12 जुलाई 2010

हिमाचल प्रदेश की ग्ददी जनजाति ( Gaddi Tribes of Himachal Pradesh )


हिमाचल प्रदेश मे गद्दी एक विशिष्ट जनजाति है जो शारीरिक सरंचना, संस्कृतनिष्ठ भाषा, विशिष्ट वेशभूषा के कारण अपना अलग अस्तित्व रखती है। इस जनजाति का मूल क्या रहा होगा, यह निश्चित तौर से नहीं कहा जा सकता।

गद्दी अपने को मैदानों से आया हुआ बताते हैं। ’ए ग्लोरी आंफ़ द ट्राईब्स एण्ड कास्टस’ में उल्लेख है कि राजा अजय वर्मन के समय में कुछ चौहान राजपूत गद्दी ब्राह्मण, मैदानों से पलायन कर यहां आए। कुछ राजपूत और खत्री औरंगजेब के समय मैदानों से यहां आए। अजय वर्मन का समय सन 850-70 माना गया है जो सही प्रतीत नहीं होता। ’हिस्ट्री आंफ़ पंजाब हिल्ज स्टेट’ में अजय वर्मन का कार्यकाल सन 760 दिया गया है, जो सही प्रतीत होता है, जिसमें गद्दी ब्राह्मणों तथा राजपूतों के दिल्ली आने का उल्लेख है।

यह मान्यता कि भरमौर (पुरातन ब्रह्मपुर) गद्दियों की वास्तविक भूमि थी, इतिहास से मेल नही खाती। ब्रह्मपुर एक सम्पन्न राज्य था जो यहां के मंदिरों, वास्तुकला, मूर्तिकला को देखकर प्रमाणित होता है। ब्रह्मपुर का इतिहास आदित्य वर्मन (सन 620 ) तक और उसके भी पहले मारू तक जाता है।

ब्रह्मपुर का पुरातन राज्य राजा साहिल वर्मन (सन 920 ) के समय राजधानी चम्बा स्थानांतरित होने से उपेक्षित हो गया था। बाद में गद्दियों की प्रवासी प्रकृति के कारण सूना-सूना रहने लगा। सम्भवत: तभी गजेटियर में (1904) भरमौर की जनसँख्या 1901 की जनगणना के अनुसार मात्रा 4,343 बताई गयी है। हो सकता है कि जनगणना सर्दियों के मौसम में हुई हो और अधिकाँश गद्दी अपनी भेड़-बकरियों के साथ कांगड़ा या मैदानों में चले गए हों। घरों में बूढ़े लोग ही बचे होंगे। अन्या स्त्रोंतों के अनुसार वास्तविक जनसँख्या 33,907 थी।

क्या गद्दी लोग पहले से ही प्रवासी थे और भेड़-बकरी पालन के कारण मात्रा गर्मियों में ही भरमौर आते थे? इनके व्यवसाय, रहन सहन तथा परम्पराओं और देवी देवताओं के अस्तित्व से ऐसा ही प्रतीत होता है। गर्मियों में अपनी भेड़-बकरियों 'धण' के साथ कुछ धौलाधार से कांगड़ा की ओर आते हैं, तो कुछ 'साच' दर्रे, 'कुगति' दर्रे या अन्य मार्गों से पांगी तथा लाहौल की ओर से। अतः गद्दियों का पंगावालों और विशेषकर लाहुलों से सम्बन्ध रहा है।

गद्दी लोग आज भी आग जलाने के लिये चमकदार पत्थर का इतेमाल करते हैं। कुल्लू, किन्नौर तथा लाहौल के लोगों की भांति बलि देते हैं और कई प्रकार के विश्वासों (या अंधविश्वासों) मान्यताओं से ग्रसित हैं। उनकी अपनी अलग वेशभूषा और भाषा है। अतः यह जनजाति भी यहाँ की मूल जानाति है। यदि ये दिल्ली या मैदानों से आए होते तो इनमें इतना कुछ अलग नहीं होता। अलबत्ता बाद में बहुत से लोग मुस्लिम काल में धौलाधार की ओर पलायन करते रहे, जो चंबा या आसपास के लोगों में घुल-मिल गए।

