इस दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो आत्मिक शान्ति की अभिलाषा नहीं रखता होगा प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसे जीवित रहते हुए भी और मरने के पश्चात भी शान्ति की प्राप्ति हो, सुख की प्राप्ति हो। और इस परम सुख को ही हम मोक्ष कह सकते हैं। इस सुख का स्तर भौतिक सुखों की तुलना में बहुत उच्च होता है, जिसे प्राप्त करना हर किसी के भाग्य में नहीं लिखा होता। मोक्ष प्राप्ति के लिये हमारे ऋषियों-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों तक कठिन तपस्या की, साधनाएं की और तब भी शायद ही उनको मोक्ष की प्राप्ती हुई हो? क्योंकि इस जीवन में हमसे जाने-अनजाने ना जाने कितने पाप होते हैं, हम दिन-रात इस मायावी दुनिया में एक-दुसरे से आगे बदने की होड़ में अनगिनत पाप करते हैं, झूठ बोलते हैं, अनुचित कार्य करते हैं। काम-वासना के भंवर जाल में हमारे कदम स्थिर नहीं रह पाते और हम डगमगा कर उसमें डूब जाते हैं। फिर भला इतने अनुचित कार्य करके, क्या मोक्ष की कामना की जा सकती है। हाँ, इतने पाप करने के पश्चात भी व्यक्ति चाहे तो पश्चाताप करके और उचित मार्ग को अपनाकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। शायद आप भी मोक्ष की प्राप्ति चाहते है, आईये जाने इस पथ पर कैसे अग्रसर हुआ जा सकता है...."!!
इस मृत्युलोक में हजार ही नहीं करोड़ों बार जनम लेने पर भी जीव को कदाचित ही संचिद पुण्य के प्रभाव से मानव योनि प्राप्त होती है। यह मानावे योनि मोक्ष की सीढ़ी है। चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को बिना मानव योनि मिले तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता। अतः इस दुर्लभ योनि को प्राप्त करके जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं कर लेता, उससे बढ़कर मूढ इस जगत में दूसरा कौन हो सकता है? कोई भी कर्म शरीर के बिना सम्भव नहीं है, अतः शरीर रूपी धन की रक्षा करते हुए पुण्यकर्म करना चाहिए। शरीर की रक्षा के लिये, धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये और ज्ञान की रक्षा ध्यान योग के लिये तथा ध्यान योग की रक्षा तत्काल मुक्ति प्राप्ति के लिये होती है। यदि स्वयं ही अहितकारी कार्यों से अपने को दूर नहीं कर सकते हैं तो अन्य कोई दूसरा कौन हितकारी होगा जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा? जैसे फूटे हुए घड़े का जल धीरे-धीरे बह जाता है, उसी प्रकार आयु भी क्षीण होती है। जब तक यह शरीर स्वस्थ है तब तक ही तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति के लिये सम्यक प्रत्यन किया जा सकता है। सौ वर्ष का जीवन अत्यल्प है। इसमें भी आधा निद्रा तथा आलस्य में चला जाता है। इसके साथ ही कितना ही समय बाल्यावस्था, रुग्णावस्था, वृद्धावस्था एवं अन्य दुखों में व्यतीत हो जाता है, इसके बाद जो थोड़ा बच जात है वह भी निष्फल जो जाता है। अपने हित-अहित को न जानते हुए जो नित्य कुपथगामी हैं, जिनका लक्ष्य मात्रा पेट भरना है वे मनुष्य नारकीय प्राणी हैं। अज्ञान से मोहित होकर प्राणी अपने शरीर, धन एवं स्त्री आदि में अनुरक्त होकर जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। अतः व्यक्ति को उनकी बढी हुई अपनी आसक्ति का परित्याग करना चाहिए। यदि उस आसक्ति न छोडी जा रही हो तो महापुरुषों के साथ उस आसक्ति को जोड़ देना चाहिए, क्योंकि आसक्ति रुपी रोग की औषधि सज्जन पुरुष ही हैं।
