर मार्कण्डेय ऋषि बोले, “हे युधिष्ठिर! इस प्रकार त्रता युग में भी महापराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी ने तुम्हारी ही भाँति अनेक कष्ट उठाये थे। अतः तुम अपने मन को संयत कर के धैर्य धारण करो।”