25 अप्रैल 2010

समझिए इस रिश्ते की गहराई को

हमारी संस्कृति में रिश्ते का महत्व है। रिश्ता कोई भी हो उसे पूरे समर्पण से निभाना चाहिए। और अगर बात गुरु-शिष्य के रिश्ते की हो तो फिर समर्पण का भाव सबसे आगे रहे। आधुनिक काल में इस रिश्ते के मायने बदल गए हैं, अब पहले जैसे गुरु-शिष्य नहीं रहे लेकिन अगर जीवन में सफलता चाहते हैं तो अच्छे शिष्य बनने का प्रयास कीजिए, परमात्मा अच्छा गुरु खुद ही उपलब्ध कराएगा।

हर सच्चा गुरु चाहता है उसका शिष्य उससे अधिक शोहरत हासिल करे और ऐसा होने पर गुरु दिल ही दिल में खुश भी होते हैं। इस रिश्ते में ईष्र्या नहीं होती। मुस्लिम संत हसन बसरी के शिष्य थे हबीब अज़्ामी। हबीब गुरु से जितना भी सीखते उसे जिंदगी मंे अमल में ले आते। एक बार दोनों को दरिया पार करना था। वे किश्ती का इंतजार कर रहे थे। तब हबीब ने अपने गुरु हसन से कहा पानी पर पैर रखकर निकल चलते हैं। गुरु हसन बसरी ने कहा यह कैसे मुमकिन है। हबीब ने कहा खुदा और उस्ताद पर यकीन करें और पार निकल जाएं। गुरु ने तो ऐसा नहीं किया लेकिन शिष्य हबीब अज़्ामी पानी पर पैर रखकर दूसरी ओर चले गए। गुरु हसन बसरी सोचने लगे हबीब ने मुझसे इल्म सीखा और मुझे ही नसीहत देकर पानी पर चल दिया। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने शिष्य हबीब से पूछा ऐसे कैसे कर लिया। मेरे इल्म का फायदा मुझे नहीं मिला और तुम्हे कैसे मिल गया। हबीब बोले मैं दिल साफ करता रहा और आप कागज स्याह करते रहे। उनका मकसद गुरु का अपमान करना नहीं था बल्कि वे कहना चाहते थे कि गुरु की सच्ची श्रृद्धा ऐसे परिणाम देती है। गुरु और शिष्य की एक ऐसी ही बेमिसाल हस्ती हैं गुरु गोविंदसिंह। उन्होंने अपने पूर्व की नौ पीढ़ियों के सिख समुदाय को खालसा में परिवर्तित किया था। उन्होंने परिभाषा दी थी कि जो सत्य की ज्योति को प्रज्वलित रखता है, जिसके भीतर प्रेम, विश्वास और पवित्रता है, वह व्यक्ति खालसा है। अपने जीवन के अंतिम समय में उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब का यथाविधि प्रकाश किया था और तभी से गुरु की गादी पर ग्रंथ च्च्साहिबज्‍ज बनकर विराजित किए गए। आध्यात्मिक दुनिया का यह अद्भुत प्रयोग है। गुरु शिष्य के रिश्ते अपनी गरिमा के लिए जाने जाते रहे हैं। वे भाग्यशाली हैं जिनके पास गुरु होते हैं और वे शौभाग्यशाली हैं जिनको ऐसे शिष्य मिल जाते हैं।