कथा-शिवपुराण के अनुसार एक बार नारदजी ने विंध्य पर्वत के समक्ष मेरु पर्वत की प्रशंसा की। तब विंध्य ने शिव का पार्थिव लिंङ्ग बनाकर उनकी आराधना की। उसकी भक्ति से शिव प्रसन्न हुए और विंध्य की मनोकामना पूरी की। कहते हैं कि तभी से शिव वहां ओंकारलिंङ्ग के रूप में स्थापित हो गए। यह लिंङ्ग दो भागों में है। एक को ओंकारेश्वर और दूसरे को ममलेश्वर या परमेश्वर कहते हैं।ओंकारेश्वर जिस पहाड़ी पर है उसे मान्धाता पर्वत भी कहते हैं। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में सूर्यवंश के राजा मान्धाता ने यहां शिव की आराधना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीराम की पत्नी देवी सीता भी यहां आई थीं और महर्षि वाल्मीकि का यहां आश्रम था। वर्तमान मंदिर पेशवा राजाओं ने बनवाया।
महत्व- ओंकारेश्वर के दर्शन का महत्व है। कहते हैं कि ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन मात्र से व्यक्ति सभी कामनाएं पूर्ण होती है। इसका उल्लेख ग्रंथों में भी मिलता है- शंकर का चौथा अवतार ओंकारनाथ है। यह भी भक्तों के समस्त इच्छाएं पूरी करते हैं। और अंत में सद्गति प्रदान करते हैं।
कैसे पहुंचे- इंदौर, उज्जैन, धार, महू, खंडवा और महेश्वर आदि स्थानों से ओंकारेश्वर तक के लिए बस सेवा उपलब्ध है।
रेल सुविधा- मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन ओंकारेश्वर रोड है। यह 12 किमी की दूरी पर है। यहां से आप लोक परिवहन के साधनों से मंदिर तक जा सकते हैं।
वायु सेवा- ओंकारेश्वर के सबसे समीप का हवाई अड्डा इंदौर में है। यह दिल्ली, मुंबई, पूना, अहमदाबाद और भोपाल हवाई अड्डों से जुड़ा हुआ है। यहां से करीब 77 किमी की दूरी पर मंदिर है।कब जाएं- ओंकारेश्वर आप कभी भी जा सकते हैं, लेकिन जुलाई से मार्च तक का समय सर्वोत्तम है।
सलाह :- श्रावण-भादौ मास में शिव की भक्ति यात्रा का विशेष महत्व है । इन मासों में वर्षा ऋतु होती है । अत: मौसम के अनुकूल वस्त्र आदि की तैयारी के साथ यात्रा करना उचित है । यहां पर पैदल यात्रा के दौरान मार्ग में पत्थर, कंकड़ और बालू होती है, इनसे सावधानी रखना चाहिए ।
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