लखनऊ से मन खिन्न हो गया था। उसी दिन मैंने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तैयारी कर रहे मित्र उन्मेष को कॉल किया, अपनी जरूरी किताबें पैक की और एक ब्रीफकेस में कपडे रखकर स्टेशन आ गया। ट्रेन दो घंटा लेट थी। समय-सीमा से दो घंटे विलम्ब से छूटने की घोषणा हुई।
कमरे पर वापस जाने की इच्छा न थी। आदतन एक बुक स्टाल से हिन्दी मासिक पत्रिका लेकर पढने लगा। पढते-पढते एक कविता पर आकर ठहर गया। एक बार पढी, दो बार पढी और..! कवयित्री कुसुमांजलि, हां यही नाम था जिन्होंने वह कविता लिखी थी। भाव मुझे आज भी याद हैं- कि शहर बदलने से केवल शहर बदलता है, उससे जुडी स्मृतियां, वफाएं या कुछेक गिनी-चुनी सूरतें नहीं।
जीवन अनवरत् प्रवाहमान है। गतिमान होने के लिए जिंदा रहना होता है और जिंदा रहने के लिए किसी का साथ होना। साथ होने का मतलब है कि किसी का अपना होना। कविता यहीं पूरी होती थी। पता और मोबाइल नंबर भी था। कॉल करने न करने के अन्तर्द्वन्द्व से उबरते हुए आखिर में मैंने उनका नम्बर मिलाया और हेलो कहते ही उनकी बिना सुने, कविता में मुझे क्या अच्छा लगा, क्या बहुत अच्छा लगा, सब कुछ एक ही सांस में कहता चला गया।
बाद में हुई बातचीत में वह बहुत खुश और रोमांचित लगी। विचारों से स्वच्छ और उन्मुक्त भी। मुझे याद है बातचीत का क्रम टूटते-टूटते धीरे से हंसते हुए उन्होंने कहा था- आपकी प्रतिक्रिया और भावना ने मुझे बहुत प्रभावित किया आपकी बातें तो मुग्धकारी हैं। उस दिन की बातचीत का सिलसिला बहुत लम्बा होता गया। गाडी जाने कब आई और निकल गई, लेकिन जाने क्यों उस दिन ट्रेन छूटने का कोई अफसोस नहीं हुआ। हां इतना जरूर महसूस किया कि जिन कारणों से शहर छूट रहा था, उन्हीं कारणों से मैं शहर की ओर लौट रहा था..।
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