गद्दियों में प्रमुख चार जातियां है- ब्रह्मण, खत्री, ठाकुर या राठी तथा अन्य। ब्रह्मण तथा खत्री राजपूत यज्ञोपवीत धारण करते हैं। ठाकुर या राठी यज्ञोपवीत नहीं पहनते। अन्य जातियों में कोली, रिहाडे, लोहार, बाढी, सिप्पी तथा हाली आते हैं, जिन्हें गद्दी लोग अपनी तरह गद्दी नहीं मानते।

हर वर्ग कई गोत्रों में विभक्त है। ब्रह्मण, खत्री आपस में विवाह सम्बन्ध कर लेते हैं। विवाह के लिये यज्ञोपवीत धारण करने वाली या न करने वाले भी कोई शर्त नहीं है।

अन्य जातियां या तो खेती करती हैं या वे शिल्पी हैं। कोली तथा सिप्पी को एक ही समझा जाता है। कपडे बुनना इनका कार्य है। रिहाड़े पीतल के बर्तन या जेवर बनाते हैं, लोहार लोहे का काम करते हैं, बाढी लकड़ी का, हाली हल जोतते हैं। ये जातियां सम्भवतः इस ओर बाद में आईं, अतः अछूत मानी जाने लगीं। गद्दी वर्ग में इन्हें अपना हिस्सा नहीं माना।

ब्रह्मण, खत्री, ठाकुर या राठी ब्राह्मणों के समान अपने गोत्र रखते हैं। कुछ स्थानों के नाम तथा शारीरिक विकलांगता के नामों पर भी गोत्र बने जैसे बतियाल के ब्रह्मण भाट  हुए, एक हाथ वाला डण्डू हुआ। घुलने अर्थात पहलवाने करने से कोई घुलेटू हुआ तो लूण या नमक का काम करने वाला लूणेसर।

ब्रह्मण, राजपूत, राठी ये उच्च बने क्योंकि ये लोग यहाँ पहले से रह रहे थे। हल जोतने वाले या शिल्पी जो बहार से आए, निम्न हो गए। हल जोतने वालों पर राजपूतों या राजाओं का अधिकार रहा, इसलिए निम्न कोटि के, कामगार किस्म के कहलाये।

भरमौर में या कांगड़ा के ऊपरी भाग, पालमपुर की धौलाधार के नीचे रहने वाले सभी व्यक्तियों को गद्दी ही कहा जाता है। वे चाहे ब्रह्मण हों, राजपूत या राठी हों या खत्री। खत्री और महाजन अब एक व्यापारी जाती है, जो दुकानदारी करते हैं, पुरातन खत्री राजपूत बने। यह सम्भवतः खत्री की क्षत्रिय से व्युत्पति के कारण रहा होगा। गद्दी खत्री, मैदानों से आए खत्री महाजनों से, जो व्यापारी हैं, भिन्न हो सकते हैं।

ब्राह्मणों में विशिष्ठ, गौतम, अत्री, भार्द्वाद आदि, खत्रियों में रतनपाल, अत्री, भारद्वाज आदि जातियां हैं। किन्तु गोत्रों में 'अलों' से वर्गीकरण हुआ और इन्हीं को वे अपनी जातियां समझ बैठे। जैसे जारी 'जुक', चुप रहने वाले 'चुपेटु ', नाक में बोलने वाले 'गुत्रा', अफीमची 'अमलेतु', काले रंग वाले 'कपूर', मुक्केबाज 'मकरातु' कहलाए।