सत्संग और वेवेक ये दो प्राणी के मलरहित स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैं, वह मनुष्य अंधा है। वह कुमार्ग पर कैसे नहीं जाएगा अर्थात वह अवश्य ही कुमार्गगामी होगा। जो व्यक्ति दंभ के वशीभूत हो जाता है, वह अपना ही नाश करता है, जटाओं का भार और मृगचर्म से युक्त साधु का वेश धारण करने वाले दाम्भिक ज्ञानियों की भांति इस संसार में भ्रमण करते हैं और लोगों को भ्रमित करते हैं। लौकिक सुख में आसक्त "मैं ब्रह्म को जानता हूँ।" ऐसा कहने वाले, कर्म तथा ब्रह्म दोनों से भ्रष्ट, दम्भी और ढोंगी व्यक्ति का परित्याग करना चाहिए।
बंधन और मोक्ष के लिये इस संसार में दो ही पद हैं- एक पद है 'यह मेरा नहीं है' और दूसरा पद है 'ये मेरा है'। 'यह मेरा है' इस ज्ञान से वह बंध जाता है और 'यह मेरा नहीं है' इस ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है।
द्वे पक्षे बन्धमोक्षाय न ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्न ममेति प्रमुच्यते॥
जो कर्म जीवात्मा को बंधन में नहीं ले जाता वहीं सत्कर्म है। जो विद्या प्राणी को मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है वही विद्या है। जब तक प्राणियों को कर्म अपनी ओर आकृष्ट करते हैं, जब तक उनमें सांसारिक वासना विधमान है और जब तक उनकी इन्द्रियों में चंचलता रहती है, तक तक उन्हें परम तत्व का ज्ञान कहाँ हो सकता है? जब तक व्यक्ति में शरीर का अभिमान है, जब तक उसमें ममता है, जब तक उस प्राणी में प्रत्यन की क्षमता रहती है, जब तक उसमें संकल्प तथा कल्पना करने की शक्ति है, जब तक उसके मन में स्थिरता नहीं है, जब तक वह शास्त्रचिन्तन नहीं करता है तथा उस पर गुरु की दया नहीं होती है तब तक उसको परम तत्त्व कहाँ से प्राप्त हो सकता है?ब्रह्मपद या निर्वाण प्राप्त करने के लिये बहुत कुछ करना पड़ता है, बहुत से यत्न और परिश्रम करना होता है, श्रद्धावान होकर ब्रह्म में लीन होना पड़ता है। अंत समय आने पर व्यक्ति को भयरहित होकर संयम रूपी शास्त्र से शारीरिक आसक्ति को काट देना चाहिए। अनासक्त भाव से धीरवान पुरुष पवित्र तीर्थ में जाकर उसके जल में स्नान करे, इसके पश्चात वहीं पर एकांत में किसी स्वछंद एवं शुद्ध भूमि में विधवत आसन लगाकर बैठ जाए तथा एकाग्रचित होकर गायत्री आदि मन्त्रों के द्वारा उस शुद्ध परम ब्रह्माक्षर का ध्यान करे। ब्रह्म के बीजमंत्र को बिना भुलाए वह अपने श्वास को रोककर मन को वश में करे तथा अन्या कर्मों से मन को रोककर बुद्धि के द्वारा शुभकर्म में लगाएं। जो मनुष्य 'ॐ' इस एकाक्षर मंत्र का जप करता है, वह अपने शरीर का परित्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।
मान-मोह से रहित, आसक्ति दोष से परे, नित्य आध्यात्म चिंतन में दत्तचित्त, सांसारिक समस्त कामनाओं से रहित और सुख-दुःख नाम के द्वन्द से मुक्त ज्ञानी पुरुष ही उस अव्यय पद को प्राप्त करते हैं। विर्द्धावस्था में भी स्थिर मन से एवं पूर्ण श्रद्धा व भक्तिभाव से जो परम ब्रह्म का भजन करता है, वह प्रसन्नात्मा व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है।
गृहस्थ आश्रम को त्यागकर मृत्यु की अभिलाषा से जो तीर्थ में निवास करता है और मुक्ति क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
तत्त्व का ज्ञान रखने वाले तत्त्व तो प्राप्त करने वाले मोक्ष प्राप्त करते हैं, धर्मनिष्ठ स्वर्ग जाते हैं, पापी नरक में जाते हैं। पशु-पक्षी आदि इस संसार में अन्य योनियों में प्रविष्ट होकर घूमते एवं भटकते रहते हैं।
उपरोक्त विवेचन से आप भी समझ ही गए होंगे कि व्यक्ति चाहे तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है, मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।
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