यह काम करने का समय है लेकिन कर्मयोग को उत्सव बनाया जाए नशा नहीं। विचार करें हमारा जीवन काम है या उत्सव। जीवन का आनंद उत्सव में है काम में नहीं। जो लोग कर्म को केवल काम की तरह करते हैं वे एक दिन जीवन को तनाव से भर लेते हैं। यदि कर्म को उत्सव की तरह किया जाए तो उत्साह आनंद बना रहेगा। पशु-पक्षियों को देखें वे जो भी काम करते हैं उत्सव की तरह करते हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा है जो अपने कर्म को काम की तरह करता है। इस समय एक और बीमारी यह फैल गई है कि हर आदमी जल्दी में है। धन और सफलता के लिए धर्य और प्रतीक्षा मूर्खता लगने लगी है। जिस देश में हरि बोल की गूंज थी वहां हरि-अप का शोर गूंज रहा है। राम बोल को रन-अप में बदल दिया गया है। कृष्ण बोल कम-अप और शिव बोल शट-अप के रूप में सुनाई देते हैं।अपने काम को उत्सव में बदलना बहुत आवश्यक है। यह अत्यधिक कर्म करने का समय है तो तनाव और दबाव स्वभाविक है। मीरा नाचती थीं उत्सव के रूप में, कृष्ण बंसी बजाते थे या हनुमान लंका जला रहे थे सभी स्थिति में उनके भीतर उत्सव का भाव था। उत्सव में मनुष्य स्वयं प्रसन्न रहना चाहता है और दूसरों को भी खुश रखना चाहता है। जब हम उत्सव में जीते हैं तब हमारे लक्ष्य बड़े शुद्ध होते हैं। उत्सव का अर्थ ही अपने अंदर की उदासी को विदाई दे देना। उत्सव की पूर्णता पर थकान की जगह और उत्साह बना रहता है। उत्सव आदमी को सबसे जुड़े रहने के लिए प्रेरणा देता है। सबके साथ सबकी इच्छा को रखते हुए जीना या कुछ करना चुनौती का काम है लेकिन उत्सव वृत्ति इसे सरल बना देती है।
25 अप्रैल 2010
जीवन को जीएं उत्सव की तरह
यह काम करने का समय है लेकिन कर्मयोग को उत्सव बनाया जाए नशा नहीं। विचार करें हमारा जीवन काम है या उत्सव। जीवन का आनंद उत्सव में है काम में नहीं। जो लोग कर्म को केवल काम की तरह करते हैं वे एक दिन जीवन को तनाव से भर लेते हैं। यदि कर्म को उत्सव की तरह किया जाए तो उत्साह आनंद बना रहेगा। पशु-पक्षियों को देखें वे जो भी काम करते हैं उत्सव की तरह करते हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा है जो अपने कर्म को काम की तरह करता है। इस समय एक और बीमारी यह फैल गई है कि हर आदमी जल्दी में है। धन और सफलता के लिए धर्य और प्रतीक्षा मूर्खता लगने लगी है। जिस देश में हरि बोल की गूंज थी वहां हरि-अप का शोर गूंज रहा है। राम बोल को रन-अप में बदल दिया गया है। कृष्ण बोल कम-अप और शिव बोल शट-अप के रूप में सुनाई देते हैं।अपने काम को उत्सव में बदलना बहुत आवश्यक है। यह अत्यधिक कर्म करने का समय है तो तनाव और दबाव स्वभाविक है। मीरा नाचती थीं उत्सव के रूप में, कृष्ण बंसी बजाते थे या हनुमान लंका जला रहे थे सभी स्थिति में उनके भीतर उत्सव का भाव था। उत्सव में मनुष्य स्वयं प्रसन्न रहना चाहता है और दूसरों को भी खुश रखना चाहता है। जब हम उत्सव में जीते हैं तब हमारे लक्ष्य बड़े शुद्ध होते हैं। उत्सव का अर्थ ही अपने अंदर की उदासी को विदाई दे देना। उत्सव की पूर्णता पर थकान की जगह और उत्साह बना रहता है। उत्सव आदमी को सबसे जुड़े रहने के लिए प्रेरणा देता है। सबके साथ सबकी इच्छा को रखते हुए जीना या कुछ करना चुनौती का काम है लेकिन उत्सव वृत्ति इसे सरल बना देती है।
Labels: ज्ञान- धारा
Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 08:41:00 am
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