जालंधर खण्ड में किन्नौर, स्पिति  दोनों लाहुल, पांगी और धेरन के लोगों को उनके निवास स्थान और जातीय-विशेषता के कारण हम  सीमांती या जनयुगीन जातियां कह सकते हैं। इनमें से कुछ के बारे में विशेष रूप से राहुल जी ने लिखा है: गद्दी वस्तुतः एक जाती का नहीं, बल्कि एक इलाके के रहने वाले ब्राह्मणों, राजपूतों, क्षत्रियों, ठाकुरों और राठियों का नाम है, जिनमें सबसे अधिक संख्या खत्रियों की है। पंजाब में भी खत्री शब्द क्षत्रिय से वैसे ही बिगड़कर बना है, जैसे नेपाल में खत्री। इसलिये गधेरन के क्षत्रियों के उद्गम के लिये हमें पंजाबी खत्रियों की ओर निगाह डालने की जरूरत नहीं। बाहर के लोगों ने गद्दी का जो अर्थ लगा रखा है अर्थात एक भेड़ चुराने वाली हीन जाती, उसके कारण गधेरन के लोग अपने को गद्दी न कहकर ब्रह्मण, राजपूत, खत्री आदि कहते हैं और जनगणना में उसी तरह लिखवाते हैं। ये गद्दी मुख्यतः चंबा जिले के ब्रह्मौर वजारत (तहसील) में मिलते हैं, लेकिन, उनमें से कितने ही अपनी दक्षिणी सीमा धौलाधार के घाटों को पार कर कांगड़ा जिले के गाइरों बुकियालों) के लिये उधर भी चले गए हैं। गधेरन (चंबा) के रहने वाली जातियों के गोत्र फकरू, घोरू (राजवंशी), घलेटू (पहलवान), भजरेटू (भारवाहक), गाहरी (चरवाहें), अदापी, लुनेसर (नमक-रोजगारी), काहनघेरू (कंघी रोजगारी), पालनू आदि होते हैं। गद्दी लोग शरीर से बहुत स्वस्थ, रंग में बहुत गोरे और स्वभाव में सीधे-सादे आत्मसम्मान के पुतले होते हैं। वे उत्सवप्रिय होते हैं, गाना-नाचना उन्हें पसंद है।

भेड़ों को लेकर वे धौलाधार, पांगीधार या जांस्करधार की ऊंची चरागाहों (गाहरों) में साल के बहुत-से महीने बिताते हैं। उनकी आजीविका का साधन खेती और भेड़-बकरी पालना दोनों हैं। जाड़ों के दिनों में वे अपनी भेड़-बकरियों को लेकर नीचे की ओर चले जाते हैं। घर के पुरुष बारी-बारी से भेड़-बकरियों के साथ बाहर रहते हैं, बाकी लोग गाँव में रहकर खेती और ढोरों को देखते हैं। गद्दी धौलाधार के दोनों तरफ बसे हुए हैं, इसलिए उनके खेत भी चंबा और कांगडे दोनों जिलों में है। कांगड़ा में जाड़े की फसल काटकर ब्रह्मौर (गदेरन) जाकर अपनी गर्मियों की फसल काटते हैं। वे अक्टूबर-नवम्बर में कांगड़ा की ओर जाते हैं और अप्रैल-मई में ब्रह्मौर लौटते हैं। गद्दियों की ईमानदारी के लिये कहावत मशहूर है 'गद्दी मित्तर भोला, दिन्दा टोप तो मंगदा चोला।'

भरमौर में कन्या के जन्म पर पांचवे दिन और पुत्र के जन्म पर दसवें दिन शुद्धि की जाती है जिसे गंतूर या गोंत्राला कहा जाता है। इस अवसर पर माता के कपड़ों को धोने के साथ-साथ पूरे घर की सफाई की जाती है। पूरे घर तथा कपड़ों की शुद्धि के लिये गौमूत्र, दूध तथा गंगाजल का छिडकाव किया जाता है। घर के सभी छोटे-बड़े सदस्य इस का पान भी करते हैं। पुरोहित के पास जाकर शिशु के भविष्य के बारे में पूछा जाता है। यदि शिशु का जन्म शुभ मूहर्त या नक्षत्र में हुआ हो या अपने या दूसरों के लिये कष्ट्कारी हो तो पुरोहित के बताए अनुसार अष्टधातु, रत्ती आदि के साथ कंगन बांधा जाता है। दूसरे उपाय भी किये जाते हैं। सामान्यतः बालक की जन्मपत्री नहीं बनवाई जाती। कुछ खाते-पीते घर के लोग ही जन्मपत्री बनवाते हैं।

गंतूर या गोंत्राला होने तक जिस कमरे में शिशु का जन्म हुआ हो, वहां किसी व्यक्ति द्वारा अन्न ग्रहण नहीं किया जाता। शुद्धिकरण तक शिशु की माँ को नहलाया भी नहीं जाता। छः महीने का होने पर नामकरण किया जाता है। कुछ लोग स्वयं ही नाम रख देते हैं तो कुछ पुरोहित से पूछकर नाम रखते हैं। नामकरण के समय गुड बांटा जाता है।

