05 जनवरी 2010

भागवत (सुखसागर) की कथाएँ – कर्दम ऋषि और देवहूति का विवाह

ब्रह्मा जी ने कर्दम ऋषि को सन्तान उत्पन्न कर प्रजा में वृद्धि करने की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा का पालन करने के लिये कर्दम ऋषि ने अर्द्धांगिनी प्राप्ति की कामना से भगवान की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने कर्दम ऋषि को अपने विराट रूप में दर्शन देकर कहा, “हे कर्दम! तुमने नियम संयम से मेरा तप किया है। तुम्हारी मनोकामना शीघ्र पूर्ण होगी। ब्रह्मा के पुत्र स्वयंभुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से देवहूति नाम की कन्या उत्पन्न हुई है जो अब युवा हो गई है। देवहूति यौवन, शील और गुणों में अद्वितीय है। वही तुम्हारे योग्य भार्या है। तुम उससे विवाह कर के सन्तान उत्पन्न करो। उस पत्नी से तुम्हारी नौ कन्याएँ उत्पन्न होंगी। उन कन्याओं की उत्पत्ति के पश्चात् मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र के रूप में अवतार लूँगा।” इस प्रकार कर्दम ऋषि को वरदान दे कर भगवान अपने लोक को चले गये।


कर्दम ऋषि काल की प्रतीक्षा में वहीं सरस्वती नदी के तट पर आश्रम बना कर रहने लगे। कुछ काल व्यतीत होने पर स्वयंभुव मनु अपनी पत्नी शतरूपा और कन्या देवहूति के साथ उनके आश्रम में पधारे। उस समय कर्दम ऋषि आग्निहोत्र के निवृत होकर बैठे थे। उग्र तपस्या के कारण उनका तेज देदीप्यामान हो रहा था। उनका शरीर लम्बा, नेत्र कमल के समान सुन्दर, सिर पर जटायें व कमर में चीर शोभायमान हो रहा था। मनु ने कर्दम ऋषि को प्रणाम किया तथा कर्दम जी के द्वारा उचित स्वागत सत्कार पाकर प्रसन्न हुये।

मनु ने कर्दम ऋषि से कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ! आपने तप, विद्या तथा योग के द्वारा अपूर्व आत्मबल और ब्रह्मतेज प्राप्त किया है। अब आपने ब्रह्मचर्य अवस्था पूर्ण कर ली है। नारद जी ने आपके विषय में मेरी कन्या देवहूति को बताया है। वह कन्या आपसे विवाह करने की कामना रखती है। देवहूति अपने शील और गुणों में अद्वितीय है। मैं आपसे विनय करता हूँ कि आप मेरी कन्या देवहूति से पाणिग्रहण करें। हे ब्रह्मदेव! मैं अपनी यह सुन्दर कन्या श्रद्धा पूर्वक आपको अर्पण करता हूँ।”

इस प्रकार कर्दम ऋषि और देवहूति का विवाह हो गया। उनकी कला, अनुसुइया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती और शान्ति नामक नौ कन्याएँ उत्पन्न हुईं। नौ कन्याओं के उत्पन्न होने के बाद भगवान ने अपने वचनानुसार कपिल मुनि के रूप में देवहूति के गर्भ से अवतार लिया।

युवा होने पर कला का मरीचि के साथ, अनुसुइया का अंगिरा के साथ, हविर्भू का पुलस्त्य के साथ, गति का पुलह के साथ, क्रिया का ऋतु के साथ, ख्याति का भृगु के साथ, अरुन्धती का वशिष्ठ के साथ और शान्ति का अथर्व के साथ विवाह हुआ। इस प्रकार पृथ्वी में ब्रह्मा जी के प्रजाजनों में वृद्धि होती चली गई।