इसी प्रकार जिन जीवों के दुष्कर्म अत्युग्र होते हैं जिनका कि प्रतिफल उग्र यातनाएं मृत्युलोक में भोगी जानी सम्भव न हों वे प्राणी नरक आदि कष्टप्रद लोकों में यातना शरीर धारण करके दुष्कर्म फलोप्भोग काल पर्यंत निवास करते हैं। शास्त्रों में ऐसे कष्टप्रद लोकों का "अन्धेन तमसा वृता:" आदि भयानक शब्दों में निरूपण किया गया है।
पीछे चन्द्र कक्षान्तरवर्ती उप्रितन भाग में जिसे कि 'प्रघौ:' नाम से वेद ने स्मरण किया है-'पितृलोक' की अवस्थी प्रकट की जा चुकी है। इससे ऊपर ब्रह्मलोक पर्यंत प्रकाशमय 'घौ:' नामक विस्तृत प्रदेश में अनेक पुण्यलोकों की अवस्थिति बतलाई गयी है जिनका अमष्टिनाम 'स्वर्ग' है। वेद में सुस्पष्ट लिखा है कि-
(क) घौवै सर्वेषां देवानामायतनम्।
(ख) तिर इव वै देवलोको मनुष्लोकात्।
अर्थात्- (क) समस्त देवताओं का आवास स्थान ’घौ:’ है
(ख) देवलोक की मनुष्य लोक से पृथक सर्वथा सत्ता है।
इसी प्रकार शनिग्रह की कक्षा से ऊपर के अन्धकारमय प्रदेश में प्रधानतया इक्कीस पाप अवस्थित है जिनका समष्टिनाम 'नरक' है। वेद में सुस्पष्ट लिखा है कि-
"तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:"
अर्थात- जो कोई आत्म हत्यारे मानव शरीर पाकर भी आत्मोद्वार का प्रत्यन न करे वाले प्राणी हैं, वे मृत्यु के पश्चात उन अन्धकारमय नरकी लोकों में जाते हैं।
सौ उग्रकर्मा प्राणी सकाम सत्कर्मों को भोगने के लिये स्वर्ग में और पापकर्मों को भोगने के लिये नरक में जाता है, परन्तु भोगते-भोगते जब वे कर्म उग्रकोती के नहीं रहते किन्तु मृत्युलोक में भोग सकने योग्य रह जाते हैं तब उस जीव का जन्म अवशिष्ट सत्कर्मों के उपभोग के निमित्त ब्रह्मवेत्ता योगी, धनी-मानी के रूप में होता है और दुष्कर्मों के उपभोग के लिये रूगण, कुष्ठी चाण्डालादि के रूप में होता है इस आशय की छान्दोग्य की श्रुति प्रसिद्ध है-
ये रमणीयाचरण रमणीयां योनिमापघेरन्।
कपूयाचरणा: कपूयां योनिमापघेरन्।
अर्थात- शास्त्रविहित आचरण करने वाले व्यक्ति उत्तम योनियों को प्राप्त होते हैं और पापाचारी पाप योनियों को प्राप्त होते हैं।
वेद में एक अधमाधम ’जायस्व भ्रियस्व’ गति का भी उल्लेख मिलता है जिसमें अतीव प्राणी एक ही दिन में कीट पतंग आदि के रूप में कई-कई बार उत्पन्न होता और मरता रहता है। यही कर्मानुसार जीवन की विविध गतियों का रहस्य है। अमुक रजरोगादि के प्रत्यक्ष दर्शन से पूर्व-जन्मकृत पापों के परिपाक का भी बहुत कुछ अनुमान हो सकता है। नन्वादी धर्मशास्त्रों के अमुक-अमुक पाप का परनाम अमुक-अमुक योनी किंवा अमुक राजयोग-ऐसा स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है।
यहाँ इतना और अधिक समझ लेना आवश्यक होगा कि मनुष्य योनि को छोड़कर एनी योनि केवल भोग्योनी हैं। अर्थात उनमें केवल पूर्व जन्म के कर्मों का उपभोग मात्रा होता है। किसी नए कर्म की सृष्टी नहीं होती, परन्तु मनुष्य योनि में जहाँ पूर्व जन्मों के किये हुए संचित कर्म्कोश के प्रारब्ध नामक कुछ अंश का उपभोग होता है, वहीँ नए कर्मों की सृष्टि भी होती है। इसलिये मनुष्य योनि 'कर्मयोनि' के नाम से भी विख्यात है। अतः यही स्वर्ग और नरक आदि लोक लोकान्तरों की अवस्थिति और उनकी व्यवस्थाओं का विवेचन है।
जीव मरने पर कहाँ जाता है?
मृत्यु पश्चात जीव कहाँ जाता है- इसके लिये कोई समान सार्वतिक नियम नहीं है किन्तु प्रत्येद जीवन की स्व-स्व-कर्मानुसार विभिन्न गति होती है यही कर्मविपाक का सर्वतंत्र सिद्धांत है। मुख्यता प्रथम दो गति समझनी चाहिए, पहली यह कि -
(1 ) जिसमें प्राणी जीवत्व भाव से छूटकर जन्म मरण के प्रपंचसे सदा के लिये उन्मुक्त हो जाय और दूसरी यह कि
(2 ) कर्मानुसार स्वर्ग्नारक आदि लोकों को भोग कर पुनरपि मृत्युलोक में जन्म धारण कारें|
वेदादि शास्त्रों में उक्त दोनों गतियों को कई नामों से प्रपंचित किया गया है तथा-
(क) द्वे सृतो अश्रण्वं देवानामुत मानुषाणाम।
(ख) शुक्लकृष्णे गती ह्योते जगत: शाश्वती मते॥
अर्थात-(क) देव मनुष्य आदि प्राणियों की मृत्यु के अनंतर दो गति होती है
(ख) इस जनम जगत के प्राणियों की अग्नि, ज्योति, दिन शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण के उपलक्षित अपुनरावृत्ति-फलक प्रथाम्गति तथा धूम, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन से उपलक्षित भेदन करके सर्वदा के लिये जन्म मरण के बंधन से छूट जाता है और दुसरे मार्ग से प्रयास करने वाला जीवन कर्मानुसार पुहन जन्म मरण के चक्र में न पड़कर आ-ब्रह्मलोक परिभ्रमण करता रहता है।
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