बालक को पहली बार अन्न खिलाने के समय भी कुछ संस्कार किये जाते हैं। बालक को जमीन पर बैठाया जाता है और उसके सामने दाराट, कुदाल, कागज़, खीर, रखी जाती है। यदि वह खीर को पहले छुए तो पेटू होगा, कागज़ छुए तो विद्वान्, दराट-कुदाल छुए तो अच्छा कृषक या पुहाल होगा। इस अवसर पर पुरोहित तथा कन्याओं को खीर खिलाई जाती है।

शिशु के जन्म के कपड़ों के संभाल कर रखा जाता है। विवाह के समय माँ द्वार ये कपडे उसे दिखाए जाते हैं और यह एहसास करवाया जाता है कि वह युवक इतना-सा था। पुराने समय में वर माँ को इसके लिये एक से चार रूपए तक देता था।

बालक की मृत्यु हो जाने की स्थिति में जहां बालक दफनाया गया हो वहां उसे नहलाया जाता है। इसे 'घाट न्हौण' कहते हैं। कई बार तीर्थ या शमशान न्हौण भी करवाया जाता है। इस अवसर पर चेले को कपडे तथा पैसे दिए जाते हैं। गर्भ ठहरने के बाद महिला गर्भपात के देवता कैठू के नाम अपना हार तथा चार चकलियां (पुराने ताम्बे के रूपए) रखती थी। शिशु जन्म के तीन चार महीने बाद पुरोहित तथा महिला इस देवता की पूजा अखरोट या कैंथ के पेड़ के नीचे करते हैं। एक सफ़ेद बकरा या काले सिर वाला सफ़ेद बकरा प्रस्तुत कर उसके दाएं कान में काति से काट एक कपडे के ऊपर खून गिराया जाता है। देवता को चार चकलियां तथा रोटी दी जाती है। महिला द्वारा गुड खाने के बाद कपडे में रख लिया जाता है। यह कपड़ा तब तक रखा जाता है जब तक फटे नहीं।

गद्दी समाज में विवाह संस्कार एक महत्वपूर्ण संस्कार है। यह एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। हर्षोल्लास के इस अवसर पर सभी सम्बंधित मिलकर खाते-पीते हैं। सुरा पी जाती है, बकरे कटते हैं, डंडारस नाच किया जाता है, दूसरा विवाह पहली पत्नी की मृत्यु होने पर या नि-संतान होने पर पहली पत्नी की अनुमति से किया जाता है।

वर-वधु के माता पिता की आपसी रजामंदी से विधिवत किया गया विवाह 'धर्म पुत्र' कहलाता है। सगाई पक्की होने पर वर पक्ष के कुछ लोग एक सेर शुद्ध घी लेकर वधू पक्ष के यहाँ जाते हैं। यहाँ पुरोहित दोनों पक्षों की सुविधानुसार तिथि निश्चित करता है। पुरोहित पूरा कार्यक्रम बनाकर देता है। जिसे 'लखणोतरी' कहा जाता है।

विवाह की सभी रस्में लगभग कांगड़ा की रस्मों की भांति हैं। यद्यपि स्थानीय परम्परा के अनुसार कुछ अतिरिक्त संस्कार भी जुड़े हैं।

विवाह का आरम्भ समूहत से होता है जिनमें वर को बूटणा (उबटन) लगा कर आँगन में नहलाया जाता है। क्योंकि यज्ञोपवीत पहले नहीं होता। अतः इसी दिन मंजुमाला, म्रगछाला, मुद्रा पहना कर ब्रह्मचारी बनाने के साथ याग्योपवीत पहनाया जाता है। पुरोहित वर से पूछता है वह 'जतेरा जीवन' (सांसारिक जीवन) जीएगा या मतेरा जीवन (सन्यासी जीवन) ? वर जतेरा जीवन जीने के लिये कहता है।

तेल संस्कार मामा द्वारा एक कटोरी में तेल डाल कर वर के सिर पर रख हरी डूब से हिलाने के साथ होता है। डूब से तेल का छिडकाव किया जाता है। सभी संबंधी भी ऐसा करते हैं। मामा द्वारा दिया सेहरा वर द्वारा पहना जाता है। मामी आँखों में सुरमा डालती है। माँ वर को तमोल लगाती है। वर को पालकी में बिठा अन्य लोगों के साथ वधु पक्ष के यहाँ ले जाया जाता है। बरात को 'जनेत' कहा जाता है। बरात बाजे-गाजे के साथ जाती है। वर की पालकी हाली उठाते हैं।

