आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रश्न उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया। इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।
25 अप्रैल 2010
अगर मिटाना हो कामना और वासना को
आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रश्न उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया। इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।
Labels: ज्ञान- धारा
Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 08:49:00 am
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