अनेक प्रकार्यो के साथ-साथ, संयुक्त परिवार अथवा घराना की संरचना में कई अकार्य भी देखने में आते हैं। समाजशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित अकार्यों की चर्चा की गई है:-
संयुक्त घर छोटी-छोटी बातों पर संघर्ष का केंद्र होता है। सदस्यों के बीच में आपसी तालमेल, समायोजन तथा सात्मीकरण का सामान्यत: अभाव होता है। मतभेद एवं कटुता से आंतरिक अंतर्विरोध पैदा होता है। जो संयुक्त घराने के विघटन के लिए रास्ता तैयार करता है।
संयुक्त घराने को सदस्यों के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में बाधा माना जाता है। सामान्यत: घर का मुखिया सारे महत्त्वपूर्ण निर्णय खुद लिया करता है फलस्वरूप हर व्यक्ति की पसंद या नापसंद का खयाल रखना संयुक्त घर में संभव नहीं हो पाता। इस तरह स्वतंत्र रचनात्मक संभावना का पूरी तरह विकास एवं दोहन नहीं हो पाता।
कभी-कभी नये विवाहित जोड़ी के बीच आत्मीयता का विकास नहीं हो पाता फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक असंतोष एवं नासमझी का माहौल रहता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था के अंतर्गत विवाहित युवा स्त्रियों का अधिकांश समय घर के सभी सदस्यों की आवश्यकता पूर्ति में खर्च होता है। इसके कारण उन्हें उचित तरीके से अपने स्वास्थ्य पर धयान देने या आनंद उठाने के लिए समय या अवसर नहीं मिल पाता।
संयुक्त घराने में बुर्जुग तथा युवा दोनों प्रकार के सदस्य पाये जाते है, फलस्वरूप पीढ़ियों के संघर्ष कई प्रकार से उभरते रहते है। बुर्जग लोग कठोरता से पारंपरिक मूल्यों एवं विश्वासों का पालन करते हैं। वे नए सांस्कृतिक चलन एवं सीमा को स्वीकार नहीं पाते। आजकल युवा व्यक्तिवाद के पक्षञ्र होने लगे है एवं पारंपरिक मूल्यों को अञ्निायकवादी, पक्षपातपूर्ण एवं अन्यायी मानकर इनका विरोध करने लगे हैं। इसके कारण कई बार परिवार में समस्याएँ पैदा हो जाती है और घर की शांति भंग हो जाती है। विभिन्न पीढ़ियों की सामाजिक अभिरूचियों में अंतर होता है।
संयुक्त परिवार में परिवर्तन
संयुक्त परिवार में निम्नलिखित परिवर्तनों की चर्चा समाजशास्त्रियों द्वारा अक्सर की जाती है :-
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संरचनात्मक परिवर्तन
जिन तथ्यों एवं मूल्यों ने संयुक्त परिवार या घराने की व्यवस्था का पोषण किया, स्थायित्व दिया एवं कायम रखा वे निम्नलिखित हैं :-
(1) पुत्रों में पिता के प्रति समर्पण की भावना,
(2) आर्थिक रूप से समर्थ सदस्यों का संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों की मदद के लिए तत्पर रहना जो खुद अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ हैं,
(3) बुजुर्ग स्त्री-पुरूष के लिए राज्य द्वारा नियोजित सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था का अभाव होना, एवं
(4) जमीन, पूंजी एवं श्रम के चतुर्दिक लाभ की दृष्टि से संगठन एवं दोहन के लिए संयुक्त परिवार के आकार द्वारा दिया गया भौतिक प्रोत्साहन।
अब संयुक्त घरों में निम्नलिखित कारणों से विघटन हो रहा है :-
(1) भाइयों की आमदनी में अंतर जो घर में कलह को जन्म देता है।
(2) बेटों और उनकी पत्नियों में पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने की भावना में कमी।
(3) पाश्चात्य शैली के प्रभावस्वरूप युवकों मे व्यक्तिवाद का विकास।
(4) अर्थव्यवस्था में सेवाक्षेत्र का बढ़ता महत्त्व तथा बाहरी आमदनी के बढ़ते अवसर के कारण नाभिकीय परिवारों को वरीयता।
प्रकार्यात्मक परिवर्तन
इसकी तीन स्तरों पर पड़ताल की जा सकती है :
1। पति-पत्नी संबंध - पारंपरिक घरों में निर्णय लेने के काम में पत्नी, अपने पति के सहायक की भूमिका निभाती थी। परन्तु समकालीन घरों में पत्नी, अपने पति के बराबर ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाती है। फलस्वरूप घर के कार्य एवं बाहर के कार्य की दृष्टि से पति-पत्नी एक - दूसरे के साथ सहयोग एवं समयोजन करने लगे हैं।
2। माता-पिता एवं बच्चों का संबंध - पारंपरिक परिवारों में शक्ति एवं अधिकार पूरी तरह से र् कत्ता के हाथ में होता था और उसे शिक्षा, व्यवसाय एवं बच्चों के विवाह के बारे में निर्णय लेने के लिए परिवार में असीमित अधिकार प्राप्त होते थे। समकालीन परिवारों में अब अधिकांशत: माता-पिता एवं उनके बच्चे सामूहिक रूप से मिल-जुल कर निर्णय करने लगे हैं।
3। सास-श्वसुर (ससुर) के साथ बहू का संबंध - इस संबंध में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। शिक्षित बहू अपने ससुर के सामने पर्दा नहीं रखती। सास-बहू के संबंध में भी पहले की तुलना में अब कम कटुता है। सास अब शक्तिशाली पद नहीं रहा परन्तु वह ससुर की तरह एक सम्मानीय संबंधी अब भी है।
06 फ़रवरी 2010
संयुक्त घराना के अकार्य
Posted by Udit bhargava at 2/06/2010 07:57:00 pm
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