25 अप्रैल 2010

भक्ति है बुद्धि को प्रज्ञा तक ले जाने का सफर

केवल बुद्धिमान होना हमें प्रतियोगी दुनिया की ओर ले जाता है जबकि बुद्धि को अगर भक्ति अपनी ओर खींचती है तो व्यक्ति धीरे-धीरे प्रज्ञावान होता है। यह बुद्धिमान होने का परिष्कृत रूप है। बुद्धिमान की बुद्धि भी कभी न कभी, कहीं न कहीं धोखा खा सकती है लेकिन प्रज्ञावान इस धोखे के फेर में नहीं आ सकता। बुद्धि को बहुत मांजा जाए तो वह प्रज्ञा की स्थिति में आती है और इसके लिए अध्यात्म की राह पकड़नी होगी।

धर्म के अनेक नाम रख दिए जाएं परन्तु उसके भीतर का सत्य एक ही रहेगा। इस सत्य को केवल बुद्धिमान होकर नहीं पाया जा सकता। हां संसार को आसानी से पाया जा सकता है, यदि हम बुद्धिमान हैं तो। अफसोस है कि आज के दौर में बुद्धिमानी का उपयोग स्वयं को आगे बढ़ाने और दूसरों को पछाड़ने में ही किया जा रहा है। इस काल में बुद्धिमान लोग षडयंत्र, भ्रष्टाचार, शौषण, दमन और सांप्रदायिकता की ओर बढ़े पर सत्य की ओर नहीं चले। वास्तव में सत्य की खोज तब शुरू होती है तब बुद्धि प्रज्ञा में बदलती है। बुद्धि जब परिष्कृत रिफाइन्ड हो जाए तब प्रज्ञा कहलाती है। आत्म ज्ञान की ओर बढ़ती हुई बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं। इसलिए प्रयास हो कि बुद्धि से प्रज्ञा और प्रज्ञा से सत्य हाथ में आए। हिन्दू शास्त्रों ने इस घोषणा को बार-बार किया है। इसी बात को इस्लाम ने भी कबूल किया है।हजरत मुहम्मद पर रोशन किताब कुरान में यह आयत उतरी है। जरा इस अजीम दुआ को पढ़ें-व कुरब्बी जिदनी इल्मन-ऐ-परवर दिगार मेरा इल्म और बढ़ा। इल्म बढ़ाने की बात वही है कि बुद्धि से प्रज्ञा की ओर जाना। वरना सत्य हाथ कैसे लगेगा। इबादत के दूसरे मायने यही है कि सच को पकड़ लेना। सत्य पाने के दो तरीके हैं। शास्त्र पढ़े या सत्संग सुनें।बात केवल पढ़ने पर ही खत्म नहीं होती। जब सुने तो भी गहराई से सुनें। बौद्ध और जैन धर्म ने एक शब्द दिया है श्रावक। इसका सीधा सा अर्थ है जिन्होंने संतों को श्रवण किया है। ध्यान रखें श्रोता और श्रावक होने में फर्क है जिन्होंने कान से सुना वे श्रोता और जो प्राण से सुनते है वे श्रावक। इस स्थिति में बुद्धि प्रज्ञा की ओर बढ़ती है।