बरात को ठहरने के लिये अलग मकान दिया जाता है। वर के पिता, मामा तथा पुरोहित लुचियों का टोकरा लेकर जाते हैं। वे रात में तथा अगले दिनों होने वाले संस्कारों पर बातचीत करते हैं।

बरात को भोजन के लिये निमंत्रण दिया जाता है। वर की ओर से कन्या को 'बरासूही' दी जाती है जो एक पिटारी या ट्रंक में होती है। इसमें वधु के लिये कपडे, श्रृंगार की सामग्री, गुड, नारियल, बादाम, लड्डू, केसर, न्हाणी (सुगंधित जडी) आदि होते हैं।

बरात के भोजन के बाद मूहर्त के अनुसार पुरोहित वर को कन्या के घर ले जाता है हां सास आरती उतारती है। ससुर वर के पैर धुलाता है। कन्या को बाहर लाया जाता है। वर तथा वधु के सिर तीन बार एक दूसरे से लगाए जाते हैं। चीरी संस्कार में मालती की लकड़ी के सात टुकडे कन्या वर को देती है जिसे वह पाँव के नीचे रख कर तोड़ता है।

कन्यादान तथा लग्न संस्कार कांगड़ा की भांति किये जाते हैं। कन्या का भाई कन्या का दुपट्टा फैलाता है जिस पर वर केसर के छींटे फेंकता है। कन्या भी वर के पटके पर केसर छिडकती है। पुरोहित कन्या के हातों में फल, फूल तथा कुछ पैसे रखता है। वर अपने हाथ कन्या के हातों पर रखता है। पिता भी हाथ लगाकर पुरोहित द्वारा मन्त्रोच्चारण के साथ कन्या दान करता है। कन्यादान के बाद कन्या को घर के भीतर ले जाते हैं। वर कुछ संस्कार अकेला पूरे करता है जिन्हें मनिहार कहते हैं। फिर वर को भीतर ले जाते हैं जहां कामदेव की प्रतिमा बनी होती है। कन्या को वहां लाकर उसके बाल सँवारे जाते हैं।

'खिलां खलाणी' संस्कार में एक छाज में जौ की खीलें राखी जाती हैं। वर ये खीलें तीन दिशाओं में रखता है, कन्या की बहनें इन्हें पुनः जल्दी से छाज में डालती हैं। यह बार-बार किया जाता है।

वर-वधु द्वारा अग्नि के फेरे लिये जाते हैं जो चार या सात हो सकते हैं। गोत्राचार में वर कन्या को अपने गोत्र में सम्मलित करता है।

बरात वापित आने पर दुल्हा-दुल्हन की आरती उतारी जाती है। सास बहु को कुछ भेंट देती है। वर-वधु से गणपति पूजन करवाया जाता है। दो परिवारों के पुरुष तथा महिला वर-वधु का कंगणा खोलते हैं। पुरुष वर का तथा महिला वधु का कंगणा खोल कर कंगण भाई या बहन बनते हैं। महिलाएं वधु का मुंह देखकर कुछ भेंट देती हैं।

एक विवाह में कम से कम चार धामें (भोज) दी जाती हैं। पहली समूहत के दिन, दूसरी बरात जाने के समय, तीसरी बरात वापसी पर तथा एक अगले दिन। धाम में बकरे कटने के साथ सुरा पान भी आवश्यक है।

गद्दी जनजाति में बाल-विवाह की प्रथा थी। जब बच्चे अभी गोद में ही होते थे तो उनका रिश्ता तय कर दिया जाता था। खेलने के दिनों में विवाह हो जाता था। यदि बचपन में विवाह हो जाए तो कन्या के युवा होने पर वर अपने सम्बन्धियों सहित वधु को लेने आता था। यह 'सदनोज' कहलाता है। यह कन्या के युवा होने पर होता है। इस बरात को वधु के घर तीन भोज दिए जाते हैं। यदि ये लोग शाम को आएं तो अगले दिन दोपहर का खाना खा कर जाते हैं। खाने में बकरे कटना आवश्यक है, सुरा भी पी जाती है। वर पक्ष की ओर भी धाम दी जाती है।

