26 अप्रैल 2010

ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (1-25)

 अनमोल वचन

1    सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है।
2    जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल  जाता है, उसे इश्वर पुरस्कार  देता है।
3    यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो।
4    इश्वर की शरण में गए बगैर साधना पूर्ण नहीं होती।
   लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक होते हैं।
6    जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि  स्थिर है।
7    रोग का सूत्रपान मानव मन में होता है।
8    किसी भी व्यक्ति को मर्यादा में रखने के लिये तीन कारण जिम्मेदार होते हैं- व्यक्ति का मष्तिष्क, शारीरिक संरचना और कार्यप्रणाली, तभी उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास हो पाता है।
9   सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है।
10  यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल  बनाता है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन  जाती है।
11  यदि व्यक्ति के संस्कार  प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है।
12  सात्त्विक  स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा-सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है।
13  संसार कार्यों से, कर्मों के परिणामों से चलता है।
14  संन्यास डरना नहीं सिखाता।
15  सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह।
16  अपनों के चले जाने का दुःख असहनीय होता है, जिसे भुला देना इतना आसान नहीं है; लेकिन ऐसे भी मत खो जाओ कि खुद का भी होश ना रहे।
17  इंसान को आंका जाता है अपने काम से। जब काम व उत्तम विचार मिलकर काम करें तो मुख पर एक नया-सा, अलग-सा तेज आ जाता है।
18  अपने आप को अधिक समझने व मानने से स्वयं अपना रास्ता बनाने वाली बात है।
19  अगर कुछ करना व बनाना चाहते हो तो सर्वप्रथम लक्ष्य को निर्धारित करें। वरना जीवन में उचित उपलब्धि नहीं कर पायेंगे।
20  ऊंचे उद्देश का निर्धारण करने वाला ही उज्जवल भविष्य को देखता है।
21  संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर  देती है।
22  जहाँ वाद-विवाद होता है, वहां श्रद्धा के फूल नहीं खिल सकते और जहाँ जीवन में आस्था व श्रद्धा को महत्व न मिले, वहां जीवन नीरस हो जाता है।
23  फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना जरूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है।
24  सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है।
25  जब तक मानव के मन में मैं (अहंकार) है, तब तक वह शुभ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि मैं स्वार्थपूर्ति करता है और शुद्धता से दूर रहता है।


इन्हें भी देखें :-

ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (26-50)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (51-75)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (76-100)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (101-125)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (126-150)
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