प्रो. पूरन सिंह ने पंजाब को गुरुओं के नाम पर बसता कहा है, महाराष्ट्र को वहां के लोग नामदेव जी के नाम पर बसता महसूस करते हैं। लेकिन Êयादातर मराठी लोग इस गौरव से अनजान हैं कि गुरमति विचारधारा की जिस Êामीन पर गुरु नानक साहिब ने सिखी का पौधा लगाया और दूसरे गुरु साहिबान ने सींच-संभाल से बड़ा किया, उस Êामीन की तैयारी के लिए सबसे पहले अहम रोल भगत नामदेव जी ने निभाया था। गुरु गं्रथ साहिब में भगत नामदेव जी के 18 रागों में 61 शब्द मौजूद हैं, जिनके आधार पर उन्हें भक्ति लहर के आगुओं में सबसे महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।
जिस भक्ति परंपरा को गुरु नानक देव जी ने एक शक्तिशाली लहर में तब्दील किया, नामदेव जी को एक शब्द में उस परंपरा के महत्वपूर्ण निर्माणकर्ताओं में तसलीम किया गया। पन्ना 1207 पर एक अन्य शबद में गुरु अर्जन साहिब इन आगुओं की श्रेष्ठता का ध्यान करते हैं, अपने प्रेरणास्रोत मानते हैं और इन संतों-भक्तों को अपनी हस्ती के होने का आधार और कारण मानते हैं। स्वयं को उनके चरणों की धूलि मानते हैं—
भलो कबीरु दासु दासन को ऊतमु सैनु जनु नाई।।
ऊच ते ऊच नामदेउ समदरसी रविदास ठाकुर बणि आई।।
जीउ पिंड तनु धनु साधन का इहु मनु संत रेनाई।
संत प्रतापि भरम सभि नासे नानक मिले गुसाई।।
गुरु अर्जन साहिब से पहले गुरु रामदास जी ने पन्ना 735 पर दर्ज शबद द्वारा इन संतों-भक्तों की श़िख्सयत को सबसे श्रेष्ठ कहा है—
अंडज जेरज सेतज उतभुज सभि वरन रूप जीउ जंत उपाईआ।।
साधू सरणि परै सो उभरै खत्री ब्राह्मण सूदु वेसु चंडालु चंडईआ।।
नामा जैदेउ कंबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईया।
नामदेव पहले भक्त कवि थे, जिन्होंने रूढ़ीवादी परंपराओं को रद्द करके दोनों से स्वतंत्र ज्ञानी मनुष्य का मॉडल पेश किया—
हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति।।
नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति
ऐसे ज्ञानी मनुष्य की धार्मिकता किसी धार्मिक स्थान के करमकांड या मर्यादा की मोहताज नहीं। ऐसी धार्मिकता के लिए उन्होंने पहले मन की शुद्धि को अनिवार्य माना—
काहे कउ कीजै धिआनु जपंना।।
जब ते सुधु नाही मनु अपना।
परमात्मा के साथ जुड़ने के लिए तीर्थो के भ्रमण या धार्मिक स्थानों के दर्शन दीदारों की जरुरत नहीं, बल्कि आत्मिक संयम चाहिए—
कहत नामदेउ बाहरि क्या भरमहु इह संजम हरि पाई।।
भगत नामदेव जी के अनुसार शुभ कर्मो और शुभ विचारों के धारणी होकर भक्ति करना ही परमात्मा की तरफ़ जाने वाला गुरमति मार्ग है—
भनति नामदेउ सुकिृत सुमति भए।।
गुरमति रामु कहि को को न बैकुंठ गए।।
गुरमति राम नाम गहु मीता।।
प्रणवै नामा इउ कहै गीता।
ऐसी आत्मिक मानसिक और व्यवहारिक शुद्धता व उच्चता की प्राप्ति के लिए भगत नामदेव जी साध-संगत के महत्व की उसतति करते हैं—
काम क्रोध त्रिसना अति जरै।।
साध संगति कबहू नहीं करै।।
भगत नामदेव ने जोग मत में बताई जाती हठसाधना को अर्थहीन बताया। उनके अनुसार गुरमति में मूर्ति पूजा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह बहुत प्रभावशाली तर्क और दलील से समझाते हैं—
एकै पाथर कीजै भाउ।।
दूजै पाथर धरीऐ पाउ।।
जे ओहु देउ त ओहु भी देवा।।
कहि नामदेउ हम हरि की सेवा।।
मूर्ति पूजा के अलावा अन्य धर्म-कांडों जैसे तीर्थ स्नान आदि व फोकट चिन्हों पर कटाक्ष किया। भगत नामदेव जी देवी-देवताओं के बजाए आपने एक सच्चे ईश्वर की आराधना के विश्वासी, मुदई और प्रचारक थे, जो पूरी सृष्टि में व्यापक है।
इस एक परमात्मा को उन्होंने अपनी बाणी में लगभग 40 नामों से याद किया है, जैसे देवा, स्वामी, प्रभु, मुरारी, करीमां, रहीमां, अल्लाह, गनी, गोपाल, श्रीरंग, पातिशाह, असपति, गजपति, नरिंद, मीर, मुकंद, गोबिंद, सियाम, राम, केसव, माधो, बीठल, रमइया, हरि, हरी, ठाकुर, जगजीवन, नारायण, निरंकार, सावलिया, नरहरी, कलंदर, साहिब, भगवान, ईशर, जगतगुरु, गोसाई, पुरखोतम आदि। एक परमात्मा सृष्टि की मूल शक्ति है, जो स्वयं प्रकाशमान है, उससे किसी ने पैदा नहीं किया। स्वयं ही पूरी सृष्टि को बनाने और संचालित करने वला है।
उनकी श्रम से संबंधित शब्दावली उनकी बाणी में बिंबों व दृष्टांतों में बार-बार प्रकट होती है। यह शब्दावली श्रम के गौरव को उजागर करती है, जो गुरमति का एक बुनियादी सिद्धांत है। इसके साथ ही उनकी बाणी में विनम्रता का अहसास है। आप उनकी बाणी पढ़ते जाएंगे, मन अपने आप विनम्रता के अहसास से भरता जाएगा।
यह जादू उनकी बाणी के शब्दों में भरा पड़ा है। जिस रस और लय से उनकी बाणी की ओत-पोत है, उन्हें अनूठा आभामंडल प्रदान करती है। एक ऐसा आभामंडल, जो पढ़ने-सुनने वाले को पुनीत कर देता है। गुरमति में भक्त नामदेव जी का जो सम्मान है, हम सब के लिए बहुत ही गर्व वाली बात है।
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