पुराने समय में कन्या की विदाई के समय बीस सेर आटे के बबरू, दो चोलू, दो लुआंचडियां, दस-पन्द्रह चुंडू, एक चादर तथा चार सेर गेहूं दिए जाते थे। दहेज में चांदी के आभूषण, भांडे-बरतन दिए जाते थ।

'बट्टा- सट्टा' एक लोकप्रिय विवाह पद्वति है। वर किसी कन्या से विवाह करने के बदले अपनी सगी बहन, ममेरी, फुफेरी या ताऊ चाचा की लड़की को अपनी भावी पत्नी के भाई को प्रस्तावित करता है। अतः एक परिवार की कन्या या पुत्र का विवाह दूसरे परिवार के पुत्र या कन्या से होता है। इस प्रकार से विवाह भी सुगम रहता है और सम्बन्ध भी प्रगाढ़ होते हैं।

'झांझराडा' पद्वति को गुदानी या चोली डोरी भी कहते हैं। पति की मृत्यु के बाद विधवा अपने पति के भाई से विवाह करती थी। किन्हीं स्थानों में विधवा किसी भी पुरुष से विवाह कर सकती है। विधवा स्त्री तथा पुरुष को कुम्भ तथा दीपक से पास बिठा दिया जाता है। स्त्री के बाल बनाई जाते हैं। पुरुष की ओर से स्त्री को नथ पहनने के लिये दी जाती है। विवाह के बाद भोज दिया जाता है। ऐसे विवाह में पुरोहित का होना आवश्यक नहीं है। कोई भी पुरुष किसी विधवा स्त्री से झांझराडा कर सकता है।

'घर जवांतरी' विवाह या घर जंवाई विवाह की प्रथा भी गद्दियों में कुछ अनोखे ढंग से प्रचलित है। वर को विवाह की खातिर अपने होने वाली ससुराल में सात से दस वर्ष तक रहना पड़ता है। वह नौकर की भांति काम करता है। उसे लगातार वहीँ रहना पड़ता है। यदि बीच में वह कही चला जाए तो रहने की अवधि बढ़ा दी जाती है। उसे अपने ससुर का हर कार्य करना पड़ता है। ससुर के प्रसन्न होने पर विवाह होता है। अवधि पूरी होने पर जब दूल्हा अपने घर वापस जाता है तो विवाह कर दिया जाता है।

'रीत' की भांति खेवत विवाह गद्दी जनजाति में प्रचलित है। यदि कोई पुरुष स्त्री के पहले पति को विवाह का पूरा खर्चा हर्जाने सहित अदा कर दे तो वह उस पुरुष से विवाह कर सकती है। प्रथम पुरुष यदि मान जाए तो स्त्री द्वारा ऐसा दूसरा विवाह किया जाना सम्भव है। किन्नौर की ओर से 'इज्जत' कहते हैं। यह विवाह स्त्री को पति गृह में मान-सम्मान न मिलने, पति का किसी अन्य स्त्री से प्रेम सम्बन्ध होने आदि के कारण होता है।

इस विवाह पद्वति में कन्या का पिता, वर या वर के माता-पिता से कन्या के बदले रूपए लेता है। यह राशि पांच सौ रूपये से लेकर हजार तक हो सकती है। राशि के भुगतान पर कन्या का विवाह कर दिया जाता है।

यदि माता-पिता कन्या का मनचाहे युवक से विवाह न करें तो वह अपने प्रेमी युवक के साथ भाग जाती है। दोनों झिंड अर्थात झाड़ियाँ जलाकर अग्नि के फेरे लेकर विवाह कर लेते हैं। बाद में इस विवाह को मान्यता तो मिल जाती है किन्तु कन्या का घर से भागना एक ग्लानी उत्पन्न कर जाता है। यदि कभी विवाह से पूर्व लड़की मिल जाए तो उसे जबरदस्ती घर भी वापिस लाया जाता है।

गद्दी जनजाति में विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता है अतः सामान्यता विवाह-विच्छेद की नौबत नहीं आती। यदि कोई झगड़ा हो जाए तो पंचायत के हस्तक्षेप से दहेज़ की वस्तुएँ या नकदी पति को वापिस देनी पड़ती हैं। विच्छेद होने पर बच्चे पिता के घर रहते हैं। यदि गर्भ में शिशु हो तो वह भी जन्म के बाद पिता हो सौंप दिया जाता है। स्त्री अकेली दूसरे पति के घर चली जाती है।