76 न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है।
77 कोई भी व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है, लेकिन सही समय पर, सही मात्रा में, सही स्थान पर, सही उद्देश के लिये सही ढंग से क्रुद्ध होना सबके सामर्थ्य की बात नहीं है।
78 हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं. उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है।
79 सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है।
80 लोगों को चाहिए कि इस जगत में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है।
81 विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं।
82 सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है।
83 अपनी स्वंय की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।
84 परमात्मा वास्तविक स्वरुप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं।
85 जिस कर्म से किन्हीं मनुष्यों या अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचे, वे ही दुष्कर्म कहलाते हैं।
86 यज्ञ, दान और तप से त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य कर्म है; क्योंकि यज्ञ, दान व तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।
87 परोपकारी, निष्कामी और सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण करने वाला देव है।
88 परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के सद्रिशय अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार उन सभी को धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है।
89 जो कार्य प्रारंभ में कष्टदायक होते हैं, वे परिणाम में अत्यंत सुखदायकी होते हैं।
90 जो दानदाता इस भावना से सुपात्र को दान देता है कि तेरी (परमात्मा) वस्तु तुझे ही अर्पित है; परमात्मा उसे अपना प्रिय सखा बनाकर उसका हाथ थामकर उसके लिये धनों के द्वार खोल देता है; क्योंकि मित्रता सदैव समान विचार और कर्मों के कर्ता में ही होती है, विपरीत वालों में नहीं।
91 जो मनुष्य अपने समीप रहने वालों की तो सहायता नहीं करता, किन्तु दूरस्थ की सहायता करता है, उसका दान, दान न होकर दिखावा है।
92 दान की वृत्ति दीपक की ज्योति के समान होने चाहिए, जो समीप से अधिक प्रकाश देती है और ऐसे दानी अमरपद को प्राप्त करते हैं।
93 समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते।
94 यदि ज्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है।
95 ज्यादा पैसा कमाने की इच्छा से ग्रसित मनुष्य झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वाघात आदि का सहारा लेकर परिणाम में दुःख ही प्राप्त करता है।
96 इन दोनों व्यक्तियों के गले में पत्थर पानी में डूबा देना चाहिए। एक दान न करने वाल धनिक तथा दूसरा परिश्रम न करने वाला दरिद्र।
97 ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से संकट।
98 भगवान् प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं।
99 परमात्मा इन्साफ करता है, पर सदगुरु बख्शता है।
100 जिसके पास कुछ नहीं रहता, उसके पास भगवान् रहता।
30 अप्रैल 2010
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (76-100)
Posted by Udit bhargava at 4/30/2010 05:36:00 pm
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