पर मित्रविंद ने अपनी माता की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस बीच कार्तिक पूर्णिमा का पर्व आ पड़ा । मित्रविंद को उसकी माँ ने समझाया, ‘‘बेटा । आज पुण्य पर्व का दिन है। रात भर विहारों में धर्म का उपदेश करते हैं। तुम वहॉं पर जाओ। सबके साथ मिलकर पूजा करो।
उपदेश सुनकर लौट आओ। तुम्हें मैं एक हज़ार मुद्राएँ दूँगी।'' धन के लोभ में आकर मित्रविंद ने माता की बात मान ली। उपदेश सुनने के लिए वह विहार में तो पहुँचा, पर एक कोने में लेट कर सो गया। सवेरा होते ही हाथ-मुँह धोकर सीधे घर चला आया।
माता ने सोचा कि उसका पुत्र धर्म प्रचारक को साथ लेकर घर लौटेगा। इस विचार से उसने दोनों के लिए रसोई बनाई। लेकिन अपने पुत्र को अकेले घर लौटे देख माता ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम धर्म-प्रचारक को अपने साथ क्यों नहीं ले आये?'' ‘‘माँ, उनको यहाँ पर लाने की क्या आवश्यकता है? उनके साथ मेरा क्या काम है?''
मित्रविंद ने उत्तर दिया। इसके बाद मित्रविंद खाना खाकर माता से एक हज़ार मुद्राएँ लेकर घर से निकल गया। उस धन को अपनी पूँजी बनाकर मित्रविंद ने कोई व्यापार प्रारंभ किया और कुछ ही दिनों में उसने बीस लाख मुद्राएँ कमा लीं।
उस धन से मित्रविंद संतुष्ट नहीं हुआ। तब उस ने अपने मन में सोचा, ‘मैं इस धन को पूँजी बनाकर समुद्री व्यापार करूँगा। इससे कई गुना अधिक धन कमाऊँगा!' इस विचार से उसने एक नाव खरीद ली। माल खरीदकर नाव पर लदवा दिया, तब समुद्री व्यापार का समाचार सुनाकर अपनी माता से अनुमति लेने के लिए घर पहुँचा।
अपने पुत्र के मुँह से सारा वृत्तांत सुनकर माता की आँखों में आँसू भर आये। वह बोली, ‘‘बेटा, तुम मेरे इकलौते पुत्र हो। तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक धन है। और ज्यादा धन कमाकर तुम क्या करोगे? समुद्री यात्रा खतरों से खाली नहीं है। मेरी बात मानकर अपनी यात्रा बंद करो। घर पर ही रह जाओ! मैं तुमसे यही चाहती हूँ।'' पर मित्रविंद ने अपनी माँ की बात नहीं मानी।
उसने समुद्री यात्रा पर जाने का हठ किया। इस पर माता ने उसका हाथ पकड़कर गिड़गिड़ाते हुए उसे यात्रा पर जाने से रोकना चाहा, लेकिन उस दुष्ट ने अपनी माता को पीटा और जबर्दस्ती हाथ छुड़ाकर घर से निकल गया। उसी दिन मित्रविंद की नाव यात्रा पर चल पड़ी।
सात दिनों तक समुद्री यात्रा बिना विघ्न के आराम से चली, पर आठवें दिन समुद्र के बीच नाव आगे बढ़ने से रुक गई। नाव के नाविकों ने सोचा कि इस दुर्घटना का कारण नाव के यात्रियों में से कोई ज़रूर होगा। इस ख्याल से उन लोगों ने उसका पता लगाने के लिए चिट बाँटा। उस चिट पर मित्रविंद का नाम निकला।
इसपर तीन बार चिट बाँटे गये, तीनों बार चिट पर मित्रविंद का नाम निकला। इसपर नाविकों ने नाव से एक छोटी सी डोंगी निकाली, उसपर मित्रविंद को छोड़कर बाकी सब अपने रास्ते नाव पर आगे बढ़ गये। कई दिन यातनाएँ झेल कर आखिर मित्रविंद एक टापू पर पहुँचा। उस टापू में मित्रविंद को संगमरमर का एक महल दिखाई दिया। उस में चार पिशाचिनियाँ निवास करती थीं।
वे पिशाचिनियाँ सात दिनों तक विलासमय जीवन बिताती थीं और फिर एक सप्ताह तक अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए कठोर नियमों का पालन करती थीं। यह उनका नियम था।
मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ सात दिन विलासपूर्ण जीवन बिताया, पर जब पिशाचिनियों ने सात दिनों के लिए कठोर व्रत का पालन करना प्रारंभ किया तब उसका मन उस व्रत का आचरण करने को तैयार न हुआ। इस पर वह अपनी डोंगी पर वहाँ से चल पड़ा।
कुछ दिन समुद्री यात्रा के बाद मित्रविंद दूसरे टापू पर पहुँचा। उस टापू में आठ पिशाचिनियाँ निवास करती थीं। मित्रविंद ने उन पिशाचिनियों के साथ एक हफ़्ता बिताया, इसके बाद उन पिशाचिनियों ने ज्यों ही कठोर व्रत शुरू किया, त्यों ही वह अपनी डोंगी पर वहाँ से निकल पड़ा।
इस प्रकार उसने एक अन्य टापू में सोलह पिशाचिनियों के साथ और दूसरे टापू में बत्तीस पिशाचिनियों के साथ एक सप्ताह विलासपूर्ण जीवन बिताया। आखिर अपनी डोंगी पर वह एक और टापू में पहुँचा। उस टापू में एक विशाल नगर था। उसके चारों तरफ़ ऊँची दीवार बनी थी।
उसके चार द्वार थे। वह उस्सद नरक था, लेकिन मित्रविंद को वह नरक जैसा प्रतीत न हुआ। बल्कि वह एक सुंदर नगर जैसा लगा। उसने अपने मन में सोचा, ‘मैं इस नगर में प्रवेश करके इसका राजा बन जाऊँगा।' नगर के अन्दर एक स्थान पर मित्रविंद को एक व्यक्ति दिखाई दिया। वह अपने सर पर असिधारा चक्र ढो रहा था।
उसकी धार पैनी थी । साथ ही वह चक्र बोझीला था। इस कारण वह चक्र उस आदमी के सर में धँस गया था। सर से रक्त की धाराएँ बह रही थीं। उसका शरीर पाँच लड़ियोंवाली जंजीर से बंधा हुआ था। वह पीड़ा के मारे कराह रहा था।
उस दृश्य को देखने के बाद भी मित्रविंद इस भ्रम में आ गया कि वह व्यक्ति उस नगर का राजा है। असिधारा चक्र मित्रविंद की आँखों को पद्म जैसा दिखाई दिया। उसकी देह पर बंधी जंजीर उसे एक अलंकृत आभूषण जैसी प्रतीत हुई।
उसकी कराहट गंधर्वगान जैसा सुनाई दिया। मित्रविंद उस नरकवासी के समीप जाकर बोला, ‘‘महाशय, आप बहुत समय से इस पद्म को अपने सर पर धारण किये हुए हैं। मुझे भी थोड़े समय के लिए धारण करने दीजिए!'' ‘‘महाशय, यह तो पद्म नहीं, बल्कि असिधारा चक्र है।'' नरकवासी ने उत्तर दिया। ‘‘ओह, आप तो यह मुझे देना नहीं चाहते, इसीलिए आप यह बात कह रहे हैं।'' मित्रविंद ने कहा।
‘आज से मेरे पापों का परिहार हो गया है। यह भी मेरे जैसे अपनी माँ को पीट कर आया होगा! उस पाप का फल भोगने के लिए ही यहाँ पहुँच गया है।' यों अपने मन में विचार करके नरकवासी ने अपने सर पर के असिधारा चक्र को उतारकर मित्रविंद के सर पर रख दिया और खुशी के साथ अपने रास्ते चला गया। स्वर्ग में इन्द्र के पद पर रहने वाले बोधिसत्व देवगणों को साथ लेकर समस्त नरकों का निरीक्षण करते हुए मित्रविंद के पास पहुँचे।
बोधिसत्व को देखते ही मित्रविंद रोते हुए बोला, ‘‘स्वामी, मुझ पर कृपा कीजिए! कृपया यह बताइये कि इस चक्र से मेरा पिंड कब छूटेगा?'' इस पर इन्द्र ने मित्रविंद को यों समझाया, ‘‘तुमने अपार संपत्ति के होते हुए भी धन की कामना की। पिशाचिनियों के साथ सुख भोगा, मानव द्वारा अनुसरण योग्य उत्तम धर्म-मार्ग तुम्हें अच्छे नहीं लगे। दूसरों ने तुम्हारे हित के लिए जो सलाह दी, उसका तुमने तिरस्कार किया और तुमने अपनी इच्छा से इस चक्र की माँग की। इसलिए तुम्हारे जीवन पर्यंत यह असिधारा चक्र तुमको नहीं छोड़ेगा!'' मित्रविंद अपनी इस दुर्दशा का कारण समझ कर दुख में डूब गया।
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