06 फ़रवरी 2010

वृन्दावन की रासलीला

भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं की मनोहारी प्रस्तुति अपने देश की प्राचीन एवं गौरवशाली परंपरा रही है, जिसकी प्रमुख रंग-स्थली वृन्दावन है। श्रावण के महीने में तो यहाँ रासलीला की निराली ही धूम रहती है। पुरानों में कहा गया है कि माया के आवरण से रहित जीव का ब्रहम के साथ विलास ही रास है। इसमें लौकिक काम नहीं है।

अतः यह साधारण स्त्री- पुरुष का नहीं, अपितु जीव और इश्वर का मिलन है।
रासलीला के मंचन की शुरुआत महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की प्रेरणा से आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व भक्तिकाल में हुई थी। भक्तिकाल में जब मुसलमानों का शासन था तब महाप्रभु वल्लभाचार्य जी ने चौरासी कोस में स्थित समूचे ब्रज मंडल का भ्रमण कर उन-उन स्थानों को खोजा था, जहाँ-जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने लीला की थी। श्रीमद्भागवत के प्रसंगों के आधार पर बरसाना के निकट करहला गाँव में रासलीला के दौरान भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूप को मोर पंखों का जो मुकुट धारण कराया था, वह आज भी करहला में सुरक्षित रखा हुआ है।

श्री नारायण भट्ट को रास मंडलों का संस्थापक माना जाता है। नारायण भट्ट जी ने संवत 1604 में बरसाना के भ्रमेशवर गिरी में से राधारानी का प्राकटय किया था। भट्ट जी नए कुल 28 रास मंडलों की स्थापना की थी। उसी समय वृन्दावन में श्रीहित हरिवंश जी, स्वामी श्री हरिदास जी एवं श्री हरिराम व्यास ने भी पांच रास्मंदलों की स्थापना की। नारायण भट्ट ने बरसाना में बूढी लीलाओं के मंचन की भी शुरुआत की। यह लीलाएं आज भी संत समाज के सहयोग से चिकसोंली के फत्ते स्वामी के वंशज बालकों के द्वारा बाबा चतुर्भुज दास पुजारी के निर्देशन में की जाती हैं। इस समय यह उत्तर प्रदेश की अत्यंत समृद्ध लोक नाट्यकला है। नृत्य, संगीत, नाटक और कविता इसके प्रमुख अंग है। समस्त नौ रस इसमें निहित है।

रासलीला के प्रसंगों को दिन ब दिन विकसित करने में संतों, कवियों और भक्तों आदि का विशेष योगदान रहा है। जयदेव, सूरदास, चतुर्भुज दास, स्वामी हरिदास, कुम्हन दास, नंदास, हरिराम व्यास एवं परमानंद आदि ने रासलीला को मजबूत धरातल प्रदान किया।

इस समय ब्रज में दो प्रकार की रास मंडलियाँ प्रमुख हैं - बायें मुकुटवाली जो कि निम्बार्की मंडली कहलाती है एवं दायें मुकुटवाली, जो कि वल्लभकुली मंडली कहलाती हैं। रासलीला के दो मुख्य भाग है 'रास' और 'लीला'। रास वह हैं जिसमें मंगलाचरण, आरती, गायन, वादन व नृत्य आदि होता है, जिसे 'नृत्य रास' या नृत्य रास' कहा जाता है। लीला में भगवान् श्रीकृष्ण की सुमधुर रसमयी, चंचल व गंभीर निकुंज लीलाओं एवं पौराणिक कथाओं की लीलाओं व भक्त चरित्रों आदि का अभिनयात्मक प्रदर्शक गात्मक और पात्मक शैली में होता है।

रासलीला में 'राधा' व 'कृष्ण' के स्वरूपों को साक्षात् भगवान् मानकर पूजा जाता है। दर्शक उनकी आरती उतारते हैं।
रासलीला की एक प्रमुख लीला महारास। इसके जनक स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण थे। उन्होंने इस लीला को शरद पूर्णिमा की रात्री में वृन्दावन के यमुना तट स्थित वंशीवट पर सोलह हजार एक सुन आठ गोपिकाओं के साथ किया था। सर्वप्रथम उन्होनें अपनी लोक विमोहिनी बंसी बजा कर यमुना के किनारे गोपिकाओं को एकत्रित किया, फिर योग माया के बल पर प्रत्येक गोपी के साथ एक- एक कृष्ण प्रकट किये। तत्पश्चात महारास लीला की। इस लीला में गोपियाँ अनंत थयें, लेकिन उनमएं से प्रत्येक को यह अनुभव हो रहा था कि श्रीकृष्ण के वाल उन्हीं के साथ हैं। भगवान् शिव भी गोपी का रूप धारण कर इस अद्वित्य लीलो को देखने के लिए आये थे। तभी से भगवान् शिव को गोपेश्वर महादेव भी कहा जाता है। अन्य देवता भी इस लीलो को देखने के लिए अपने विमानों में बैठकर आकाश पर छाए रहे थे। यह लीला आज भी प्राय: शरद पूर्णिमा पर ही की जाती है। चूंकि इस लीला मएं अनेक श्रीक्रिश्नों की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए इसमें अनेक रासमं डालियों के ठाकुर ( भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरुप) भाग लेते हैं। यह लीला रात्री गए प्रारंभ होकर प्रातः लगभग दो-तीन बजे तक चलती है।

महारास लीला के अतिरिक्त ' अष्ट्याम लीला' भी रासलीला की एक महत्वपूर्ण लीला मानी जाती है। तीन घंटे का एक 'याम' होने से दिन और रात के चौबीस घंटों में कुल आठ याम होते हैं, उन्हें ही अष्ट्याम कहा गया है। इन आठों यामों में ठाकुर जी (भगवान् श्रीकृष्ण) ने ब्रज में राधारानी के साथ निकुंज बिहारी के रूप में एवं नन्द बाबा के यहाँ बलराम जी के साथ जो-जो लीलाएं की थीं, उनका अभिनयात्मक प्रदर्शन किया जाता है।