मनुष्य अपनी करणी से आप तरता है, परन्तु पुत्र पर यह श्राद्ध करने का भारी भोझा क्यों? भला जीवन भर तो वह माता पिता की सेवा इसलिए करता रहता है कि वह उनसे उत्पन्नं हुआ था। परन्तु जबकि पिता माता का वह देह भी भस्मसात हो गया फिर भी वह श्राद्ध करे-यह तो अनावश्यक ढकोसला है। फ़िर जीव तो किसी का बाप बेटा नहीं होता पुन: उसके उद्वार के नाम पर श्राद्ध का नाटक कोरी पोपलीला है।
हम पीछे पूर्वाद्ध के अन्येष्टि प्रकरण में यह प्रकट कर चुके हैं कि यदि कोई व्यक्ति संतान उत्पन्न न करके नैष्टिक पदार्थ ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें तो एकमात्र इस साधन से वह दशम द्वार से प्राण निकालकर सूर्य-मण्डल को भेदन करता हुआ अपुनरावृति मार्ग का पथिक बन जाता है, परन्तु सभी मनुष्य इस कठिन मार्ग में आरूद हो जाएँ तो सबके आश्रयदाता गृहस्थ आश्रम के अभाव में अन्याय आश्रमों का आपाततः वर्णाश्रम धर्म का ही उच्छेद हो जाए जो भगवान् को कथमपि इष्ट नहीं है। इसलिए बड़े बड़े ज्ञानी ध्यानी ऋषीमुनि भी जगत्प्रवाह के संचालनार्थ गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं। सो संतानोत्पादन के व्यापार से दशमद्वार से प्राणा प्रयाण की स्वाभाविकी शक्ति क्षीण हो जाती है अतः पिता की इस हानि का दायित्य पुत्र पर है। दाह कर्म के समय पुत्र पिता की कपालास्थी को बांस से तीन बार स्पर्श करता हुआ अंत में तोड़ डालता है जिसका स्वारस्य यही है कि पुत्र शम्शानस्थ समस्त बांधवों के सामने संकेत करता है कि यदि पिता जी मुझसे पामर जंतु को उत्पन्न करने का प्रयास न करते तो ब्रह्मचर्य के बल से उनकी यह कपालास्थी स्वतः फूटकर इसी दशम द्वार से प्राण निकलते और वे मुक्त हो जाते। परन्तु मेरे कारण उनकी यह योग्यता विनष्ट हो गयी है। मैं तीन बार प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस कमी को मैं श्रद्धादि औधर्वदैहिक वैदिक क्रियाओं द्वारा पूरी करके पिताजी का अन्वर्थ-’पुं’ नामक नरक से ’त्र’ त्राण करने वाला ’पुत्र’ बनूंगा। वास्तव में शास्त्र में पुत्र की परिभाषा करते हुए पुत्रत्व का आधार ’श्राद्ध’ कर्म को ही प्रकट किया गया है यथा-
एक ही मार्ग है जिससे दो वस्तुएं उत्पन्न होती है एक 'पुत्र' और दूसरा 'मूत्र'। सो जो व्यक्ति उपयुर्क्त तीनों कार्य करता है वही 'पुत्र' है। शेष सब कोरे 'मूत्र' हैं। मूत्रालय में किलबिलाते हुए 'कीट' भी हमारे ही वीर्यकणों से समुद्भूत है, इसी प्रकार वे नास्तिक भी साढे तीन हाथ के मूत्रकीट ही समझे जाने चाहिए जो कि श्राद्धादी कर्म करके अपने पुत्र होने का प्रमाण नहीं देते।
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