हस्तिनापुर में दुर्योधन को पाण्डवों समाचार मिलता ही रहता था और यह जानकर कि वे वन में भी सुखी एवं संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहे हैं, वह कुढ़ता ही रहा करता था। साथ ही साथ उन्हें हर प्रकार से कष्ट पहुँचा कर दुःखी करने के अवसर की ताक में भी रहा करता था।
इसी बीच एक दिन क्रोधी ऋषि दुर्वासा हस्तिनापुर में पधारे। दु्योधन ने दुर्वासा जी के क्रोध के भय से उनका खूब आदर-सत्कार किया। दुर्योधन की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उसे वर माँगने के लिये कहा। इस पर दुर्योधन बोला, “हे ऋषिश्रेष्ठ! मेरी इच्छा है कि जिस प्रकार आप अपने शिष्यों सहित हमारे यहाँ पधारे हैं, उसी प्रकार आप एक बार हमारे बड़े भ्राता युधिष्ठिर को भी अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें।” ऐसा कहने के पीछे दुर्योधन की मनसा यह थी कि वन में उचित व्यवस्था ने होने के कारण पाण्डव दुर्वासा ऋषि का उचित सेवा-सत्कार नहीं कर पायेंगे और क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि अवश्य ही पाण्डवों को शाप दे देंगे।
दुर्योधन के कहे अनुसार एक दिन दुर्वासा ऋिषि अपने हजारों शिष्यों को साथ लेकर वन में युधिष्ठिर के यहाँ जा पहुँचे और बोले, “हे धर्मराज! मैं तथा मेरे शिष्य क्षुधा से व्याकुल होकर भोजन करने के उद्देश्य से आपके यहाँ आये हैं। हमारे समीप के सरोवर से स्नान करके वापस आने तक आप हमारे भोजन की व्यवस्था करके रखें।” इतना कह कर वे लोग सरोवर में नहाने के लिये चले गये।
दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर युधिष्ठिर को बड़ी चिंता हुई क्योंकि उस समय द्रौपदी सहित वे सब भोजन कर चुके थे और दुर्वासा ऋषि तथा उनके शिष्यों के लिये भोजन की व्यवस्था करना उनके लिये असम्भव कार्य था। द्रौपदी तो एकदम घबरा गई क्योंकि वह दुर्वासा के क्रोध से अच्छी तरह परिचित थी। वह अन्तर्मन से श्री कृष्ण को स्मरण करने लगी। द्रौपदी के इस प्रकार स्मरण करने मात्र से तत्काल श्री कृष्ण वहाँ पहुँच गये और बोले, “द्रौपदी! तुम मुझे इस समय किसलिये स्मरण कर रही हो? किन्तु तनिक ठहरो, इस समय मुझे जोर की भूख लग आई है इसलिये पहले मुझे खाना खिलाने के बाद अपनी समस्या मुझे बताना।” श्री कृष्ण के वचन सुनकर द्रौपदी लज्जित होकर बोली, “हे मधुसूदन! सूर्यनारायण का दिया हुआ पात्र तभी तक भोजन देता है जब तक कि मैं भोजन न कर लूँ। मैं इस समय भोजन कर चुकी हूँ इसलिये उस पात्र से अब भोजन नहीं प्राप्त हो सकता। मैं तो आपको दुर्वासा ऋषि तथा उनके शिष्यों के भोजन कराने की समस्या को दूर करने के लिये ही स्मरण कर रही थी।”
द्रौपदी के वचन सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुये बोले, “द्रौपदी! तुम जाकर उस पात्र में देखो तो सही, उसमें कुछ न कुछ अवश्य होगा।” यह सुनकर द्रौपदी उस पात्र को ही उठा लाईं। श्री कृष्ण ने देखा कि उस पात्र में साग का एक पत्त लगा हुआ था। उस साग के पत्ते को वे अपने मुख में रखते हुये बोले, “इस साग से सारे संसार के भरण पोषण करने वाले यज्ञ भोक्ता भगवान तृप्त हो जायें।” इतना कहकर वे सहदेव से बोले, “सहदेव! तुम जाकर दुर्वासा ऋषि को शिष्यों सहित बुला लाओ।” श्री कृष्ण की आज्ञा पाकर सहदेव उन लोगों को बुलाना सरोवर की ओर चले गये।
इधर दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्य जब स्नान कर सरोवर से निकले तो सहसा उन्हें पूर्ण तृप्ति का अनुभव होने लगा। बार-बार उन्हें अन्न के रसयुक्त डकारें आने लगीं और ऐसा लगने लगा कि यदि अब भोजन का एक दाना भी उनके पेट में गया तो वे वमन करने लगेंगे। अपनी तथा अपने शिष्यों की ऐसी स्थिति देखकर दुर्वासा बोले, “शिष्यों! धर्मात्मा राजर्षि युधिष्ठिर ने हमारे भोजन की व्यवस्था कर रखी होगी। उस भोजन को नहीं खाने से हमें उनके सामने बहुत लज्जित होना पड़ेगा। इसलिये उचित यही हैं कि हम लोग चुपचाप यहाँ से निकल जायें।” इस प्रकार वे सब वहाँ से भाग गये।
सरोवर के तट पर पहुँचने पर सहदेव को उनमें से कोई भी नजर नहीं आया और उन्होंने वहाँ से लौट कर श्री कृष्ण को सारा हाल कह सुनाया। श्री कृष्ण बोले, “धर्मराज युधिष्ठिर! तुम पर इस समय घोर विपदा आई थी किन्तु द्रौपदी ने मुझे स्मरण किया और मैं तत्काल यहाँ चला आया। मेरे प्रताप से वे सब यहाँ से चले गये हैं और तुम लोगों को किसी भी प्रकार का भय नहीं रह गया है। मेरा कार्य अब यहाँ पर समाप्त हो गया है इसलिये अब मैं यहाँ से प्रस्थान करता हूँ।” इतना कहकर वे वहाँ से चले गये।
05 जनवरी 2010
महाभारत की कथाएँ – श्री कृष्ण का प्रताप
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Posted by Udit bhargava at 1/05/2010 07:46:00 pm
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