शब्दों को केवल भाषा और व्याकरण से जोड़ने की भूल न करें। सूफी संतों ने भक्ति के क्षेत्र में शब्दों को च्च्नामज्ज से जोड़ा है। नाम की बड़ी महिमा रही है। नाम यानी उस परमसत्ता का जो भी नाम आप दे दें इसे अध्यात्म में पूंजी माना गया है। नानक कह गए हैं-च्च्नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइज्ज यानी नाम को भी भूलें ना, हमेशा शब्द की कमाई करते रहें, क्योंकि जिस दिन इस शरीर का मकसद पूरा होगा उस दिन यह केवल नाम कमाई से ही होगा।जिन्हें ध्यान में उतरना हो, परमात्मा पाने की ललक हो वे मन को विचारों से मुक्त करने के लिए नाम या शब्द से मन को जोड़ दें। नाम जप जितना अंदर उतरता है, गहरा होता जाता है तब मनुष्य उस शब्द की ध्वनि में सारंगी जैसा मधुर स्वर सुन सकेगा। हम बाहर से कोई संगीत, स्वर, तर्ज सुनकर ही थिरक उठते हैं रोमांचित हो जाते हैं तो कल्पना करिए ऐसा मधुर स्वर जब भीतर से सुनाई देने लगेगा तब साधक को जो तरंग उठेगी उसी का नाम आनंद होगा। नानक ने इसी के लिए कहा है
घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ
यह सारंगी की आवाज जब हमारे भीतर से आने लगेगी तो हमें यही सुरीला स्वर दूसरों के भीतर भी सुनाई देने लगेगा। हरेक के भीतर वही धुन। यहीं से अनुभूति होगी च्च्सिया राम मय सब जग जानीज्ज के भाव की। फिर नानक लिखते हैं च्च्विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइज्ज जो इस आवाज को सुनते हैं उन्हें नानक गुरुमुख कहते हैं और ये वो लोग होते हैं जो च्च्मनु समझाएज्ज की क्रिया करते रहते हैं। सीधी बात यह है कि जो अपने मन को समझा लेते हैं वे गुरुमुख होते हैं। वे इस कला को जानते हैं कि कैसे मन से शब्द या नाम को जोड़कर परमात्मा से मिलने की तैयारी की जाए।
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