वर्तमान समय में आदमी यह भूल गया है कि कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना है। समाज में कई लोग प्रतिष्ठित, मान्य और ख्यात होते हैं। घर आते हैं तो इसकी अकड़ और ऐंठ लेकर आ जाते हैं। यहीं से घर के सदस्यों से उनका झगड़ा शुरू हो जाता है। घर में आपस में समानता का व्यवहार होना चाहिए। पर आदमी बड़ा का बड़ा ही बना रहता है। कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना यह एक कला है। हमारे हनुमानजी महाराज इसमें बहुत दक्ष हैं। सुंदरकांड के एक प्रसंग से हम सीख सकते हैं। अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की चर्चा चल रही थी। वे सीताजी को धर्य बंधा रहे थे किंतु सीताजी का आत्मविश्वास लौट नहीं रहा था। हनुमानजी ने कहा मां भरोसा रखें प्रभु श्रीराम आएंगे और आपको ले जाएंगे। वैसे तो मैं आपको यहां से ले जा सकता हूं किंतु श्रीराम की ऐसी आज्ञा नहीं है। वे वानरों के सहित आएंगे और राक्षसों का नाश करके आपको ले जाएंगे। तब सीताजी ने कहा था राक्षस बहुत बलवान हैं और वानर तुम्हारी तरह छोटे-छोटे होंगे, मुझे संदेह है। इतना सुनते ही हनुमानजी ने अपने शरीर को पर्वत के समान विशाल कर दिया। सीताजी के मन में विश्वास हो गया। हनुमानजी तत्काल छोटे हो गए। उन्हें लगा कहीं सीताजी यह न समझ लें कि मैं अपनी बढ़ाई कर रहा हूं। अगली ही पंक्ति में हनुमानजी ने स्पष्ट किया
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
यानि हे माता सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। इस तरह अपनी बढ़ाई, श्रेष्ठता को जो लोग परमात्मा से जोड़ते हैं उन्हें अहंकार नहीं आता है।
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