त्रिविधंश्राद्धमुच्यतेके अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य के नाम से जाना जाता है। यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से जाना जाता है।
नित्य श्राद्ध- नित्य का अर्थ प्रतिदिन। अर्थात् रोज-रोज किए जानें वाले श्राद्ध को नित्यश्राद्धकहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। अत्यंत आवश्यकता एवं असमर्थावस्थामें केवल जल से इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, विवाहादिमांगलिक कार्यो में जो श्राद्ध होता है। उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्धया नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्याअथवा पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।
विश्वामित्रस्मृतितथा भविष्यपुराणमें बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन,गोष्ठी, शुद्धयर्थ,कर्माग,दैविक, यात्रार्थतथा पुष्ट्यर्थके नामों से जाना जाता है। यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो इन बारहों श्राद्धों का स्वरूप ऊपर बताए गए पांच प्रकार के श्राद्धों में स्पष्ट रूप से झलकता है।
सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। दरअसल शास्त्रों के अनुसार जब जीव की मृत्यु होती है, तो वह प्रेत हो जाता है। प्रेत से पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जा सकता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं। जैसे- सीमन्तोन्नयन, पुंसवन आदि संस्कारों के सम्पन्नता हेतु किया जाने वाला श्राद्ध इस श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। यह घी द्वारा सम्पन्न होता है। इसीलिए इसे घृतश्राद्धकी भी उपमा दी गयी है।
पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।
वर्णित सभी प्रकार के श्राद्धों को दो भेदों के रूप में जाना जाता है। श्रौत तथा स्मार्त्त।पिण्डपितृयागको श्रौतश्राद्धकहते हैं तथा एकोद्दिष्ट पार्वण आदि मरण तक के श्राद्ध को स्मार्त्तश्राद्ध कहा जाता है।
श्राद्धैर्नवतिश्चषट्-धर्मसिन्धुके अनुसार श्राद्ध के 96अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं(12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14)संक्रान्तियां (12)वैधृति योग (12),व्यतिपात योग (12)पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध(5) अन्वष्टका(5) तथा पूर्वेद्यु:(5) मिलाकर कुल 96अवसर श्राद्ध के हैं।
18 जनवरी 2010
श्राद्ध के विविध स्वरूप
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:27:00 pm
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