28 अप्रैल 2010

भक्ति क्या है?

नौ प्रकार की भक्ति

श्रवण =  श्री भगवान् के नाम स्वरुप, गुण और लीलाओं का प्रभाव सहित प्रेम पूर्वक राजापरिक्षित और प्रेत आत्मा धुंधकारी के अनुसार सुनने का नाम ही श्रवण भक्ति है।
रामचरित मानस मिएँ प्रभु राम ने शबरी से श्रवण भक्ती के अंतर्गत यह कहा :
  • " दूसरी रति मम कथा प्रसंगा"

कीर्तन =  श्री शुकदेवजी और देवऋषि नारद की भाँती वाणी से उच्चारण करना यह दुसरों के प्रति कहने का नाम कीर्तन भक्ति है।
रामचरित मानस =
  • "चौथी भक्त इ मम गुणगान, करे कपट तजि गान"

स्मरण =  ध्रुव तथा प्रहलाद आदि की तरह मन में चिंतन करने का नाम स्मरण भक्ति है
रामचरित मानस के शबरी संवाद में =
  • "मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा। पंचम भजन जो वेद प्रकाशा"

पाद सेवन
प्रभु के चरणों की, भरत और लक्ष्मी के अनुसार  सेवा करने का नाम पाद सेवन है।
रामचरित मानस के शबरी संवाद में =
  • "गुर पद पंकज सेवा, तीसरी भक्ति अमां ....."
सुद ग्रंथों ने भगवान्, गुर और संत तीनों को समान बताया है, पर प्रभु राम ने सातवी भक्ति में अपने से भी बड़ा संत और गुरु को बताया है "..मोटे संत अधिक करी लेखे". भगवान् कहते हैं की मुख तक पहुँचने के लिये, इन की सुहारे की जरुरत है, कारण की अनेक रुकावटें, सांसारिक विधियों आदि से यही तुम्हें सही रास्ता दिखाते रहेंगे।

कबीर  साहेब ने बड़ी सुंदर वाणी में कुछ ऐसा दर्शाया है :
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांये
बलिहारी गुरु आपने, जो गोविन्द दिया मिलाये

दास भाव
श्री हनुमानजी और लक्ष्मणजी की भांति दास भाव से आज्ञा का पालन करने का नाम दास भक्ति है। इस कलियुग में भगवान् का प्रतेक्ष दर्शन होना असंभव है, इस लिये हमें शास्त्रों के अनुकूल कर्मों को भगवान् के आदेश समझ कर के उन्हें पालन करते रहना चाहिए। माता पिता, संतों और गुरु जनों में भगवान् को देखना और उन की आज्ञा का पालन करना..

सखा भाव
अर्र्जुन एवं उद्दव की तरह सखा भाव से उन के अनुकूल चलना ही सखा भक्ति है। हम सब जब अकेले में भगवान् के सामने बैठ कर उन से प्रार्थना करते हैं, तो हम भी भगवान् को अपना सखा ही के रूप में मानते हैं. यहाँ कौन भक्त भगवान् से किस तरह बातें करता है, यह तो वही जाने। लालची तो भगवान् को भी ठगता है पर सच्चा सखा भगवान् में अपनी सारे कर्मों को अर्पण कर देता है। भगवान् से वह "तुम" कह कर बाते करता है, कोई दूरियां नहीं होती। सारे प्राणी मात्रा में भगवान् को देखो और सखा के रूप में भगवान् को पहचानो।

निवेदन भाव
राजा बली की भांति सर्वस्व अर्पण कर देना ही का नाम है निवेदन भक्ति। साधारण व्यक्ति लालची होने के कारण इस भक्ति से वंचित रह जाता है।
हम सब कहते है "तेरा तुझ को अर्पण क्य लागे हैं मेरा" पर शायद लाखों में किसी एक में यह योग्यता होती। हम सब गाते हैं..."सब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में" पर क्य हम कभी सचमुच में अपने आप को भगवान् के हवाले सौंपते है?

वन्दना भाव
भीष्मादि की भांति नमस्कार करनी ही वन्दना भक्ति है।
अपने समान यह अपने से छोटे गुणवान और चरिवान व्यक्ति के संग भी वैसा ही भाव होना चाहिए। भीष्मादि कृष्ण से उम्र और पद में बड़े थे पर वे जानते थे की कृष्ण ईश्वर है और यदपि नाते में वे उन से छोटे हैं, फिर भी वे पूजनिये हैं। इधर अहंकारी दुर्योधन से इन की तुलना कीजिये। एक दुसरे  की भावना को देखिये।

अर्चना भाव
भगवान् के स्वरुप की मानसिक यह पवित्र धातु आदि की मूर्ती का गुण और प्रभाव सहित राजा अम्बरीश और राजा पृथु की तरह पूजा करना, को अर्चना भक्ति कहते हैं। इस भक्ति की शक्ति को देखिये दुर्वासा और अम्बरीश की कथा मे।

भक्ति को
गोस्वामी तुलसीदास जी श्री राम चरित्र मानस में कुछ इस प्रकार दर्शाया है:
1.  प्रथम भक्ति संतान कर संगा
2.  दूसरी रति मम कथा प्रसंगा
3. गुरु पद पंकज सेवा, तीसरी भक्ति अमां
4. चौथी भक्ति मम गुनगान करे कपट तजि गान
5. मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा, पंचम भजन जो वेद प्रकाशा
6. षठ दम शील विरक्ति बहू करमा, निरत निरंतर सज्जन धर्मा
7. सप्तम सब जग मोहि मैं देखे, मोटे संत अधिक करी लेखे
8. अष्टम यथा लाभ संतोषा, सपनेउ नहीं देखे परदोशा